भाई, संस्कृत भाषा मर नहीं सकती। अब यह मत सोचिए कि मैं ब्राह्मण हूं क्या? नहीं भाई मैं ब्राह्मण नहीं हूं। लेकिन ब्राह्मण होता तो भी यही लिखता जो अभी लिख रहा हूं। और भाई ब्राह्मणों ने किसी भाषा की हत्या नहीं की। किसी भी जाति विशेष पर हमें कोई टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। अब आइए संस्कृत के अस्तित्व की बात पर। करोड़ो लोग प्रतिदिन भगवत् गीता का पाठ करते हैं। दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हैं। महामृत्युंजय जाप करते हैं। रोज, बिना किसी नागा के। अन्य पुस्तकों का सस्वर पाठ करते हैं पूजा के वक्त। और वे जो पाठ करते हैं, उसका अर्थ भी जानते हैं। भगवान शिव की दिव्य स्तुति-
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेहं।।
इसका अर्थ वे सभी लोग जानते हैं जो इसका पाठ करते हैं। कौन कहता है कि संस्कृत मर चुकी है? भाई, इस तरह बिना तथ्यों की जानकारी के अपनी रौ में किसी भी भाषा को मृत कह देना कहां तक उचित है? संस्कृत के विद्वानों के पास जाइए और देखिए कि किस तरह वे इस भाषा के विशिष्ट तत्वों को समझाते हैं। संस्कृत एक मात्र भाषा है कि जिसके मंत्रों के जाप से पूरे शरीर औऱ मन की शुद्धि होती है। जो इस बात को नहीं जानते वे इसका मजाक उड़ा सकते हैं, लेकिन इंटरनेट की दुनिया बहुत व्यापक है, अनंत है- यहां आप सर्च कर जानकारी पा सकते है। सिर्फ भगवत् गीता के श्लोक ही मुझे आश्चर्य में डाल देते हैं। खास तौर से सोलहवें अध्याय के श्लोक। दो लाइन में न जाने कितनी जानकारी और गहराई है। हां, यह कठिन भाषा के तौर पर जानी जाती है। लेकिन जब आप इसमें रच बस जाएंगे तो इसे पढ़ कर आप आनंद पाएंगे। यह उतनी कठिन भी नहीं है।
संस्कृत भाषा पूरी तरह जीवंत है और धड़क रही है। इसे कोई मार ही नहीं सकता। जब तक पृथ्वी रहेगी, तब तक संस्कृत रहेगी। और हां, इसे देवभाषा कहा जाता है तो ठीक ही कहा जाता है। इसमें जो पवित्रता है, वह और कहीं नहीं मिलेगी। करोड़ो लोग प्रतिदिन भगवत् गीता का पाठ करते हैं। दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हैं। महामृत्युंजय जाप करते हैं। रोज, बिना किसी नागा के। अन्य पुस्तकों का सस्वर पाठ करते हैं पूजा के वक्त। और वे जो पाठ करते हैं, उसका अर्थ भी जानते हैं। भगवान शिव की दिव्य स्तुति-
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेहं।।
इसका अर्थ वे सभी लोग जानते हैं जो इसका पाठ करते हैं। कौन कहता है कि संस्कृत मर चुकी है? भाई, इस तरह बिना तथ्यों की जानकारी के अपनी रौ में किसी भी भाषा को मृत कह देना कहां तक उचित है? संस्कृत के विद्वानों के पास जाइए और देखिए कि किस तरह वे इस भाषा के विशिष्ट तत्वों को समझाते हैं। संस्कृत एक मात्र भाषा है कि जिसके मंत्रों के जाप से पूरे शरीर औऱ मन की शुद्धि होती है। जो इस बात को नहीं जानते वे इसका मजाक उड़ा सकते हैं, लेकिन इंटरनेट की दुनिया बहुत व्यापक है, अनंत है- यहां आप सर्च कर जानकारी पा सकते है। सिर्फ भगवत् गीता के श्लोक ही मुझे आश्चर्य में डाल देते हैं। खास तौर से सोलहवें अध्याय के श्लोक। दो लाइन में न जाने कितनी जानकारी और गहराई है। हां, यह कठिन भाषा के तौर पर जानी जाती है। लेकिन जब आप इसमें रच बस जाएंगे तो इसे पढ़ कर आप आनंद पाएंगे। यह उतनी कठिन भी नहीं है।
