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टीवी

सरकार ने बहुत सोच समझ कर प्राइवेट चैनलों को अपना भोंपू बनाया!

संजय सिन्हा-

इस विषय पर मुझे बहुत दिनों से लिखना था। रोज़ टल रहा था। आज भी बहुत लंबा नहीं लिखूंगा, न बहुत गंभीर लिखूंगा। पर ये तय है कि इस पर चर्चा की ज़रूरत है। कल Amit Chaturvedi ने टेलीविज़न के सतयुग समय का ज़िक्र किया। उन्होंने बताया कि तब एक ही चैनल था, वो भी सरकारी, जिसे मनोरंजन भी करना होता था और समाचार भी बताना होता था, जिसे कृषि दर्शन भी दिखाना होता था और गुमशुदगी का तलाश केंद्र भी चलाना होता था। क्रिकेट, ओलिम्पिक समेत सारे स्पोर्ट्स भी भाई अकेले कवर कर लेता था। फ़्राइडे नाइट को देर रात की फ़ीचर फ़िल्म भी चुपके से दिखा देता था और फिर संडे सुबह रामायण दिखा कर फ़्राइडे नाइट के पाप धो लेता था। फिर सरकार का कंट्रोल नहीं रहा, जो चाहे दिखाने की स्वतंत्रता मिल गयी और सिर्फ़ तीस सालों में हम वहाँ पहुँच गए जहां से कोई वापसी नहीं।

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अमित के लिखे पर Manohar Lal Ludhani ने लिखा कि सरकार का कंट्रोल कहां हटा है? और बढ़ गया है। सरकार के मित्रों ने सब पर कब्जा कर लिया है। भोंपू बन कर रह गए, सारे के सारे।

कायदे से अमित की टिप्पणी और मनोहर लाल लुधानी के जवाब में पूरा सच समाहित है। असल में सरकार ने कहने को प्राइवेट हाथ में टीवी का संचालन सौंप तो दिया, पर ये दर्शकों की आंख में धूल झोंकने का एक नया प्रयोग था। कोई भी टीवी चैनल पैसों के दम पर चलता है। कोई भी टीवी चैनल का मालिक असल में एक व्यापारी होता है। और अगर बात सिर्फ समाचार चैनल की करें तो उसमें जब कभी व्यापार प्रथम होगा तो समाचार तो नहीं होगा।

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सरकारों ने बहुत चालाकी से प्राइवेट टीवी कंपनी के नाम पर दर्शकों को अपने जाल में फंसाया। लिखने को संजय सिन्हा लिख सकते थे कि टीवी कंपनी के मालिकों को फंसाया, पर ये सच नहीं। टीवी कंपनी के मालिकों के लिए कंटेंट कभी महत्वपूर्ण नहीं था। उनके लिए गांधी की तस्वीर महत्वपूर्ण थी। असल में मूर्ख बनना था जनता को। उसके जेहन में ये बात बैठानी थी कि देखो अब तो तुम खुश हो न, सरकार का नियंत्रण नहीं रहा तुम्हारे मनोरंजन पर। जबकि असल में सरकार का नियंत्रण बढ़ गया था।
सरकार ने बहुत सोच समझ कर प्राइवेट चैनलों को अपना भोंपू बनाया। मालिकों को बिजनेस करना था, सरकार को अपनी उपलब्धि बेचनी थी। दोनों मिल गए। मिल क्या गए, मालिक बाज़ार में आए ही थे सरकार की मेहरबानी से। दोनों की मिली भगत से धंधे का रंग चोखा चल निकला।

मैं कभी थोड़ा समय निकाल कर विस्तार से इस बिजनेस की चर्चा करूंगा। पर अभी तो इतना ही कहना है कि जब टीवी संसार पर सरकारी नियंत्रण था, तब फिर भी थोड़ी आजादी थी। सरकार कुछ सच दिखलाने को बाध्य भी होती थी। पर अब तो सरकार को कुछ करना ही नहीं है। अपने लोगों को बस टॉमी छूsss कर देने की ज़रूरत होती है।

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एक समय था जब एलियन गाय को उड़ा कर ले जा रहे थे। जनता हैरान होकर टीवी देख रही थी, सरकार हंस रही थी। अच्छा है, यही दिखलाओ। बात सिर्फ न्यूज चैनल की नहीं थी। मनोरंजन चैलन भी अंधा युग से कब गंदा युग में प्रवेश किए ये भी शोध का विषय है।

ये चिंता की घंटी थी पर कोई समझ नहीं रहा था। किसी को वो घंटी सुनाई नहीं पड़ रही थी। ये कब हुआ, कैसे हुआ? कभी न कभी बुद्धू बक्सा के पीछे बुद्धू बनाने वालों के दिमाग का पोस्टमार्टम भी होगा। पर अभी तो इतना ही सच है कि हम बहुत दूर चले आए हैं। इस पीढ़ी की ज़िंदगी में वापसी मुश्किल है।
मेरा बहुत मन करता है कि मैं टीवी संसार का इतिहास लिखूं। वजह ये है कि मैंने संजय की तरह टीवी युग के हस्तिनापुर संघर्ष को अपनी आंखों से देखा है। कभी न कभी तो वो सच सामने आएगा ही। बस उस कभी न कभी का इंतज़ार करना होगा।
बाकी आपको याद होगा कि मैंने बहुत पहले अपनी काश श्रृंखला में ये लिखा था कि अमित और लुधानी जी दोनों में एक बेहतरीन पत्रकार बनने के गुण मौजूद थे। मैं अपनी बात पर आज भी कायम हूं।

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