चंद्र भूषण-
लोगों की उम्र उनकी जन्मतिथि से निकाली जाती है। वैज्ञानिक दायरों में इसे समयबद्ध आयु (क्रोनोलॉजिकल एज) कहते हैं। इस नाप के साथ कुछ बुनियादी मुश्किलें जुड़ी हैं। पचास-पचपन साल का एक इंसान मजे से हाफ मैराथन दौड़ लेता है जबकि उसी उम्र के दूसरे मनुष्य के लिए अक्सर बाजार से सब्जी लाना भी पहाड़ हो जाता है। इस फर्क को समझने के लिए जैविक उम्र (बायोलॉजिकल एज) की धारणा आई, जिसका इस्तेमाल सेक्सोलॉजी, संतानोत्पत्ति और जीवनशैली से जुड़े चिकित्सा क्षेत्रों में किया जा रहा है।
लेकिन इंसान की उम्र का खेल समझना उसकी शारीरिक बारीकियों में जाने से कहीं ज्यादा कठिन है। क्या इस खेल में कुछ भूमिका उसके मन की भी होती है? यदि हां तो कितनी? इसे ठोस रूप में समझने के लिए आत्मगत आयु, सब्जेक्टिव एजिंग की शब्दावली चलन में आई, जिसके दो पहलू हो सकते हैं। एक यह कि आप खुद को कितने साल का महसूस करते/करती हैं (फेल्ट एज), और दूसरा यह कि आप कितने साल के होना/दिखना चाहते/चाहती हैं (आइडियल एज)।
इस बारे में कामकाजी आंकड़े पूरी दुनिया में अभी केवल एक संस्था नॉर्वेजियन लाइफ कोर्स, एजिंग एंड जेनरेशन स्टडी (नोरलाग) के पास हैं, जिसने सन 2001 में 40 से 80 साल की उम्र वाले विविध संस्कृतियों और शैक्षिक स्थिति के कुल 6292 स्त्री-पुरुषों से फोन पर फॉर्म भराकर उनकी राय लेना शुरू किया और इस क्रम में 2002, 2007 और 2017 में, यानी पहले एक, फिर पांच और दस साल के अंतर पर उनके आयु संबंधी सारे वस्तुगत और मनोगत ब्यौरे इकट्ठा किए।
दुनिया की कई नामी शोध संस्थाएं फिलहाल इन आंकड़ों पर काम करके महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाल रही हैं, जिनमें सन 2020 में आई कैंब्रिज यूनिवर्सिटी की एक स्टडी बहुत खास है। उम्र के उत्तरार्ध में पैदा होने वाली समस्याओं पर केंद्रित इसके विशद निष्कर्षों में एक यह है कि हर इंसान खुद को अपनी वास्तविक उम्र से छोटा महसूस करता है और उससे भी छोटा होना/दिखना चाहता है। लेकिन कमसिन होने की यह इच्छा जीवन को लेकर उसका असंतोष बढ़ा देती है। नतीजा यह कि उसके जीवन की गुणवत्ता और कम हो जाती है।