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साहित्य

झुलसी दिल्ली के दर्द को इस कविता में शब्द मिल रहा, सुनें- वसंत में अवसाद!

Uday Prakash : एरिका जाँग (अमेरिकी उपन्यासकार और कवयित्री) की एक कविता…

वसंत में अवसाद

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हथेलियाँ, कॉपियों के पन्ने,
शहर का समूचा लकवाग्रस्त टेढ़ा-मेढ़ा आसमान
दहक रहा है शोलों में
और पैशाची बम नदियों पर टूट रहे हैं
मैं अपनी पूर्वी खिड़की से देख रही हूँ

कवि मर चुके हैं, शहर मर रहा है।
अन्ना, सिल्विया, कीट्स
अपने प्यार भरे फेफड़ों के साथ,
बेरीमैन पुल पर से छलांग लगा रहा है और विदा में हाथ हिला रहा है,
अपने-अपने स्वप्नों के
सारे स्वप्नदर्शी अब मर चुके हैं।

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मैं क्यों यहाँ रुकी हुई हूँ होरेशियो की तरह पहरेदार?
अन्ना अपनी कब्र से कविताएं और
सिल्विया चिट्ठियाँ भेज रही है
जॉन कीट्स की भुतहा खांसी की आवाज़
आ रही है इस दीवार के उखड़े पलस्तर के पार से।
क्या कर रही हूँ मैं यहाँ?
क्यों बहसें करती हुई? लड़ती-झगड़ती हुई?

मैं एक शव हूँ, एक लाश
जो किसी तरह एक कलम चलाती है जो कुछ लिखती है
मैं ध्वनियों का एक बर्तन हूँ जो गूंजता रहता है
मैं एक उपन्यास लिखती हूँ
और जंगलों को भस्म कर देती हूँ

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मैं समूचे ब्रह्मांड को इंच भर फिर से संयोजित करती हूँ।


इस कविता का हिंदी अनुवाद करने वाले जाने-माने साहित्यकार उदय प्रकाश की एफबी वॉल से.

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इस कविता को उदय जी की आवाज में सुनें, नीचे क्लिक करें-

Vasant mei Awasad

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https://www.facebook.com/bhadasmedia/videos/500207127569021/
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