राकेश कायस्थ-
पिछले साल का यही महीना था। माहौल भी कुछ ऐसा ही था। मुँह पर मास्क बाँधे प्रधानमंत्री देश से कह रहे थे कि अगर इन 21 दिनों में सावधानी नहीं बरती तो देश 21 साल पीछे चला जाएगा। हम सब लॉक डाउन की एक अँधेरी गुफा में दाखिल हो रहे थे, इस उम्मीद के साथ कि आगे रौशनी दिखाई देगी।
मुझे याद है, फोन पर मेरे एक दोस्त ने बड़ी भावुकता के साथ कहा था— हम जब भी दोबारा मिलेंगे हमारी मुलाकात एक बेहतर दुनिया में होगी। मेरे दोस्त ये मान रहे थे कि इतनी बड़ी मानवीय त्रासदी के बाद भारत और विश्व समाज दोनों बदल जाएंगे। नफरत, तुच्छता और गैर-ज़रूरी छोटे मुद्दे छोड़कर लोग पर्यावरण और स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में बात करने लगेंगे।
लोग ये मानेंगे कि अगर कोरोना के वायरस को लेकर वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी सही साबित हो सकती है तो फिर वो भविष्यवाणी भी सच ही होगी, जिसमें लगातार ये कहा जा रहा है कि ग्लोबल वॉर्मिंग इसी तरह से बढ़ती रही तो अगले सौ साल में धरती से मानव जाति का नामो-निशान मिट जाएगा।
एक साल बाद मैं सोच रहा हूं कि बतौर इंसान क्या हमारी सोच में कोई बुनियादी बदलाव आया है? एक साल में हमारे चारो तरफ कितना कुछ बदल गया है। हम में से लगभग हर आदमी ने अपने किसी ना किसी आत्मीय मित्र या परिजन को कोरोना संकट में खोया है। हमें यह भी पता नहीं है कि अगला नंबर किसका है। लेकिन इतने बड़े संकट ने मानव समूह के रूप में हमारी सोच को नहीं बदला।
तुच्छताएं और क्षुद्रताएं वैसी हैं। बाढ़ जैसी आपदाओं में सेंधमारी होती थी। कोराना का इस्तेमाल पूरी दुनिया में उस चोर संस्था ने सिर्फ अपनी ताकत बढ़ाने के लिए किया है, जिसका नाम सरकार है।
पड़ोसी का मर जाना, रिश्तेदार का मर जाना या शायद परिजनों का चले जाना भी अब न्यू नॉर्मल है। कहीं यह बुनियादी सवाल नहीं है कि जीवन रक्षक व्यवस्थाएं बनाना सर्वोच्च प्राथमिकता क्यों नहीं होनी चाहिए।
मुझे एक बहुत पुरानी घटना याद आ रही है। जालीदार टोकरी लेकर बैठा एक आदमी देशी मुर्गे बेच रहा था। वो आदमी जब टोकरी में हाथ डालता था, तब मुर्गे सहम जाते थे।
आदमी एक मुर्गा निकालता उसे काटता था और अवशेष उसी टोकरी में फेंक देता था। बाकी मुर्गे भय भूलकर में उन अवशेषों को हड़पने की होड़ में लग जाते थे। सरकार वही मुर्गे वाला है और टोकरी में बैठे लोग नागरिक हैं।