मुरारी त्रिपाठी–
स्वराज एक्सप्रेस को जब भी याद करता हूं, तो सोचता हूं कि पत्रकारिता के शुरुआती दौर में लोगों को ऐसे प्लेटफॉर्म जरूर मिलने चाहिए. जहां अपनी बात कहने की आजादी हो, काम करने का एक अच्छा माहौल हो. फिर यह भी लगता है कि जिन बातों और सिद्धांतों के लिए यह चैनल खुला था, अच्छा यही होता कि बंद होने के वक्त भी उन्ही सिद्धांतों और विचारों पर टिका रहता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अंत में चैनल में बहुत बुरी तरह से श्रम अधिकारों का हनन हुआ. एक पल को लगा कि यह वह चैनल तो नहीं है, जहां हमने पिछले दो साल कुछ निश्चित और कुछ न्यूनतम आदर्शों के साथ काम किया. आखिर में चैनल एक विशुद्ध पूंजीवादी उपक्रम बनकर रह गया.
किसी पर व्यक्तिगत टिप्पणी किए बिना और इस तरह की गैरजरूरी प्रैक्टिस को प्रोत्साहित किए बिना, मैं कहना चाहता हूं कि स्वराज एक्सप्रेस के पूर्व कर्मचारियों को उनका हक मिलना चाहिए. कानून के मुताबिक जो भी तर्कसंगत है, उन्हें वह सबकुछ मिलना चाहिए. इस वक्त जब आर्थिक मंदी लगातार गहराती जा रही है और पहले से ही सीमित एवं संकुचित रोजगार के अवसर बहुत तेजी से घटते जा रहे हैं, तब ऐसे में कर्मचारियों का हक मार लेना सबसे बड़ा पाप है. किसी भी आंतरिक या बाहरी संघर्ष से सबसे ज्यादा जरूरी है, कर्मचारियों के श्रमिक अधिकार, जो उन्हें हर तरह से मिलने चाहिए.
आधुनिक पॉलिटकल-इकॉनमी में उस व्यक्ति की जवाबदेही सबसे अधिक मानी जाती है, जिसके पास सबसे अधिक पॉवर होती है. इस लिहाज से हमारे चैनल को फंड देने वाले, इसके सीईओ और मैनेजिंग एडिटर सबसे अधिक जवाबदेह हैं. उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि हर एक कर्मचारी को उसका मेहनताना और कानूनसम्मत अधिकार मिल जाए. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और अब लड़ाई कोर्ट में है. चैनल बंद हो जाने पर मालिक यह नहीं कह सकते के वे भी कर्मचारी थे. यह अपनी जवाबदेही से बचने का एक शातिराना कुतर्क है. मैं यह बात आंतरिक प्लेटफॉर्म पर भी बोल चुका हूं. मैं यह भी कह चुका हूं कि अगर हालात सही नहीं थे, तो मैनेजमेंट को दो महीने पहले ही कर्मचारियों को स्पष्ट शब्दों में इस संबंध में बता देना चाहिए था.
एक जरूरी बात जो मुझे कहनी है, वो यह कि 7 सितंबर तक दिए गए पैसों को लोगों ने अपनी खुशी से नहीं लिया है. पैसे लेने के लिए उनके ऊपर दबाव बनाया गया. उनसे गैरजरूरी और गैरकानूनी कागजातों पर हस्ताक्षर कराए गए. हस्ताक्षर करने का मतलब यह नहीं है कि किसी ने खुशी खुशी उस पैसे को एक्सेप्ट किया. लगातार बढ़ती जा रही महंगाई के बीच दिल्ली एनसीआर में रहना आसान नहीं है. लोगों के बच्चे हैं, मकान के किराए के अलावा दूसरे बिल हैं. इसलिए यह कहना गलत है कि लोगों ने मालिकों की मजबूरी समझते हुए पैसे स्वीकार किए. उल्टा, यहां मालिकों ने कर्मचारियों की मजबूरी का फायदा उठाने की कोशिश की. यह बिल्कुल गैरकानूनी है. जिन दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कराए गए, वे कोर्ट ऑफ लॉ में कहीं भी स्टैंड नहीं करेंगे. यह बात भी मैंने हस्ताक्षर करते समय कही थी.
