
अश्विनी कुमार श्रीवास्तव-
इंटरनेशनल माफिया डॉन ओम प्रकाश श्रीवास्तव उर्फ बबलू श्रीवास्तव के नेपाल प्रवास पर सोनी लिव पर एक सीरीज देखी, काठमांडू कनेक्शन. बबलू का किरदार इस सीरीज में ओम प्रकाश शर्मा उर्फ सन्नी के नाम से दिखाया गया है जबकि दाऊद को वाहिद नाम से दिखाया गया है.
सीरीज में कहानी तो बबलू की है लेकिन लखनऊ से शुरू करके यूपी, दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, आदि शहरों- प्रांतों में ही नहीं बल्कि नेपाल, दुबई, मलेशिया, सिंगापुर, केन्या, दक्षिण अफ्रीका आदि न जाने कितने मुल्कों में जो ताबड़तोड़ हत्याओं, वसूली, किडनैपिंग, स्मगलिंग आदि के कारनामे बबलू ने सन 80 के दशक से लेकर 2000 तक के दशकों में किए, उसका बहुत थोड़ा ही हिस्सा इस कहानी में देखने को मिला.
सन 1984-85 में लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ते समय जब बबलू श्रीवास्तव ने गलती से लखनऊ के एक माफिया के खास गुर्गे से मारपीट कर ली थी और माफिया ने उसे झूठे मुकदमों में बंद करा दिया था, तभी से बबलू ने संगठित अपराध की दुनिया में कदम रख दिया था.
पहले अपने निजी बदले लिए और उसके बाद करोड़ों- अरबों की आपराधिक दौलत जुटाने में कामयाब होने की दिशा में एक के बाद एक हत्याएं, अपहरण, वसूली, जमीन कब्जे आदि करते हुए बबलू ने अपने सामने आए हर दुश्मन को मिटा दिया.
बबलू लखनऊ के जिस मुहल्ले में विश्वविद्यालय के एक साधारण छात्र की तरह रहता और अक्सर घूमते- फिरते- अड्डेबाजी करता पाया जाता था, उसी मुहल्ले में मैं भी रहता था.
उसी मुहल्ले के पार्क – चौराहे गलियों में वह अपने जिन चार- पांच खास दोस्तों के साथ नजर आता था, उसके वही दोस्त अपराध जगत में भी उसके खास सिपहसालार रहे.
हालांकि मेरी उम्र तब 10-12 साल थी लेकिन वहीं से निकले बबलू का नाम जब तकरीबन हर रोज अखबार में हत्या, अपहरण, वसूली आदि जघन्य अपराधों और तब मौजूद लखनऊ के हर माफिया गिरोह को निपटाने या अपने सामने नतमस्तक करने में आने लगा तो मैंने तब से लेकर 2010 में उसके सिंगापुर में पकड़े जाने तक शायद ही कोई खबर हो , जो न पढ़ी हो.
फिर बड़े होकर जब मैंने पत्रकारिता में नौकरी शुरू की तो एक न्यूज स्टोरी के सिलसिले में लखनऊ जेल में पेशी के लिए आए बबलू से रूबरू मुलाकात का भी मौका मिला. मेरे साथ के एक नामी पत्रकार तब बबलू के जीवन पर देश की बेहद प्रतिष्ठित मैगजीन की कवर स्टोरी लिख रहे थे.
बबलू के एक खासमखास नेता ने तब मुझे अदालत परिसर में जब आमने – सामने किया तो लाखों रुपए की कीमत का चश्मा, घड़ी, जूते और शानदार कपड़ों को पहनने और इंडिया किंग्स सिगरेट पीने के शौकीन बबलू ने मुस्कराते हुए अपने मुहल्ले और वहां के अपने दोस्तों के बारे में मुझसे कुछ देर तक बात की.
फिर मेरे साथ गए पत्रकार महोदय ने बबलू से इंटरव्यू का समय मांगा, जिस पर बबलू ने उन्हें अगली कोई डेट दे दी.
वहां खड़े दर्जनों पुलिस वाले के बीच खड़े बबलू के तमाम समर्थक और वकीलों का हुजूम इंतजार कर रहा था कि हम वहां से जाएं और वे बात करें. वहां मौजूद बबलू के करीबी लोग उसे भैया कहके संबोधित कर रहे थे और बबलू भी उनसे बेहद अपनेपन से ही बात कर रहा था.
दरअसल, बबलू का व्यक्तित्व और बातचीत का लहजा किसी माफिया सरगना की तरह लग ही नहीं रहा था बल्कि ऐसा लग रहा था कि सामने कोई बेहद रईस लेकिन पढ़ा लिखा संभ्रांत युवक खड़ा है.
सोनी की इस सीरीज का सन्नी कहीं से मुझे बबलू श्रीवास्तव जैसा नहीं लगा और न ही उसके कारनामों का सही चित्रण इस सीरीज में देखने को मिला है. फिक्शन के चक्कर में निर्माता ने इतने शानदार कथानक और किरदार को वह प्रस्तुति नहीं दी, जैसा कि उस दौर को देख- सुन चुके लखनऊ के हर इंसान को पता होगा.
अगर निर्माता लखनऊ की गलियों में खाक छानकर बबलू की असली कहानी जानने की मेहनत नहीं कर सकता था तो जेल में रहकर खुद बबलू द्वारा लिखी गई उसकी आत्मकथा “अधूरे ख्वाब” के दो खंड तो पढ़ ही सकता था….तब शायद इससे कहीं बेहतर सीरीज देखने को मिलती.