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सुख-दुख

आजतक में कार्यरत रहे वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र श्रीवास्तव भी चले गए

अमिताभ श्रीवास्तव-

एक और काबिल पत्रकार और बेहतरीन इनसान खो दिया। टीवी टुडे के सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव के गुज़र जाने की ख़बर मिली है। क्या कहें। सत्येंद्र बहुत मेहनती, काबिल और समर्पित संपादकीय सहयोगी थे। सुलझे हुए पत्रकार, आउटपुट टीम के अगुआ दस्ते का चेहरा। मेरे बहुत भरोसेमंद साथी रहे। बहुत संतुलित , शांत, शालीन इनसान। पढ़ने-लिखने वाले।

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सहारा में रह चुके सत्येंद्र हमारी टीम से जुड़कर टीवी टुडे का हिस्सा बने थे। पिछले कुछ बरसों में उन्होंने पत्रकारिता के साथ-साथ साहित्य की दुनिया में भी सार्थक हस्तक्षेप किया और प्रतिष्ठा अर्जित की थी। जब भी कोई कविता-कहानी कहीं छपती थी, हमेशा सूचित करके प्रतिक्रिया का आग्रह करते थे। आज उनके बारे में जानकर साथ बिताये दिन आंखों के आगे बिल्कुल सिनेमा की रील की तरह घूम गये। बहुत दुखद है, बहुत दुखद। हृदयविदारक। सत्येंद्र जी को श्रद्धांजलि। परिवार के प्रति संवेदनाएं।


राकेश कायस्थ-

“सत्येंद्र जी फाइटर हैं। उन्हें कुछ नहीं होगा। जल्द ही ठीक हो जाएंगे”

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मुझे याद है, उनकी पत्नी से हुई मेरी वो बातचीत।

सत्येंद्र जी से मेरी फोन में खूब लंबी बातें होती थीं लेकिन दस-पंद्रह दिन से कोई कोई संपर्क नहीं था। अचानक एक दिन मैंने उनका फेसबुक पोस्ट देखा। कोविड संक्रमण के बाद उन्होंने अपने लिए दिल्ली-एनसीआर में आईसीयू बेड ढूंढने की अपील की थी।

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सैकड़ों फोन कॉल के बाद रात ढाई बजे में लगभग हार गया था। तभी उनका मैसेज आया कि किसी की मार्फत गुड़गांव में आईसीयू बेड की व्यवस्था हो गई है।

अगले दिन सुबह उन्होंने टेक्स्ट करके बताया कि एडमिट हो चुका हूँ और बिल्कुल ठीक हूँ। हफ्ते भर से ज्यादा हस्पताल में रहने के बाद आज सुबह-सुबह ख़बर आई कि वो चले गये।

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समझ में नहीं आ रहा कि क्या कहूँ। गर्मजोशी से भरा एक दोस्त, एक नायाब इंसान, ट्रू फैमिली मैन, बेहद सधा हुआ पत्रकार और एक प्रतिबद्ध लेखक। सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव के कई चेहरे थे और मैं हर चेहरे से वाकिफ था।

संभवत: वो इकलौते ऐसे व्यक्ति थे, जिनसे मेरी दोस्ती पेशेवर जिंदगी में आने के बाद हुई, मगर हमारी बातचीत की भाषा हिंदी नहीं भोजपुरी थी।

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आज तक समूह के चैनल तेज में उनके साथ ऐसे वक्त में काम किया जब वो अपने किडनी ट्रांसप्लांट के बाद वापस लौटे थे। संपादक और बाकी वरिष्ठ सहकर्मी ये चाहते थे कि वो आराम से थोड़ा-थोड़ा काम करें। मतलब ऑफिस में दो-चार घंटे बितायें और घर चले जायें।

मगर सत्येंद्र जी इसके लिए तैयार नहीं थे। उन्हें उसी तरह काम करना था, जिस तरह बाकी सहकर्मी कर रहे थे। मॉर्निंग शिफ्ट इंचार्ज का तनाव भरा रोल उन्होंने लिया और बेहद पेशेवर तरीके से अपनी ड्यूटी निभाते रहे।

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मुख्य धारा की पत्रकारिता से अलग होने और दिल्ली छोड़ने के बाद मेरी सत्येंद्र जी से आत्मीयता और गहरी हुई। मैंने यह महसूस किया कि अपने मूल स्वभाव से वो एक लेखक हैं।
वो बहुत खुश होकर मुझे फोन करते थे कि मैंने बिना किसी परिचय के हंस में अपनी कहानी भेजी और कहानी स्वीकृत हो गई। साहित्यिक पत्रिकाओं में जब भी उनकी कोई रचना आती, उनका फोन ज़रूर आता था।

