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सुख-दुख

पत्रकार ईमानदार थे या बेईमान, यह एक अलग मसला है, मानवाधिकारों का हनन हुआ है, मूल यही बात है!

दीपक गोस्वामी-

पुलिस को सजा देने का अधिकार नहीं है, किसी के मान की हानि का अधिकार नहीं है. सवाल अहम यह है कि पुलिस की हिम्मत कैसे हुई कि पत्रकारों को नंगा कर सके?

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हां, तो अब आप कहेंगे कि इसके लिए सत्ता और राजनीति जिम्मेदार है, लेकिन मैं कहूंगा कि इसके लिए पत्रकारिता के वे बड़े-बड़े मठाधीश जिम्मेदार हैं जिन्होंने संपादक की कुर्सी पर बैठकर अपनी हथेलियां गर्म की हैं और वेतन के नाम पर पत्रकारों का शोषण किया है.

शोषित पत्रकार पेट पालने के लिए दलाल बना है. दलाली में उसकी कमाई को देखकर कुकुरमुत्तों की तरह फर्जी पत्रकारों की पौध खड़ी हो गई है.

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दूसरे राज्यों का नहीं पता, लेकिन छोटे-छोटे कस्बों, शहरों, गांवों में मीडिया संस्थानों द्वारा शोषित पत्रकार पेट पालने के लिए गलत काम करता है. दोष उसका नहीं, उसे अपना परिवार पालना है. 20 साल की नौकरी के बाद 25 हजार‌ वेतन पाकर परिवार नहीं पलते.

हां, तो पत्रकारों का दलालीकरण किया पत्रकारिता के संपादक रूपी मठाधीशों ने.

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इससे नुकसान यह हुआ कि पत्रकारों की छवि हुई खराब, अब पत्रकार असली हो या नकली, पुलिस और नेता उसे दलाल समझते हैं, बिकाऊ समझते हैं, पैसे ओर ईनाम के लिए ‘जी भाईसाहब-जी भाईसाहब’ कहने वाला पालतू समझते हैं.

अब इस सोच के बीच कोई पत्रकार ईमानदारी से काम करे तो नेता या पुलिस के लिए आसान हो जाता है उसे ब्लैकमेलर या दलाल बता देना.

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और इस संबंध में मैं कई बार पहले भी लिख चुका हूं.

ऐसा इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि बहुत करीब से देखा है यह सब कुछ. बहुत करीब से परखा है यह सब कुछ और पत्रकारों की इस छवि का खामियाजा मैंने भी भुगता है.

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‘द वायर’ या ‘न्यूजलांड्री’ जैसे संस्थान को मध्य प्रदेश के अल्प विकसित इलाकों में कोई नहीं जानता. अल्पविकसित छोड़िए, ग्वालियर जैसे विकसित शहर में भी सभी लोग नहीं जानते. इसलिए रिपोर्टिंग के दौरान मुझे खूब प्रलोभन मिले हैं और पत्रकारों की जमात के लिए अपशब्द भी सुने हैं कि आप भ्रष्ट होते हो, क्योंकि वे ‘द वायर’ तो जानते नहीं हैं इसलिए स्थानीय स्तर का कोई पत्रकार समझकर कहते हैं कि बड़े-बड़े अखबार वाले इतना लेते हैं, तुम क्या लोगे?

खून खौलता है और गुस्सा आता है क्योंकि पत्रकारिता के पेशे की छवि ऐसी बना दी गई है कि हर कोई ऐरा-गैरा टुच्चा आदमी आकर पत्रकारों को दलाल समझ लेता है या बोल देता है. पुलिस या नेताओं में पत्रकारों की दहशत नहीं रहती है. वे हर पत्रकार को एक लाठी से हांकते हैं.

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इसलिए मैं हमेशा कहता हूं कि जब पत्रकारिता संस्थान पत्रकारों को उनके हक़ का वेतन देने लगेंगे, उस दिन से बदलाव शुरू होगा. ऐसा बदलाव शुरू होगा कि नेता और पुलिस पत्रकार को हल्के में लेने से पहले थर-थर कांपेंगे.

हम पत्रकार हैं, हमें अपना खोया आदर-सम्मान पाने की लड़ाई खुद लड़नी होगी. अगर खुद को अच्छा वेतन मिल रहा है तो अपने साथी पत्रकार के शोषण पर चुप्पी मत साधा करें.

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और जितने ये कथित वरिष्ठ पत्रकार कलम घिसकर सीधी के पत्रकारों के लिए न्याय मांग रहे हैं न तो इनकी जरा कुंडली खंगालिए कि कमबख्तों ने अपने नीचे काम करने वाले कितने पत्रकारों का शोषण करके उन्हें दलाल बनने को मजबूर किया है, जिसके चलते आज पत्रकार की छवि ऐसी बन गई है कि हर राह चलता टुच्चा आदमी भी उसे भ्रष्ट, दलाल और ब्लैकमेलर कह देता है.

यह छवि पत्रकारों के खिलाफ नेताओं और पुलिस का हथियार बनती है.

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खैर, लिखने बैठा तो इतने किस्से हैं मेरे पास कि किताब लिख डालूंगा. समय मिला तो कभी लिख ही डालूंगा.

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