संजय कुमार सिंह
आज के अखबारों में बिलकिस बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला लीड है। इसके साथ शीर्ष न्यायालय ने गुजरात सरकार को लगाई फटकार (अमर उजाला), फैसले ने बता दिया कि अपराधियों का संरक्षक कौन (नवोदय टाइम्स), अदालत ने फ्रॉड कहा (हिन्दुस्तान टाइम्स), सत्ता का दुरुपयोग, सरकार ने दोषियों के साथ मिलकर काम किया (इंडियन एक्सप्रेस), गुजरात सरकार द्वारा अधिकार हथिया लेना (टाइम्स ऑफ इंडिया) और गुजरात सरकार फ्रॉड में (द टेलीग्राफ) जैसी खबरें और सूचनाएं शामिल है। यह विडंबना ही है ऐसे फैसले और तथ्यों के साथ आज के अखबारों में जनता के पैसे से विज्ञापन छपा है जो जनता को मोदी सरकार की गारंटी के बारे में बताता है। दिलचस्प यह कि इसमें महिला का सम्मान सुनिश्चित करने का दावा भी किया गया है। यही नहीं, इस विज्ञापन में 12 करोड़ शौंचालय बनाने और चार लाख 40 हजार गांवों को ओडीएफ घोषित किये जाने का दावा है। सच्चाई यह है कि दिल्ली सीमा से दो किलोमीटर दूर गाजियाबाद के वैशाली के तीन पार्क में पांच शौंचालय उपयोग नहीं किये जा रहे हैं। इस योग्य नहीं हैं।
अमर उजाला में आज सरकारी विज्ञापन नहीं है। हालांकि, दूसरे विज्ञापन के कारण आठ कॉलम के सरकारी विज्ञापन की जगह भी नहीं थी। फिर भी, ऊपर सरकार की आलोचना खबर और उसी पन्ने पर नीचे यह मन की बात नुमा प्रचार है।
मुझे लगता है कि इस और ऐसी सरकार द्वारा ऐसे विज्ञापनों पर तुरंत रोक लगनी चाहिये और इसपर किया गया खर्च वसूला जाना चाहिये। जहां तक अखबारों की बात है, इनमें कइयों की निष्पक्षता लंबे समय से संदेह के घेरे में है और आज भी इन अखबारों में से कइयों ने (विज्ञापन के कारण जगह कम होने से भी) पहले पन्ने पर यह नहीं बताया है कि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को भी लताड़ लगाई है। टाइम्स ऑफ इंडिया में आज पहले पन्ने पर तीन कॉलम में छपी खबर के अनुसार पुणे लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव कराने के बांबे हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने स्टे कर दिया लेकिन ढिलाई के लिए चुनाव आयोग की खिंचाई की। सांसद गिरीश बापट के निधन के कारण पुणे लोकसभा सीट गए साल मार्च में खाली हो गई थी। लेकिन चुनाव आयोग ने वहां चुनाव कराने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। मांग और मुकदमे के बावजूद। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की दलील नहीं मानी। वैसे तो चुनाव आयोग स्वायत्त संस्था है पर मोदी सरकार में ऐसा नहीं लगता है।
इसलिए अब आज की तीसरी महत्वपूर्ण खबर पर आता हूं। यह हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर तीन कॉलम में है। इसके अनुसार, राजस्थान में नये बने भाजपा के मंत्री चुनाव हार गये हैं। कुछ लोग पूछ सकते हैं कि इस बार ईवीएम काम नहीं आया। इसपर मेरा मानना है कि यह जानबूझ कर हारने का मामला भी हो सकता है ताकि इस तरह के सवाल उठाये जा सके। इसकी संभावना इसलिए भी लगती है कि तमाम विधायकों के रहते जो चुनाव नहीं जीता था उसे मंत्री बनाने की क्या जरूरत थी? कुछ दिन इंतजार करने में क्या जाता था और जब पता था कि चुनाव होने ही वाले हैं तो नहीं रुकने और इतनी लोकप्रियता के बावजूद हार जाने का क्या कारण हो सकता है? जो भी हो, मुद्दा यह है कि सरकार उपचुनाव हों या नहीं उसका उपयोग भी अपने हित में कर ले रही है।
यह चुनाव होना ही था तो उससे फायदा उठाया गया और पुणे लोकसभा चुनाव हो जाता तो उससे अंदाजा लगता कि भाजपा की स्थिति क्या है तो वह उससे बचना चाहती है। क्योंकि सत्ता में होने के कारण खुद तो उसे पता हो ही सकता है। इस तरह आज के अखबार न सिर्फ हेडलाइन मैनेजमेंट में सरकार की क्षमता बताते हैं बल्कि पूरा मामला नियंत्रण में होने का भी संकेत देते हैं। बेशक इसका असर अगले चुनाव पर हो सकता है और निष्पक्ष चुनाव चाहने वालों के लिए यह सतर्क होने का समय है। आज की खबरों से लगता है कि उपचुनाव नहीं कराने और जहां हुआ वहां मंत्री के हार जाने में भी राजनीति हो सकती है। इस लिहाज से खबर नहीं छपने या कम छपने का अपना महत्व नहीं है।
सरकार की मनमानी के उदाहरण इतने भर ही नहीं हैं। आप जानते हैं कि अनुच्छेद 370 हटाने के बाद पांच साल हो चुके हैं। कल ही खबर थी कि वहां सांसदों के अलावा कोई निर्वाचित जनप्रतिनिधि नहीं रह गया है और अभी चुनाव की संभावना भी नहीं है। यही नहीं, जिस ढंग से नोटबंदी की और जीएसटी लागू किया उसमें नोटबंदी के फायदों पर चर्चा नहीं करना, फिर से काला धन बरामद होते रहना और जीएसटी वसूली बढ़ी का प्रचार, खिलाफ खबर लिखने वालों को परेशान करना कई मामले हैं जो सरकार की मनमानी बताते हैं। ऐसे में आज एक खबर यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट ने ऑनलाइन गेम पर 28 प्रतिशत जीएसटी लेने की वैधता पर विचार करने की सहमति दी है। बिना तैयारियों के सरकार की मनमानी के और भी कई उदाहरण हैं।
इनमें किसान कानून से लेकर हिट एंड रन कानून का हाल का मामला शामिल है। ऐसी सरकार जनता के पैसे से मोदी की किस गारंटी का प्रचार कर रही है कोई पूछने वाला नहीं है। आज के अखबारों में सरकारी मनमानी के उदाहरण हो सकते थे तो खबरें भी पूरी नहीं हैं।