एक डूबते सूरज को प्रणाम : कई मसलों पर उन्‍होंने योगी का ही विरोध किया तो भला योगी उन्‍हें आगे कैसे बढ़ा सकते थे!

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दिनेश अग्रहरि-

गोरखपुर से योगी जीते, लेकिन क्‍या डॉ. राधामोहन हार गए हैं?

उस ‘सनकी’ डॉक्‍टर से मैं पहली बार नब्‍बे के दशक में मिला था. उन्‍हें गोरखपुर शहर आरएमडी के नाम से जानता है. गोरखपुर में इस बार योगी आदित्‍यनाथ के चुनाव में आने की वजह से आरएमडी यानी डॉ.राधा मोहन दास अग्रवाल को टिकट नहीं मिला. करीब 20 साल तक शहर के विधायक रहने के बाद वे राजनीतिक बियाबान में चले गए हैं. हाल में उनका एक हताशा भरा संदेश आया कि अब वे फिर से अपना क्‍लीनिक चलाएंगे. यह संदेश देखकर मैं समझ गया कि हताश होंगे. उनको फोन मिलाया तो इस बात की पुष्‍टि हो गई. वे यह जरूर जताने की कोश‍िश कर रहे थे कि उन्‍हें कोई दिक्‍कत नहीं है, लेकिन उनकी आवाज और बातों से यह साफ लग रहा था कि इस राजनीति से वे काफी हताश हैं.

नब्‍बे के दशक में मैंने छात्र संगठन ABVP जॉइन किया था. कहीं उनके स्‍पीच सुनकर दंग रह गया. फिर पता चला कि वे शहर में पूरी दक्ष‍िणपंथी जमात के सबसे बड़े इंटेलेक्‍चुअल्‍स में से एक माने जाते हैं. (हां तब दक्षिणपंथ में भी इंटेलेक्‍चुअल शब्‍द कोई गाली नहीं होती थी और वे यह जताने की कोशिश करते थे कि हम वामपंथ‍ियों से कम इंटेलेक्‍चुअल नहीं हैं). आरएमडी शहर के एक जाने-माने बाल रोग विशेषज्ञ थे. लेकिन उनके आसपास के मेडिकल स्‍टोर्स वाले उन्‍हें सनकी कहते क्‍योंकि वे दवाइयों का पर्चा हिंदी में लिखते थे. जैसे-जैसे उनके बारे में गहराई से जानता गया उनसे प्रभावित होता गया.

गोरखपुर में मेरे आवास के करीब ही तरंग टॉकीज के पास उनका क्‍लीनिक था. इसलिए एक बार उनसे मिलने भी चला गया. उन्‍होंने एक साधारण कार्यकर्ता को काफी तवज्‍जो दी. जब मैं उनके पास गया तो कोई मरीज नहीं था. वे गीता पढ़ रहे थे. वे खाली समय में अक्‍सर गीता पाठ करते थे. इसके बाद अक्‍सर उनसे ‘बौद्धिक’ लेने जाता रहा. संगठन में मेरा कद बढ़ता जा रहा था. मैं स्‍पीच अच्‍छा देता था. तो एक बार ऐसा हुआ कि किसी अभ‍ियान में राधामोहन जी के साथ कई मुहल्‍लों में मुझे स्‍पीच देने का अवसर मिला. तब मैं एक स्‍टूडेंट ही था और यह मेरे लिए गर्व की बात थी.

मेरे गांव में एक दूर की रिश्‍तेदारी के मामा रहते हैं लाल जी. लाल जी मामा गरीब हैं या कह सकते हैं कि उन दिनों काफी गरीब थे. उनके एक बच्‍चे को स्‍वास्‍थ्‍य की समस्‍या हुई तो मैं उन्‍हें डॉ.राधा मोहन के पास ले गया.

राधा मोहन ने जिस तरह का सम्‍मान दिया उससे मैं द्रवित हो गया. उन्‍होंने फीस तो कभी लिया ही नहीं. जब भी लाल जी मामा उनके पास दिखाने जाते तो वे बिना नंबर बुलाते और यही कहते कि ‘आइए मामाजी बैठिए’. जो व्‍यक्ति अपने एक कार्यकर्ता के गरीब रिश्‍तेदार को इतना सम्‍मान दे रहा हो; उसके नेचर का अंदाजा आप लगा सकते हैं.