उनकी कुछ किताबें छप चुकी थीं, जिनमें एक कविता संग्रह और उपन्यास शामिल थे। हाल में मुझे उन्होंने बताया कि उनका नया कथा संग्रह उसी प्रकाशन से आ रहा है जो मेरी किताबें छापता है।

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बीमारी की सूचना मिली तो बुक एडिटर ने कहा कि किताब मैंने एडिट की है और सचमुच सारी कहानियां बेहतरीन हैं।

कोलकाता में पैदा होने की वजह से बांग्ला संस्कृति और साहित्य में उनकी गहरी रूचि थी। वो कई श्रेष्ठ बांग्ला रचनाओं का हिंदी अनुवाद छापने की योजना बना रहे थे और बकायदा एक प्रकाशन संस्थान भी शुरू किया था।

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“पत्रकारिता से रिटायर भइला के बाद फुट टाइम साहित्यिक लेखन आ प्रकाशन कइल जाइ”– भोजपुरी कहा जाने वाला उनका ये वाक्य मेरे जेहन में लगातार घूम रहा है।

नियति उन्हें लेकर हमेशा से क्रूर रही। एक मामूली सी दवा रियेक्शन से उनकी किडनियां बेकार हो गई थीं। मगर सत्येंद्र भाई ने कभी कोई शिकायत नहीं की। एम्स के ऑर्गन ट्रांस्प्लांट डिपार्टमेंट के चक्कर वो अक्सर लगाते रहे थे। मामूली सा इनफेक्शन होने पर भी उन्हें एडमिट होना पड़ता था, मगर हंसते-हंसते फिर से काम पर हाजिर हो जाते थे।
मुझे सबसे ज्यादा अफसोस उनकी पत्नी वर्णाली भाभी के लिए हो रहा था। उन्होंने अपनी किडनी डोनेट की थी। इस बार भी बहुत ही धीरज से उन्होंने पूरी लड़ाई लड़ी। मुझे याद है वो कह रही थी, ठीक होने पर हम सब लोग अपना प्लाज्मा डोनेट करेंगे।

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मगर संघर्ष काम ना आया। हतप्रभ हूँ। ईश्वर ने अकूत संभावनाओं से भरे एक नेक इंसान को इतना थोड़ा सा वक्त दिया। उनके प्रतिभाशाली बेटे ने अभी-अभी करियर शुरू किया है। बिटिया अभी बहुत छोटी है।

उनकी हंसती हुई तस्वीर देख रहा हूँ लग रहा कि धीरज की प्रतिमूर्ति सत्येंद्र भाई मुझसे कह रहे हैं ” कोनो बात नइखे, नियति एकरे के कहल जाला जेतना टाइम मिलल बहुत मिलल।”

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गिरिजेश वशिष्ठ-

एसपी श्रीवास्तव ( Satyendra Prasad Srivastava )चले गए. बेहद समर्पित, नपे तुले, शानदार भाषा वाले पत्रकार थे, वो कई साहित्यिक पुस्तकें लिख चुके थे, भीतर से बहुत कुछ सुलगता रहता था लेकिन उनकी मुस्कान कभी नहीं छूटती थी. उनके पास बैठना अच्छा लगता था.

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ये उनका दूसरा जीवन था जो कोरोना ने छीन लिया. इससे पहले उनके गुर्दे खराब हुए थे. उनकी पत्नी ने अपना गुर्दा देकर उन्हें बचा लिया था.

न्यूजरूम में मेरा रवैया अक्सर चुटकुले फोड़ते रहने और मुस्कुराहत बिखेरने की कोशिश करने वाला होता था. लेकिन सत्येन्द्र जी से बात करते गंभीर हो जाता था. मन करता कि सारी बातें शेयर करूं. समाज और व्यव को लेकर सरोकार सामने रख दूं. वो भी शायद यही महसूस करते थे.
वो घर से जो भोजन लाते थे वो करीब वैसा ही होता जैसा हमारे यहां बना करता था. उन्होने मकान खरीदा तो बिल्डर से मुलाकात मैंने ही करवाई.

वो जब भी काम करते करते थक जाते तो दोनों हाथों को ऊपर उठाते और एक से दूसरे को पकड़कर गर्दन उठाते हुए बातें करते. हम दोनों का परिचय 2004 से था. सहारा समय में हम दोनों एक ही चैनल में थे मैं इनपुट हैड और वो आउटपुट में शिफ्ट प्रभारी, बाद में वो तेज़ में आ गए और मैं दिल्ली आजतक में. वीडियोकॉन टॉवर तक हम एक ही फ्लोर के एक ही कोने में बैठे और रोज मुलाकात रही.

