संजय कुमार सिंह-
ऐसे छपती थीं एक्सक्लूसिव और धमाकेदार खबरें… अब मीडिया ही नहीं, कई संस्थान और दुकान भी गोदी में हैं…
साथी पत्रकार गणेश प्रसाद झा ने आज ‘पत्रकारिता की कंटीली डगर’ की 24वीं किस्त लिखी है। इसमें उन दिनों इंडियन एक्सप्रेस में छपने वाली विस्फोटक खबरों के छपने से पहले के दफ्तर के माहौल का जिक्र है। होता यह था कि क्या खबर छपने वाली है उसका पता गिनती के लोगों को ही होता था। उन दिनों यह मुश्किल काम था क्योंकि खबर पीटीएस में कंपोज होती थी और पत्रकारों में कोई उन दिनों कंप्यूटर पर टाइप नहीं करता था। अब पेज बनाने वाला एडिशन इंचार्ज अखबार छपने से पहले पेज पर सीधे नई खबर लगा सकता है या किसी खबर को बदल सकता है।
इस तरह अब जब तकनीक उपलब्ध है तो खबरें नहीं छपतीं और तमाम धमाकेदार खबरों पर संसद में हंगामा नहीं होता। जाहिर है, प्रचारकों ने इसके लिए पूरी व्यवस्था की है और देश जब आजादी मना रहा था तो कुछ लोग देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए सत्ता हथियाने और संस्थानों को नपुंसक बनाने में लगे थे। मजाक में कुछ मित्र कहते हैं कि यह जबरन नसबंदी का असर है। जो हो दुखद है। पेश है Ganesh Jha का लिखा संबंधित अंश :
संसद हिला देने वाली पत्रकारिता
इंडियन एक्सप्रेस समूह के हिन्दी अखबार जनसत्ता में काम करने और सीखने की गजब की गुंजाइश थी और वहां काम करने का अनुभव भी गजब का हुआ। पत्रकारिता संस्थानों से आए प्रशिक्षुओं और नौकरी में नए आए साथियों को डेस्क पर काम सिखाने के भी खूब मौके मिले। उस दौरान कांग्रेसी प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय का बोफर्स घोटाला, 1992 का हर्षद मेहता का शेयर मार्केट घोटाला, 1991 का जैन भाइयों का हवाला कांड, बलराम जाखड़ का चारा मशीन घोटाला आदि देश में कुछ बेहद सनसनीखेज घोटाले हुए थे जिनकी खबरें बहुत ही गोपनीय तरीके से बंद कमरे के भीतर लिखी गई थी और अखबार के पेज भी बड़ी गोपनीय तरीके से बनाए गए थे ताकि सरकार को इसकी भनक न लगे।
डर था कि अगर सरकार को कहीं इसकी भनक लग गई तो रातों रात अखबार के दफ्तर पर छापा पड़ जाएगा और तब कहीं सरकार अखबार ही छपने से न रोक दे। उन दिनों अक्सर संसद का सत्र शुरू होने के दिन ही ऐसी कोई न कोई स्टोरी ब्रेक की जाती थी। इन खबरों से संसद में खूब हंगामा मचता था और सांसद सदन में अखबार लहराते थे। अखबार में बेहद चर्चित घोटालों पर हुए इन रहस्योदघाटनों से मानो संसद भवन ही हिल जाता था। तब सचमुच इस तरह की खबरों को अपने अखबार में छपा देखकर काम करने में बड़ा मजा आता था और खुद पर बहुत गर्व होता था।
अमूमन ऐसी खबरें जब भी ब्रेक की जाती थी तो उसकी गोपनीयता का बहुत खयाल रखा जाता था। सिर्फ चंद वरिष्ठ लोगों को ही यह पता होता था कि क्या खबर जाने वाली है। खबरों का उदगम तो इंडियन एक्सप्रेस ही होता था। उनका संपादक या रिपोर्टर अपनी विस्फोटक खबर की कॉपियां जनसत्ता के प्रधान संपादक को दे देता था। पर सबकुछ एकदम गोपनीय होता था।
इंडियन एक्सप्रेस में खबर लिखनेवाले संपादक या रिपोर्टर के अलावा सिर्फ संपादक को ही खबर के बारे में मालूम होता था। जनसत्ता में सिर्फ प्रधान संपादक को ही पता होता था। संपादक के आदेश पर सिर्फ चंद वरिष्ठ लोग उस खबर के अनुवाद के लिए लगाए जाते थे। जब-जब ऐसा कुछ होना होता था तो जनसत्ता डेस्क के कुछ वरिष्ठ साथी अचानक कुछ घंटों के लिए गायब हो जाते थे। इनमें सत्य प्रकाश त्रिपाठी, श्रीश चंद्र मिश्र, अमित प्रकाश सिंह, अभय कुमार दुबे और मनोहर नायक जैसे माहिर लोग हुआ करते थे।
खबर का अनुवाद अमूमन किसी बंद कमरे में या फिर प्रधान संपादक के कमरे में ही होता था। अनुवाद में लगे उन वरिष्ठ लोगों को कमरे से बाहर निकलने तक की इजाजत नहीं होती थी। चाय-पानी का इंतजाम अंदर ही करा दिया जाता था। ये वरिष्ठ लोग बड़ी स्वामिभक्ति से यह काम किया करते थे। इस सबसे जनसत्ता को बाकी अखबारों से अलग दिखने और इंडियन एक्सप्रेस का हिन्दी संस्करण बनाए रखने में बड़ी मदद मिली।
असल में ऐसी गुप्त खबरें कभी डेस्क पर नहीं आती थी। डेस्क पर तो किसी को इसकी हवा भी नहीं लगती थी। सिर्फ एडिशन इंचार्ज से कह दिया जाता था कि पहले पेज पर इतनी जगह छोड़ देनी है। खबर बाद में दी जाएगी। उसमें भी कई बार खबर प्रभात संस्करण से नहीं देकर, नगर संस्करण से लगाने की शुरुआत की जाती थी। अक्सर इंडियन एक्सप्रेस में खबरें देखकर लगता था कि यह खबर कब आई पर वह नगर एडिशन में होती थी। इंडियन एक्सप्रेस और उसके संपादक अरुण शौरी की लगभग सारी खबरें ऐसे ही छपती थीं।
अरुण शौरी ने कहीं कहा था या लिखा था या किसी और ने लिखा था कि वे जानबूझ कर ऐसी खबरें संसद सत्र चलते समय छापते हैं। मुख्य रूप से ऐसा इसलिए होता था ताकि खबर रोकने के लिए सरकार की तरफ से कोई दबाव न पड़े। हाल में आई अरुण शौरी की किताब, द कमिशनर फॉर लॉस्ट कॉजेज में ऐसे कुछ मामलों का जिक्र है। ऐसी गोपनीय और विस्फोटक खबरों की कंपोजिंग का काम पीटीएस की गहन निगरानी में होता था। बाद में जब डेस्क के कुछ साथियों की पीटीएस फोरमैन से दोस्ती हो गई थी तो वे उन्हें खबर पहले ही पढ़वा देते थे। मुख्य रूप से उनकी दिलचस्पी खबर जानने में होती थी जो वे अंग्रेजी से नहीं समझ पाते थे, अंग्रेजी वाले भी।