इसके बाद समय का चक्र बदला. मुझसे मेरा शहर गोरखपुर छूट गया. राप्‍ती में काफी पानी बह गया. इसके बाद शहर में योगी आदित्‍यनाथ का उभार हुआ. राधा मोहन उनके चुनाव संयोजक बने. और इन अनुभवों का फायदा उन्‍हें तब मिला, जब योगी ने एमएलए के चुनाव में राधा मोहन को उतार दिया.

वे चुनाव जीत गए और उसके बाद लगातार जीतते रहे, करीब 20 साल तक गोरखपुर शहर के विधायक रहे.

उनके जैसा विधायक गोरखपुर के इतिहास में शायद ही कोई हुआ. वे विधायक बनने के बाद भी अपनी मारुति 800 से चलते. कोई गनर नहीं कोई तामझाम नहीं, अक्‍सर खुद ही कार ड्राइव करते मिल जाते. उनकी इस कर्मठता से जहां जनता में लोकप्रियता बढ़ी, वहीं तमाम विरोधी भी पैदा हुए. पूर्वांचल की सामंती राजनीतिक संस्‍कृति में जहां गुंडे माफिया हावी थे, वहीं राधामोहन एक अजूबे की तरह थे.

एक बार मेरे एक परिचित बीजेपी नेता मिले और राधा मोहन की चर्चा करते ही उनके मुंह गालियों की बरसात होने लगी— ‘मादर.. भोष… के ईमानदारी की बांसुरी बजानी थी तो राजनीति में क्‍यों आए..’ मैंने उन्‍हें टोकते हुए कहा कि भाईसाहब आप आरएमडी की लाख आलोचना करो लेकिन गाली तो न दो..; क्‍या अब यह दिन आ गए हैं कि ईमानदार आदमी को इस तरह से गालियों से विभूषित किया जाएगा.

उनके बारे में छन-छन कर खबरें आती रहीं. विरोधी उनके पीछे पड़े रहे. कहते हैं कि एक बार कुछ लोगों ने गोरखपुर से सहजनवा तक पीछा भी किया, इस अफवाह की सच्‍चाई जानने के लिए वे गोरखपुर शहर से तो अपनी मारुति 800 से निकलते हैं, लेकिन गोरखपुर की सीमा से बाहर उनकी फॉर्च्‍यूनर खड़ी रहती है, जिसमें बैठकर फिर वे लखनऊ जाते हैं. लेकिन विरोध‍ियों को रिकॉर्ड करने के लिए कुछ नहीं मिला. वे अपनी कार से ही लखनऊ चले जाते थे. यही नहीं लखनऊ में तो उन्‍हें अक्‍सर अपने फ्लैट से रिक्‍शे या स्‍कूटी से विधानसभा तक जाते देखा जा सकता था. एक बार तो स्‍कूटी से जाते समय लखनऊ में उनका एक्‍सीडेंट भी हो गया था.

उनकी ईमानदार राजनीतिक शैली से शहर के दूसरे नेता, ठेकेदार और अधिकारी काफी परेशान दिखे. योगी से उनकी अक्‍सर श‍िकायतें की जातीं और कई मामलों में उन्‍हें फंसाने, बदनाम करने की भी कोश‍िशें की गईं. लेकिन जुझारू स्‍वभाव के आरएमडी इन सबसे लोहा लेते रहे. हालांकि उन्‍हें राजनीतिक रूप से काफी नुकसान उठाना पड़ा.

उन्‍होंने ठेके-पट्टों के लिए एक सिस्‍टम बना दिया था. इसलिए कुछ लोगों का एकाध‍िकार खत्‍म हुआ. इसकी भी आलोचना हुई. कहा गया कि उनके कुछ ठेकदार और इंजीनियर्स को इन सबका फायदा मिल रहा है. हालांकि उनके द्वारा कराए जा रहे विकास कार्यों को कोई घट‍िया नहीं साबित कर पाया और वे शहर के सबसे सुलभ विधायकों में से रहे.

नब्‍बे के दशक में उन्‍हें हम एबीवीपी वाले गोरखपुर का गोविंदाचार्य कहते तो कोई अरुण जेटली कहता. हमें लगता था कि एक दिन वे देश के बड़े नेता बनेंगे. लेकिन मुझे अचरज तो तब हुआ कि जब यूपी में बीजेपी सरकार बनने के बाद उन्‍हें कोई मंत्रालय नहीं दिया गया. मुझे लगता है कि वे यूपी के एक बेहतर स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री हो सकते थे. लेकिन राधा मोहन को कुछ नहीं दिया गया.