इसी तरह यह भी कहना गलत है कि लोगों को उनके पैसे दिए जा चुके हैं. हमारी छुट्टियों और चैनल को अचानक से बंद करने के एवज में नोटिस पीरियड का पैसा बकाया है. लोगों के दूसरे खर्चे भी बाकी हैं, जो उन्होंने चैनल के असाइनमेंट पर जाते हुए अपने जेब से खर्च किए. मेरे सामने कुछ कर्मचारियों की सैलरी नहीं दी गई. कहा यह गया कि वे एक महीने का नोटिस पीरियड देने में असफल रहे. अगर इसी तर्क को आधार बना लें तो चैनल को भी बिना नोटिस के कामकाज बंद करने के एवज में कर्मचारियों को पैसे देने चाहिए. हमारी एक प्रतिबद्ध साथी को एक महीने की सैलरी नहीं दी गई. जबकि वे चैनल का ही काम करते-करते कोविड 19 का शिकार हुईं और उनकी हालत बहुत गंभीर हो गई थी. ऐसे में उनकी महीने भर की सैलरी काट लेना क्रूरता और अमानवीयता की पराकाष्ठा थी. हिटलर के लेबर कैंप्स में जिस तरह का सुलूक किया गया, यह पूरा घटनाक्रम उससे थोड़ा सा ही कम था. कोविड 19 से उबरने में लिए गए समय के एवज में वीकऑफ्स काटने की बात करना भी अमानवीय था. यह भी आश्चर्य की बात थी कि हाशिए के लोगों की पत्रकारिता करने वाली जगह के मालिकों को मूलभूत श्रम और मानवाधिकारों का पाठ भी पढ़ाना पड़ा.
एक और बात जो मुझे कहनी है, वो यह की रोजगार देना कोई एहसान नहीं होता. इसमें दोनों पक्षों का हित होता है. यह विशुद्ध पूंजीवादी कुतर्क है कि रोजगार देकर कोई एहसान करता है. यह कहना भी पूंजीवादी कुतर्क है कि जो कुछ नहीं कर पाते और जिनके अंदर प्रतिभा नहीं होती, केवल वही लोग अपने अधिकारों के लिए लड़ते हैं, हंगामा करते हैं. आजादी, हक और न्याय जैसे शब्दों को हर दूसरी पंक्ति में लिखने वाले लोग अगर अपने बचाव में इस तरह के कुतर्क दे रहे हैं, तो मुझे लगता है कि उन्हें अब तक के अपने पूरे जीवन की विवेचना करने की जरूरत है. उन्हें पता लगाना चाहिए कि गलती कहां रह गई!
हम कोई गणेश शंकर विद्यार्थी और कार्ल मार्क्स की तरह पत्रकारिता नहीं कर रहे थे. यह इस संबंध में कि चैनल के पीछे हजारों करोड़ों की संपत्ति के मालिक पूंजीपति का पैसा था. अगर गणेश शंकर विद्यार्थी की तरह, घोर आर्थिक विपत्तियों के बीच पत्रकारिता कर रहे होते, तो एक वक्त के लिए मेहनताने की बात को दरकिनार किया जा सकता था. लेकिन ऐसा नहीं था. इसलिए, चैनल को इस तरह प्रोजेक्ट नहीं किया जाना चाहिए कि घोर आर्थिक संकट से जूझते हुए उसने पत्रकारिता की है. यह बात तब सही हो सकती थी, जब हमारे पीछे किसी पूंजीपति का पैसा ना लगा होता.
अंतिम और बेहद जरूरी बात. फिलहाल जो लोग कर्मचारियों की लड़ाई का कथित तौर पर झंडाबरदार बने हुए हैं, वे मुझे पसंद नहीं हैं. उनमें से कई लोग नाजियों के वारिस हैं. उन्हें देखकर आश्चर्य होता है कि वे ऐसी जगह पर काम कैसे कर रहे थे. लेकिन, इस सवाल का जवाब भी नेतृत्व पर ही नए सवाल उठाने के लिए मजबूर करता है. अंतिम बात यही है कि मुझे उन लोगों से ना जोड़ा जाए. जिन्हें दो शब्द लिखने की तमीज नहीं, जो बिना पक्के सबूतों के सनसनी फैलाना चाहते हैं या फिर लड़ाई की आड़ में अपने निजी हितों की पूर्ति करना चाहते हैं. बेहतर यही होगा कि जो लोग एकदम पूरी सच्चाई से अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं, वे ऐसे लोगों को डिस्कार्ड कर दें.
इस पोस्ट के कमेंट में किसी पर व्यक्तिगत टिप्पणी करने, कीचड़ उछालने को ना तो मैं एंटरटेन करूंगा और ना ही एंडोर्स. मैं कुछ तय आदर्शों में विश्वास रखता हूं. यही आदर्श मुझे मेरा काम करने के लिए प्रेरित करते हैं. उन्हीं के चलते मैंने यह पोस्ट लिखी है. मेरी किसी से निजी दुश्मनी नहीं है और ना ही ऐसा करने का मेरा कोई इरादा है.
धन्यवाद!