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शराब से मुनाफे पर नजर है तो नाक के नीचे शराब से हो रही मौतों की चिन्ता कौन करेगा?

संजय कुमार सिंह

आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के कथित शराब घोटाले के लिये जेल में बंद मनीष सिसोदिया को अपनी बीमार पत्नी से मिलने के लिए पांच दिन की बजाय छह घंटे की छूट मिलने की खबर के बाद आज हिन्दुस्तान टाइम्स  टाइम्स में खबर है कि हरियाणा में जहरीली शराब पीने से चार दिन में 18 लोगों की मौत हो गई। इससे पहले आप पढ़ चुके हैं कि नकली महंगी शराब की बिक्री रोकने के अभियान के तहत 20,000 बोतलें नष्ट की गई थीं। कहने की जरूरत नहीं है कि इससे नकली शराब की बिक्री बंद नहीं होगी, महंगी शराब नकली नहीं बिकेगी। इससे ग्राहक ठगे नहीं जायेंगे पर महंगी शराब बनाने वालों को सुरक्षा मिलेगी कि जो महंगी शराब खरीदेगा वह महंगी ही पियेगा। इस तरह फायदा महंगी शराब बनाने-बेचने वालों को भी है। जनहित में सरकार ने बोतलें नष्ट करने का जो काम सरकारी खर्च पर किया उसका फायदा आम जनता को तो नहीं ही होना है क्योंकि महंगी शराब वो क्या पियेगा जो मुफ्त के सरकारी राशन पर जी रहा है। लेकिन हरियाणा सरकार को इनकी, महंगी शराब बनाने-बेचने वालों की है।

मुझे नहीं पता इससे हरियाणा सरकार को क्या फायदा हुआ, होगा कि नहीं और होगा तो उसका हिस्सा मिलेगा कि नहीं। लेकिन दिल्ली में आम आमी पार्टी के खिलाफ मामला यही है कि उसकी नीति से शराब बेचने वालों को फायदा हुआ। जो भी हो, यहां चाहे जिसे फायदा या नुकसान हो आम आदमी को नहीं हुआ। उसके लिए नकली या जहरीली शराब उपलब्ध है और वह पीकर मर रहा है। कार्रवाई अगर होगी भी तो मंत्री के खिलाफ नहीं अधिकारी कर्मचारी के खिलाफ। क्या इसका कारण यह नहीं है कि मंत्री भाजपा का है और दिल्ली सरकार के मामले में आम आदमी पार्टी का है इसलिए जेल में है। एक नहीं, सांसद भी, मुख्यमंत्री को बुलाया गया है और खबर है कि इस बिना पर पार्टी पर प्रतिबंध लग सकती है। पर मुद्दा यह है कि किसी को मुनाफा होता है तो भ्रष्टाचार होता है पर लोगों की मौत होती है तो लापरवाही होती है। एक मामले में मंत्री, सांसद मुख्यमंत्री के खिलाफ जांच हो सकती है और दूसरे में जांच ही न हो या किसी को सजा ही नहीं हो और हो भी तो बहुत निचले स्तर के किसी अधिकारी के खिलाफ सिर्फ औपचारिकता के लिए।  

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हरियाणा का उदाहरण तो ताजा है और वहां शराब पर प्रतिबंध नहीं है। लेकिन बिहार में शराब पर प्रतिबंध है फिर भी असली तो छोड़िये नकली और जहरीली शराब भी मिलती है और पीकर लोग मरते रहे हैं। मुझे नहीं पता कि इन मौतों के लिए किसी के खिलाफ कार्रवाई की गई है कि नहीं, और हुई है तो किसके खिलाफ लेकिन मंत्री के खिलाफ कार्रवाई हुई होती तो खबर छपी होगी। मैंने नहीं, तो आपने पढ़ी होगी। बिहार में शराबबंदी से राजस्व का नुकसान है, उससे फायदा चाहे जितना हुआ हो, मौतें नहीं रुक रही हैं। आम आदमी की मौत नकली शराब पीने से होती है या बंदी के बावजूद पीने से होती है तो यह कहा जा सकता है कि दोषी पीने वाला और मर गया तो वो जाने। पर कानूनन मामला आत्महत्या का भी मानें तो सरकार आत्महत्या करने की सुविधा नहीं दे सकती है और ना उसके लिए मजबूर कर सकती है। नकली या जहरीली शराब का उपलब्ध होना अगर आत्महत्या भी है तो शराब की उपलब्धता के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिये और सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि जब असली शराब पर प्रतिबंध है तो नकली और जहरीली शराब नहीं मिले।

