स्वर्गीय शिवशंकर सिंह
ऐसी भी क्या हड़बड़ी थी शिवशंकर। मैं तो तुम्हें पत्रकारिता के उच्च पदों पर देखना चाहता था। अभी तो तुम्हें पूरी दुनिया देखनी थी। तुम्हारी अखबार के प्रति समर्पण की भावना, प्रेम और इमानदारी के कायल थे सारे लोग। न केवल गया बल्कि पूरी मगध की जनता का तुमसे असीम प्यार था। आखिर ऐसा क्या हुआ जो तुम हम सबों को बिलखते छोड़ गये। पहले तो मुझे जाना चाहिये था। शिवशंकर सिंह उर्फ मंटू के साथ मेरी अंतरंगता और मेरे भावनात्मक लगाव के लिए जानने के लिए फ्लैशबैक में चलें।
बात सन 1990 के शुरुआती दौर की है। हिन्दुस्तान में भागलपुर से मेरा तबादला गया हुआ। उसी समय एक गोरा सा नौजवान मेरे पास लाया गया। लाने वाला कोई और नहीं शिवशंकर के चाचा रामप्रमोद सिह थे। रामप्रमोद बाबू से भी मेरा परिचय नया ही था। वे कांग्रेस के नेता थे औ सम्पूर्ण मगध क्षेत्र के खबरों की जानकारी देते थे। बाबा लड़का एमए किये हुए है कहीं काम दिलवा दीजिये। मैने देखा उत्साह से लबरेज उस युवक को। ठीक है इसे कल सुबह में भेजिये। मैने अपने छोटे बेटे को ट्यूशन पढ़ाने की जिम्मेवारी सौंपी। बाद में मैने उसकी मोती जैसी लिखवट देखी तो उत्कंठा यह पूछने की क्या पत्रकार बनेागे। पैसा नहीं के बराबर मिलेगा लकिन आने वाले दिनों में भाग्य से कुछ हो जाये यह मैं कह नहीं सकता। मैं उसे उसके पुकार नाम मंटू कह कर ही पुकारता था।
गया जिला मुख्यालय से कोई 25 किमी दूर कोंच प्रखंड के गांव से प्रतिदिन आना और बाद में गया शहर बिसार तालाब एरिया में ही चाचा के यहां रहना, संवाद संकलन में राषि का खर्च होना आदि कुछ ऐसे सवाल थे जिसके बारे में मैं स्वयं चिंतित रहा करता थ। उस पीरियड में टेलीप्रिन्टर का जमाना था। गया में रिपोर्टर की आवश्यकता तो थी सो मेरे भेजे प्रस्ताव पर संपादक महोदय की सहमति मिली और मंटू हो गया हिन्दुस्तान के गया कार्यालय का रिपोर्टर। क्राइम रिपोर्टिंग में उसका जोड़ा नहीं। नक्सल गतिविधियों पर उसकी गहरी पकड़ थी। तात्पर्य यह कि वह बहुत जल्दी ही स्थापित पत्रकार हो गया। मेरा क्या था डेढ़ साल के बाद ही मेरा तबादला गया से दरभंगा हो गया। लेकिन मंटू ने कभी गुरु को छोड़ा नहीं। कहीं किसी सवाल पर फंसा तो तुरंत याद किया। मैं उसका समाधान कर दिया करता था। मुख्यालय पटना से कोई अड़चन पैदा होती थी तो उसका समाधान भी मैं ही कर दिया करता था। गया से निकलने के बाद कोई बीस साल तक हिन्दुस्तान में इधर-उधर घूमता रहा लेकिन मंटू ने मेरा सथ कभी नहीं छोड़ा। अचानक उसके निधन की सूचना पाकर तो मैं आवाक रह गया। रात भर सो नहीं सका। स्मृति की त्रिवेणिका में गोते लगाता रहा। आखिर ऐसा क्या था शिवशंकर में जिसके प्रति मेरा खास झुकाव रहा, मैं खुद नहीं आंक सका।
वह भी क्या समय था जब हिन्दुस्तान के किसी कर्मी को सांघातिक बीमारी की बात तो दूर रही, कहीं चोट भी लगती थी तो प्रबंधन उदारता पूर्वक इलाज के राशि प्रदान करता था। गंभीर बीमारी होने पर इलाज के लिए कर्मियों से स्वेच्छा से राशि दिलवाता था। मैं खुद इसका गवाह हूं। सैकड़े में नहीं हजारें में राशि जुटाकर कई सहकर्मियों की मदद की और करायी। दरअसल इस पुनीत कार्य के प्रेरणा स्त्रोत थे तब के एचटी मीडिया लिमिटेड के बिहार झाखंड के वाइसप्रेसिडेंट वाई सी अग्रवाल। बस उन्हें सूचना मिलने भर की देर रहती थी वे स्वयं फोन कर कुशलक्षेम पूछते थे और उसे सहायता उपलब्ध कराते थे।
आखिर हिन्दुस्तान में अब कैसा बदलाव आ गया है कि पीड़ित मानवता की सेवा करने में वह पीछे हो रहा है। टीम भावना तो लगभग मसमाप्त सी हो गयी लगती है। मुझे याद है हिन्दुस्तान के बिहार संस्करण के किसी भी पत्रकर सदस्य पर विपदा पड़ी, तत्कालीन संपादकों श्रद्धेय सुनील दुबे, चन्द्रप्रकाश, नवीन जोशी और गिरीश मिश्र ने बढ़ चढ़ कर मदद की और कराया। हिन्दुस्तान के प्रधान संपादक भाई शशि शेखरजी तो ऐसे कार्यों में एक कदम आगे रहते हैं। समझ में नहीं आता कि कोआर्डिनेशन में कहां और किस स्तर पर चूक हो गयी। आदरणीय केके बिरला की सेवा ही धर्म की मूल भावना कहां तिरोहित हो गयी है। शिवशंकर के इलाज में कंपनी यदि मदद करती, उसके मैन पावर वहां खड़े रहते तो शायद उसकी जान बच सकती थी। मैं मंटू के पूरे परिवार से परिचित हूं इसलिए मुझे चिंता इस बात की हो रही है कि अब उसकी एकलौती बिटिया के हाथ कौन पीले करेगा। दोनो मासूम बेटों की पढ़ाई कैसे चलगी। माता-पिता और विधवा बहन की देखरेख कौन करेगा।
लेखक ज्ञानवर्द्धन मिश्र बिहार के वरीय पत्रकार है। कई अखबारों के संपादक रह चुके है। बिहार और झारखंड में इनके पत्रकार शिष्यों की लंबी श्रृंखला है। गया के पत्रकार शिवशंकर सिंह को इन्होंने कलम पकड़ कर पत्रकारिता का ककहरा सिखाया था।
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