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संतुष्टिकरण की राजनीति, तानाशाही को नजरअंदाज करता मीडिया और आत्मविश्वास का दिखावटी खेल

संजय कुमार सिंह

संसद के दर्शक दीर्घा से लोकसभा में कूद कर रंगीन धुंआ छोड़ने के मामले में पुलिसिया कार्रवाई तो चल ही रही है, संबंधित खबरें भी हैं लेकिन सरकार की तरफ से कोई बयान नहीं आया है। इसकी मांग करने वाले विपक्षी सांसदों को निलंबित कर दिया गया है। आप जानते हैं कि लोकसभा में कूदने वाले इन लड़कों ने नारा लगाया था, तानाशाही नहीं चलेगी। मुझे लगता है कि पूरा मामला सरकार को इतना भर बताने का था पर बाद की कार्रवाइयों से लगता है कि सरकार तानाशाही पर आमादा है। वैसे तो सरकार क्या कर रही है उसकी चिन्ता मेरा काम नहीं है और मैं यह बताने की कोशिश करता हूं कि अखबार क्या बता रहे हैं। आज मैं कह सकता हूं कि अखबार ऐसा कुछ नहीं बता रहे हैं। जब यह कहा जा रहा है कि इस मौके पर भी प्रधानमंत्री संसद में नहीं हैं तो पुलिस ने कहा है और इंडियन एक्सप्रेस ने लीड के साथ टॉप पर छापा है कि अभियुक्तों के पास पर्चे थे जिनमें प्रधानमंत्री को लापता (मिसिंग पर्सन) कहा गया है। खबर के अनुसार, सरकारी वकील ने अदालत में कहा कि पर्चे में प्रधानमंत्री को एक घोषित अपराधी के रूप में पेश किया गया है।

टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर के अनुसार गृहमंत्री अमित शाह ने एक मीडिया आयोजन में कहा है कि संसद में रंगीन धुंआ छोड़ने का मामला सुरक्षा में गंभीर चूक है और आने वाले समय में सख्त उपाय किये जाएंगे। पर मुझे लगता है कि दर्शक दीर्घा से लोकसभा में कूदने की संभावना और गुंजाइश रहना – ज्यादा बड़ी चूक है और इसके लिए सुरक्षा कर्मी जिम्मेदार नहीं हैं। और यह सिर्फ सुरक्षा का मामला नहीं है। नई बिल्डिंग में ऐसा कैसे हुआ और इसपर किसे ध्यान देना था यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। पर खबर के अनुसार अमित शाह ने विपक्ष पर मामले के राजनीतिकरण का आरोप लगाया है। मुझे लगता है कि संसद में और संसद में जो हुआ उसपर राजनीति न हो तो किसपर होगी। और राजनीति तो यही है कि ‘पास’ भाजपा के सांसद ने बनवाये थे। दिलचस्प यह है कि इस मामले के राजनीतिकरण के लिए विपक्ष के सांसद निलंबित किये गये और भाजपा वाले के बारे में दो शब्द भी नहीं हैं। राजनीति तो यह भी है लेकिन अखबार नहीं बतायें तो समझेगा कौन? खासकर, पासवर्ड देने की राजनीति में संसद की सदस्यता से बर्खास्त किये जाने के बाद।  

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मुझे लगता है कि संसद में जो हुआ उसके बाद खबर यह नहीं है कि वे क्या बोलने-बताने आये थे। यह तो उनका प्रचार होगा और वे इसीलिए आये थे। जब कल शीर्षक में यह नहीं छपा कि तानाशाही नहीं चलेगी तो अब यह आरोप ही है कि उनके पास पर्चे थे और उनपर क्या लिखा था। वैसे भी, यही सब लिखकर लगाये पोस्टर हटाने की खबर और तब की पुलिसिया कार्रवाई हम जानते हैं।   अखबारों को यह बताना चाहिये कि सरकार इस मामले में क्या कर रही है। अखबारों ने बताया भी है और वह यह कि सरकार ने विपक्षी सांसदों को निलंबित कर दिया है। कुल मिलाकर सरकार अपना काम नहीं कर रही है। वेतन-भत्ते लेने और छुट्टी पर नहीं होने के बावजूद। यह मैं इसलिए लिख रहा हूं कि इसी सरकार में यह प्रचारित किया गया कि प्रधानमंत्री छुट्टी नहीं लेते हैं और रोज 18-20 घंटे काम करते हैं। पर जनता को इसका फायदा क्या है? कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री कई मौकों पर गायब और मौन रहे हैं। मणिपुर जाने का समय नहीं निकाल पाये हैं और हिन्दी पट्टी में सिमटते जा रहे हैं। निश्चित रूप से यह उनका आत्मविश्वास है और यह एक महत्वपूर्ण सवाल है कि यह आत्मविश्वास आता कहां से है?