इससे कोई कमा रहा है कि नहीं उसकी चिन्ता तो नहीं ही है, मौतों की भी चिन्ता नहीं है और लोग कहते हैं कि प्रतिबंध से शराब महंगी जरूर हुई है प्रतिबंध का असर नहीं है और इसलिए गरीब आदमी सस्ती और नकली शराब पीने को मजबूर है। अव्वल तो यह सब सरकारों को ही देखना है और जनहित सुनिश्चित करना है। भाजपा की केंद्र सरकार ने अपनी भूमिका बढ़ा ली है और वह राज्य सरकारों की हेडमास्टर भी बनी हुई है। इस तरह सबसे ‘सही’ काम कराना सुनिश्चित कर रही है पर वह विपक्षी दलों के खिलाफ ही सक्रिय नजर आ रही है। जनहित उसमें हो या नहीं, पार्टी और सरकार चलाने वालों का तो दिख रहा है। वरना सहयोगी दलों की सरकारों के खिलाफ कार्रवाई होती नहीं होती, मौतें रोकने के लिए काम होना चाहिये और उसकी भी जिम्मेदारी तय की जानी चाहिये।

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अखबारों की बात करूं तो अमर उजाला में आज लीड है, 24.26 लाख दीयों से अयोध्या के 51 घाट जगमग। अखबार ने इसके साथ बताया है कि यह कीर्तिमान सातवीं बार बन रहा है और 10,000 से अधिक लोग इस ऐतिहासिक पल के साक्षी बने, 100 से ज्यादा देशों में सीधा प्रसारण तो हुआ ही राज्यपाल और 52 देशों के राजदूतों ने दिव्य दीपोत्सव में शिरकत की। इतनी सूचनाओं के साथ यह नहीं बताया गया है कि इसमें पैसे कितने खर्च हुए और उससे जनहित के कौन से दूसरे या कितने काम हो सकते थे। 22.23 लाख दीये में 27 लाख बाती लगने की सूचना जरूर है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह सब प्रचार और रिकार्ड के लिए किया जा रहा है पर इसमें जनहित कहां है और तेल या दीया बेचने वालों को मुनाफा नहीं हो रहा है या हो रहा है तो वह क्यों जायज है और उसके खिलाफ वैसी ही कार्रवाई क्यों नहीं होनी चाहिये जैसी शराब बेचने वालों को मुनाफा होने के मामले में की गई है, मैं नहीं समझ पा रहा हूं।

वैसे भी, जो काम बिजली के बल्ब से सस्ते में और अच्छे से संभवतः इतने पैसे में स्थायी तौर पर किया जा सकता है उसके लिए हर साल दीये, तेल और बाती खर्च करना क्यों जरूरी है, कैसे जायज है और इसमें जनहित है कि नहीं यह कौन सुनिश्चित करेगा और राज्य सरकारों का अगर कोई हेडमास्टर या दरोगा है तो उसकी इस मामले में क्या राय है यह कैसे पता चलेगा। जनता को जानने का हक है कि नहीं और मीडिया को जिज्ञासा क्यों नहीं है। यहां उल्लेखनीय है कि अमृतसर का स्वर्ण मंदिर वर्षों से बिजली की रोशनी से जगमग रहता है। पहले वहां पुराने किस्म के बल्ब लगे थे जिसमें खूब बिजली लगती थी। अब वहां कम बिजली वाली बत्तियां लगी हैं। रोशनी पहले से ज्यादा है और पुराने बल्ब भी लगे हुए हैं (जब मैं गया था तो लगे थे, जल नहीं रहे थे)। जाहिर है, रोशनी करना हो तो किफायती और व्यावहारिक तरीका ही आजमाने चाहिये और श्रद्धा की अति ही करनी है तो तेल के दीये क्यों घी के क्यों नहीं?

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