इस बारे में मैंने यूपी के कई बीजेपी नेताओं से बात की. जानकार इसकी कई वजह बताते हैं. एक वजह तो यह बताई जाती है कि योगी ने ही उन्‍हें विधायक बनाया, लेकिन कई मसलों पर उन्‍होंने योगी का ही विरोध किया. तो भला योगी उन्‍हें आगे कैसे बढ़ा सकते थे.

दूसरी वजह यह बताई जाती है कि राधा मोहन के साथ ऐसा कोई सरनेम नहीं जिसका बीजेपी को कोई फायदा हो. मतलब एक बीजेपी नेता साफतौर से बताया कि वे ब्राह्मण,राजपूत, निषाद, हरिजन जैसे किसी ऐसे वर्ग में नहीं आते जिसका कोई वोट बैंक हो. नहीं तो गोरखपुर से लगभग समाप्‍त मान लिए जाने वाले श‍िवप्रताप शुक्‍ल को राज्‍यसभा, वित्‍त राज्‍यमंत्री जैसा सम्‍मानित पद दिया गया. तो आरएमडी को भी पार्टी कहीं सेट कर सकती थी. मुझे तो लगता है कि अगर राधा मोहन को केंद्र में ऐसा कोई अवसर मिल जाए तो देश की राजनीति में छा जाएंगे.

एक बीजेपी नेता ने कहा कि ‘राजनीति एक पजल है. राधामोहन ऐसे अकड़ू व्‍यक्‍ति हैं जो इस पजल में कहीं फिट नहीं होते. यानी वे बीजेपी के पजल में कहीं फिट नहीं हो पा रहे.’ लब्‍बोलुआब यह है कि आज की राजनीति में ऐसे ईमानदार लोगों के लिए कोई जगह नहीं, क्‍योंकि वे पार्टी के लिए समस्‍याएं खड़ी करते रहते हैं.

योगी आदित्‍यनाथ के गोरखपुर से चुनाव लड़ने से ही यह साफ हो गया था कि राधामोहन के लिए अब शायद ही कुछ बचे. हाल में राधामोहन से मैंने बात कर उनकी आगे की राजनीतिक योजना की टोह लेने की कोश‍िश की तो वे काफी हताश दिखे.

मैंने यह अंदाजा लगाने की कोश‍िश की कि किसी और पार्टी में क्‍यों नहीं जाते? लेकिन उनकी बातों से लगा कि यह असंभव है. उनका वैचारिक आग्रह काफी गहरा है. वे तब से आरएसएस के स्‍वयंसेवक रहे हैं, जब मेरे जैसे लोगों का जन्‍म भी नहीं हुआ था.

अब उनका राजनीतिक करियर लगभग समाप्‍त ही दिख रहा है. पूर्वांचल की राजनीति का इतिहास जब लिखा जाएगा, तो आगे की पीढ़ी शायद ही भरोसा कर पाए कि ऐसा भी कोई विधायक था. पूर्वांचल की गुंडे, माफियाओं की राजनीति वाली जमीन पर वे किसी अलग तरह के ही फूल थे. मुझे तो लगता है कि पूरे देश में ऐसे ईमानदार और सिद्धांतवादी विधायक गिने-चुने मिलेंगे.

राधामोहन हार गए हैं, वे हताश हैं. पर सच तो यह है कि जिस समाज में ऐसे ईमानदार लोगों की जगह न हो, ईमानदार लोग हताश हों, वह ऊपर से भले ही कितना चमकदार लग रहा हो, अंदर से सड़ रहा होता है. मैं अक्‍सर डूबते सूरजों को प्रणाम करता रहता हूं, इसलिए आज इतना कुछ लिख गया…

यह दिनेश अग्रहरि के फेसबुक पेज से लिया गया है.


एक फेसबुकी टिप्पणी-

Pratibha Rai- एक एक अक्षर से 1000% सहमत, मेरे शहर के इस ईमानदार राजनेता और चिकित्सक के हाशिए पर जाने से बहुत दुख होता है, जिसे सिर माथे पर बैठा एक शुचिता भरी राजनीति के लिए राज्य ही नहीं पूरे देश मे मिसाल कायम करनी चाहिए थी, उन्हें आज हताशा झेलनी पड़ रही है। इससे ये भी संदेश जाता है कि सत्ता को ईमानदारी से काम करने वाले लोग नहीं चाहिए, कमोबेश यही हाल मीडिया में भी है।

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