मुझे लगता है कि इसका कारण अखबारों में सरकार के खिलाफ खबरें नहीं छपना है। औऱ जो थोड़ा बहुत छपता है उसके नुकसान की भरपाई व्हाट्सऐप्प यूनिवर्सिटी से कर लिये जाने की योग्यता है। ऐसे में वे मुसलमानों के पक्ष में कुछ हो या किया जाये तो उसे तुष्टिकरण कहते हैं, दूसरा कोई मुफ्त दे तो उसे रेवड़ी कहते हैं और खुद मुफ्त राशन देकर किसी को भूखा नहीं रहने देने की गारंटी देते हैं। ज्यादातर अखबार सच बताने की बजाय प्रचार करते हैं। आज अखबारों ने यह तो नहीं ही बताया है कि सरकार ने इस मामले में कोई बयान नहीं दिया है। विपक्षी सदस्यों के निलंबन जैसी तानाशाही कई बार सरकार की मजबूती या आत्मविश्वास के रूप में दिखाई देती है। निश्चित रूप से इसका कारण सरकार की संतुष्टिकरण की कार्रवाई है। इसमें सेंगोल की स्थापना शामिल है। आज के अखबारों में इसका उदाहरण, “मथुरा ईदगाह का भी सर्वे” जैसी खबर का लीड बनना है। हिन्दुस्तान टाइम्स में यह पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर लीड है।

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यहां शीर्षक है, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मथुरा के ईदगाह मस्जिद के सर्वेक्षण की इजाजत दी। कहने की जरूरत नहीं है कि यह खबर छोटी भी छप सकती थी लेकिन इसके जो प्रभाव हो सकते हैं उसकी वजह से इसे प्रमुखता देना जरूरी है। यह संपादक का विवेक है कि इसकी जगह कौन सी खबर कम महत्व पायेगी और यह दिख रहा है। उदाहरण के लिए आज ही, हिन्दुस्तान टाइम्स में ही पहले पन्ने की एक खबर बताती है कि डबल इंजन वाले उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट की एक महिला जज ने देश के मुख्य न्यायाधीश से मरने की इजाजत मांगी है। मुझे याद है, पहले आम आदमी ऐसी अनुमति मांगते थे और अब हाईकोर्ट की जज मांग रही हैं। इस लिहाज से आप समझ सकते हैं कि यह खबर कितनी महत्वपूर्ण है। लेकिन आज यह खबर दूसरे अखबारों में इतनी प्रमुखता से नहीं है जबकि हिन्दुस्तान टाइम्स की इस खबर के अनुसार यह चिट्ठी सोशल मीडिया पर वायरल है।

यह तो हुई खबरों की बात और मुझे लगता है कि इस सरकार के आत्मविश्वास का कारण भी अखबार और उसकी खबरें ही हैं। यह संयोग ही है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मथुरा के ईदगाह मस्जिद के सर्वेक्षण की इजाजत की खबर आज ही आई है। दूसरी ओर, पूजा स्थल से संबंधित 1991 के एक कानून के मुताबिक, 15 अगस्त 1947 को धार्मिक स्थलों की स्थिति जैसी थी, उन्हें वैसा ही रखा जाएगा। अयोध्या के राम मंदिर के मामले को इससे अलग रखा गया था। उम्मीद की जाती थी कि अयोध्या का मामला निपटने के बाद ऐसा दूसरा विवाद खड़ा नहीं होगा पर भिन्न कारणों से ऐसी खबरें आ ही रही हैं और लगता है भरपूर संतुष्टिकरण हो रहा है जो खबरों और चुनाव परिणाम के रूप में भी नजर आता है। हिन्दी अखबार तो हिन्दू हो गये लगते हैं।