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खबरों की समझ बेजोड़ थी. उन्हेंपता था कि कौनसी खबर लोकरुचि की है और कौन सी लोकहित की. यही समझ आखिरी तक रही लेकिन जब समझ को किनारे रखकर पत्रकारिता का दौर आया तो एसपी भी किनारे होते चले गए.

आखिर में जब उनकी हालत बिगड़ी तो सोशल मीडिया पर लगातार मदद ढूंढी गई. रोहित सरदाना गए थे. उनके साथ उसी फ्लोर पर रहने वाले एक बेहद सीनियर पत्रकार को एक अदद बेड नहीं मिल रहा था. बड़ी संख्या मे लोग सेलेब्रिटी सरदाना के साथ अपनी नजदीकियां सोशल मीडिया पर झाडने में लगे हुए थे. लेकिन श्रीवास्तव जी के लिए सिर्फ उनके पुराने मित्र और साथी सक्रिय थे.

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आखिरकार एक पुराने साथी और बेहतरीन इनसान संत प्रसाद जी ने उनके लिए गुड़गांव में बेड का इंतजाम करवा दिया. फिर प्लाजमा की जरूरत पड़ी साथी दौड़ पड़े, मेरा ग्रुप वही था लेकिन मुझे पजिटिव हुए ज्यादा समय हो चुका था. खैर प्लाज्मा भी मिल गया. हाल ही में खबर मिली थी कि वो ठीक होने लगे हैं. उनका खुद का फेसबुक पोस्ट आया था.

इनसानों ने अपनी तरफ से जो कर सकते थे किया. ईश्वर अपने हिस्से का करने में कंजूसी कर गया. पता नहीं वहां कोई है भी या जो है उसे हैक कर लिया गया है.

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प्रमेन्द्र मोहन-

बिछड़े सब बारी-बारी। एक अंतहीन सिलसिला। अब सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव जी भी नहीं रहे। बीस साल पहले ईटीवी हैदराबाद के हमारे साथी रहे श्रीवास्तव जी ने भी साथ छोड़ दिया। हैदराबाद से सहारा समय जब हम लोग आए थे तो कुछ मित्रों ने खुद का फ्लैट लेने का फैसला किया था। वैशाली सेक्टर 6 में मैंने अपने दोस्त अमरेश के जरिए एक ही बिल्डर्स फ्लैट का ग्राउंड फ्लोर श्रीवास्तव जी के लिए, फर्स्ट फ्लोर संत प्रसाद राय और सेकंड फ्लोर मैंने खुद के लिए बुक कराया था। दोनों एसपी जी वहां शिफ्ट हुए और कुछ संयोग ऐसा बना कि मैं नहीं ले पाया। बाद में आजतक में मेरे रहने के दौरान श्रीवास्तव जी तेज़ में थे तो भेंट मुलाकात होती रहती थी लेकिन फिर कम होता चला गया और संत के नोएडा एक्सटेंशन में शिफ्ट होने के बाद से तो हाल चाल जानने तक ही सीमित हो गए हमलोग। अभी संत जब उनके लिए हॉस्पिटल बेड का इंतजाम कर रहे थे तो उन्हीं से उनकी तबीयत बिगड़ने की खबर मिली थी और आज सुबह सुबह ये मनहूस खबर आ गई।

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जीवन के प्रति अद्भुत सकारात्मक सोच थी उनकी। पंद्रह बीस साल पहले वो एक बार ज्यादा ही बीमार हो गए थे। पूछने पर बताया कि मैं बड़े दिल वाला हो गया हूं क्योंकि हार्ट की साइज में डॉक्टर बदलाव बता रहे हैं। एक किडनी पत्नी ने उन्हें दी थी इसके बारे में उन्होंने एक बार कहा कि हम दोनों में इतना प्यार है कि हर चीज बराबर-बराबर बांट लेते हैं। बहुत सी बातें याद आ रही हैं उनकी। ये भी कि कार चलाना नहीं जानते थे तभी खरीद ली थी और लर्निंग लाइसेंस पर पहले ही दिन चलाते हुए टीवी टुडे के वीडियोकॉन वाले दफ्तर जा पहुंचे। पूछने पर बताया कि अधिकतम रफ्तार 20 किमी और न्यूनतम 0 किमी प्रति घंटा थी तो कोई रिस्क नहीं लिया था और लेफ्ट में इतना था कि साइकिल सवार भी ओवरटेक करके मेरी ओर साइड देने के लिए प्रशंसाभाव से मुड़ कर देखते जा रहे थे। न्यूज़ रूम में उनसे तेज़ उंगलियां किसी की नहीं चलती थीं और उनकी शिफ्ट में न तो कोई कभी खाली बैठ सकता था और न ही वो बैठ सकते थे।

होनी को कोई नहीं टाल सकता और अभी तो अनहोनी भी होनी जैसी हो चुकी है। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दें । ऊं शांति शांति!

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