केंद्रीय गृह मंत्रालय और 11 राज्य सरकारों को नोटिस जारी… उच्चतम न्यायालय ने भीड़ की हिंसा और लोगों को पीट-पीट कर मारने की घटनाओं (मॉब लिंचिंग) पर अंकुश के लिए दिए गए निर्देशों पर अमल नहीं करने के आरोपों पर केन्द्र से जवाब तलब किया है। उच्चतम न्यायालय ने इस पर केंद्र सरकारके अलावा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्यों की प्रतिक्रिया मांगी है। गृह मंत्रालय एवं 11 राज्य सरकारों से मांगे गए जवाब मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने एंटी करप्शन काउंसिल ऑफ इंडिया ट्रस्ट द्वारा दायर याचिका पर गृह मंत्रालय और 11 राज्य सरकारों को नोटिस जारी कर उनकी ओर से जवाब मांगे हैं।
ट्रस्ट की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अनुकूल चंद्र प्रधान ने कहा कि भीड़ द्वारा लोगों को पीट-पीट कर मार डालने की घटनाओं में वृद्धि हो रही है और सरकारें इस समस्या से निबटने के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा जुलाई 2018 में दिए गए निर्देशों पर अमल के लिए कोई कदम नहीं उठा रही हैं।उन्होंने सभी सरकार को एक स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करने के निर्देश भी जारी करने का अनुरोध किया।ट्रस्ट ने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने 17 जुलाई, 2018 को सरकारों को 3 तरह के उपाय-एहतियाती, उपचारात्मक और दंडात्मक- करने के निर्देश दिए थे लेकिन इन पर अमल नहीं किया गया है।उच्चतम न्यायालय ने कांग्रेस कार्यकर्ता तहसीन पूनावाला की याचिका पर ये निर्देश दिए थे।
यही नहीं उच्चतम न्यायालयने यह भी कहा था कि भीड़ की हिंसा में शामिल होने वाले लोगों में कानून के प्रति भय का भाव पैदा करने के लिए विशेष कानून बनाए जाने की आवश्यकता है। उच्चतम न्यायालय ने संसद से भी भीड़ हिंसा और गोरक्षकों द्वारा कानून अपने हाथ में लेने की बढ़ती प्रवृत्ति से सख्ती से निबटने के लिए उचित कानून बनाने पर विचार करने का आग्रह किया था।
आदेश में उच्चतम न्यायालय ने संसद से यह कहा था कि वह भीड़ हिंसा और गोरक्षक दलों की हिंसा से निपटने के लिए नए कानून को लागू करने पर विचार करे।उच्चतम न्यायालय ने यह कहा था कि सभी नागरिकों के बीच भाईचारे को बढ़ावा देना राज्यों का कर्तव्य था क्योंकि इस तरह की भीड़ हिंसा को फर्जी खबरों और झूठी कहानियों के जरिए भड़काया जा रहा है। उच्चतम न्यायालय ने यह कहा था कि एक विशेष कानून बनाने की आवश्यकता है क्योंकि यह उन लोगों के बीच कानून के लिए भय की भावना पैदा करेगा जो खुद को भीड़ में शामिल करते हैं। यह राज्य सरकारों का कर्तव्य है कि वे कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के अलावा समाज में कानून के शासन को सुनिश्चित करें।
उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकारों से कहा था कि वे उन ज़िलों, सब-डिवीजन और गाँवों की शिनाख़्त करें, जहाँ इस तरह की वारदात हुई हों। हर पुलिस अफ़सर की यह ज़िम्मेदारी होगी कि यदि उसे ऐसा लगे कि कोई भीड़ या किसी तरह के कार्यकर्ताओं का समूह किसी को निशाना बनाने जा रहा है तो उसे रोके और वहाँ से चले जाने को कहे और यह सुनिश्चित करे कि वे वहाँ से चले जाएँ।केंद्र और राज्य सरकारें प्रचार माध्यमों और सरकारी वेबसाइटों के ज़रिए यह सबको बताए कि मॉब लिन्चिंग से जुड़े लोगों के ख़िलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी।
उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकारों से कहा कि वे सोशल मीडिया पर किसी तरह के भड़काऊ, उत्तेजित या हिंसक मैसेज, वीडियो या इस तरह की दूसरी सामग्री को प्रचारित करने से रोकें। वे ऐसा करने वालों के ख़िलाफ़ मौजूदा क़ानूनों के तहत कार्रवाई करें। सरकार यह सुनिश्चित करे पीड़ितों या उनके परिजनों को बाद में भी परेशान किया जाए।राज्य सरकारें मॉब लिन्चिंग पीड़ित कोष का गठन करें और पीड़ितों को आर्थिक मदद और मुआवजा दें।मॉब लिन्चिंग के मामलों की सुनवाई करने के लिए अलग से अदालतों का गठन हो, वहाँ सुनवाई की प्रक्रिया तेज़ हों और यह कोशिश की जानी चाहिए कि 6 महीने के अंदर मामले पर फ़ैसला सुना दिया जाए।
अदालतों को यह देखना चाहिए कि वे दोषी पाए गए लोगों के ख़िलाफ़ मौजूदा क़ानूनों के तहत कड़ी से कड़ी सज़ा दें।यदि कोई पुलिस अफ़सर मॉब लिन्चिंग मामले में अपनी ड्यूटी से कोताही बरतता हुआ पाया जाता है तो यह माना जाए कि इसने जानबूझ कर लापरवाही की है।
गौरतलब है कि हिंसक भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने और किसी न किसी आरोप में संलिप्त होने के संदेह मात्र पर निर्दोष व्यक्ति की हत्या करने की घटनाओं पर उच्चतम न्यायालय की कड़े रुख और इनकी रोकथाम के लिये निर्देशों के बावजूद ऐसे अपराध लगातार हो रहे हैं।इस तरह की घटनाओ में संलिप्त आरोपियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई के लिये उचित कानून बनाने पर न्यायालय ने जोर दिया था लेकिन राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में जहां केन्द्र ने इस दिशा में अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है वहीं राज्य सरकारों का रवैया भी ढुलमुल रहा है।