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आज की खबरों में एक और दिलचस्प खबर है और वह यह कि संसद में कूदने वाले दो युवकों के एक सहयोगी और पांचवें अभियुक्त ललित झा की तस्वीर तृणमूल कांग्रेस के विधायक तापस राय के साथ है। इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पन्ने पर खबर छापकर बताया है कि इस पांचवें अभियुक्त को गिरफ्तार कर लिया गया है और पश्चिम बंगाल भाजपा के अध्ययक्ष सुकांत मजूमदार ने इस तस्वीर को ट्वीट किया है। मुझे लगता है कि यह बहुत सामान्य बात है कि सरकार का विरोध करने वालों का संबंध विपक्षी दल या उसके नेताओं से है। यह खबर नहीं है। वैसे ही जैसे कुत्ता आदमी को काटे तो खबर नहीं होती थी। लेकिन अब यह भी खबर बनने लगी है और कुत्तों का आतंक इतना है कि बच्चे तो बच्चे, बड़े और व्यावसायी भी उनके शिकार हो चुके हैं और यह खबर नहीं है कि सरकार इसके लिए क्या कर रही है। अब खबर यह है कि सरकार का विरोध करने वाला विपक्षी दल का है। कहने की जरूरत नहीं है कि सोशल मीडिया पर सत्तारूढ़ दल की ट्रोल सेना भी है और उसके लिए भी दाना-पानी डाला ही जाता होगा। पर वह अलग मुद्दा है।

ऐसे में खबर यह है कि इस सरकार ने 2019 से लेकर अब तक सत्रवार कम से कम 71 बार विपक्षी सांसदों को निलंबित किया है (इंडियन एक्सप्रेस)। कहने की जरूरत नहीं है कि संसद में अगर विपक्षी सांसदों को निलंबित किया जायेगा तो विपक्ष अपनी बात कहां रखे और क्या संसद विपक्ष के बिना चलने के लिए है? पर वह सब अब मुद्दा नहीं है और खबर भी नहीं है। अमर उजाला में मस्जिद के सर्वेक्षण को कोर्ट की मंजूरी खबर छोटे फौन्ट में लीड से ऊपर है और लीड इतने ही कॉलम में इसकी नीचे है। शीर्षक है, अमर्यादित व्यवहार पर 14 विपक्षी सासंद निलंबित। मुझे लगता है कि इतनी बड़ी और अनूठी घटना के बाद प्रधानमंत्री और गृहमंत्री संसद में नहीं आये यह ज्यादा अमर्यादित है, तुष्टिकरण की आलोचना और संतुष्टीकरण का दावा ही नहीं, मुसलमानों को जनप्रतिनिधि नहीं बनाना (टिकट ही नहीं देना) ज्यादा अमर्यादित है पर वोट मिल रहे हैं क्योंकि इसकी चर्चा अखबारों में नहीं होती है या बहुत कम होती है।    

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इंडियन एक्सप्रेस में आज एक और खबर है जो दूसरे अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है। फ्लैग शीर्षक है, मुख्यमंत्री यादव ने लाउडस्पीकर, मांस की दुकानों पर हमला बोला। मध्यप्रदेश सरकार ने बुलडोजर का उद्घाटन किया : भाजपा कार्यकर्ता पर ‘हमले’ के लिए तीन लोगों का घर गिराया गया। राज्य में अवैध मांस-मछली बेचने वाली दुकानों की जांच के लिए सघन अभियान चलाने की घोषणा की गई है और वीरवार को करीब 10 दुकानें गरा दी गईं। इस खबर के साथ लाल टीका, हाथों में कलावा और पीले कपड़े पहने मुख्यमंत्री की तस्वीर है जो अखबार के अनुसार वीरवार की है। जहां तक संसद में पीला धुंआ छोड़ने की बात है, पुलिस ने कहा है और अखबारों ने छापा है, “यह आतंकी हमला था : दिल्ली पुलिस” (नवोदय टाइम्स)। द हिन्दू ने लिखा है, “सुरक्षा भेदने के मामले में आतंकवाद के आरोप लगाये गये”। द टेलीग्राफ का शीर्षक है, सरकार की चूक का शिकार विपक्ष हुआ। इसके साथ सिंगल कॉलम की एक खबर है, आंतक से अभी तक कोई संबंध नहीं फिर भी पांच पर आतंकवाद का आरोप।

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