संस्कृत भाषा पूरी तरह जीवंत है और धड़क रही है। इसे कोई मार ही नहीं सकता। जब तक पृथ्वी रहेगी, तब तक संस्कृत रहेगी। और हां, इसे देवभाषा कहा जाता है तो ठीक ही कहा जाता है। इसमें जो पवित्रता है, वह और कहीं नहीं मिलेगी।
संस्कृत भाषा के जीवित होने के और प्रमाण
देश के करोड़ो लोग त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव कह कर ईश्वर की स्तुति करते हैं। जब मैं स्कूल में पढ़ता था (यह सन १९५७- ६३ की बात है) तो वहां सुबह यही प्रार्थना दोहराई जाती थी। आज भी हर उम्र और जाति के असंख्य लोग ओम नमः शिवाय और ओम गणेशाय नमः जैसे मंत्रों का अत्यंत श्रद्धा से जाप करते हैं। यह क्या है। संस्कृत ही तो है। हिंदू रीति- रिवाज से देश- विदेश में जहां भी विवाह की रस्म होती है, वहां गणेश पूजा से प्रारंभ होता है और मंत्रोच्चार के साथ विवाह न हो तो उसे पूर्ण नहीं माना जाता। मैं पोंगापंथ में विश्वास नहीं करता। लेकिन मेरा यह विश्वास है और विज्ञान ने इसे सिद्ध भी कर दिया है कि मंत्र न सिर्फ हमारे शरीर बल्कि मन और प्राण (पंच प्राण- प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान) में भी विशिष्ट ऊर्जा संचारित होती है। यह अंधविश्वास तो बिल्कुल नहीं है।
पढ़े- लिखे या बुद्धिजीवी होने का यह अर्थ तो बिल्कुल नहीं है कि धर्म की हर बात को नकार दें। आखिरकार आदि शंकराचार्य से लेकर संत कबीर, मीराबाई, संत रविदास से लेकर रामकृष्ण परमहंस और परमहंस योगानंद तक ने जो बातें कही हैं, उसे सतही तौर पर लेना हमारी गलती होगी। मैं जानता हूं कि एक तबका ऐसा है जो हिंदू धर्म को गाली देता है और उसे परम बुद्धिजीवी होने का प्रमाण पत्र दिया जाता है। यह परंपरा भी रही है और अब भी है। ऐसे लोगों की विशिष्टता बस यही है कि वे हिंदू धर्म को गाली देते हैं, आध्यात्म को गाली देते हैं। इसीलिए वे चरम विद्वान कहे जाते हैं। चाहे उनके भीतर और कोई विशेषता न हो तो भी। चाहे लाख दुर्गुण भरे हों तो भी। लेकिन मेरी इन पंक्तियों के लेखन से मुझे किसी खेमे से संबंधित न समझ लिया जाए। मैं किसी भी खेमे से नहीं जुड़ा हूं। यह मेरी व्यक्तिगत राय है। और मुझे लगता है कि इससे असंख्य लोग सहमत होंगे।
संस्कृत भाषा के बिना हमारा जीवन नहीं चल सकता। ऊं () शब्द भी तो संस्कृत का ही है। इससे कौन इंकार करेगा? एक बार फिर मैं इसे दुहराना चाहता हूं कि संस्कृत को देवभाषा कहना सही है। क्योंकि एक तो सारे देवताओं के मंत्र संस्कृत में हैं और दूसरे इसकी ध्वनियां वर्णनातीत हैं। उच्चारण में जादू है। महारुद्राभिषेक के समय होने वाले मंत्रोच्चार को मैं जादू ही मानता हूं। मैं किसी जाति पर टिप्पणी नहीं करूंगा क्योंकि यह मेरे लिए संभव ही नहीं है। मैं हर जाति और धर्म का हृदय से सम्मान करता हूं। लेकिन संस्कृत सारी भाषाओं की माता मानी जाती है।
लेखक विनय बिहारी सिंह जनसत्ता अखबार में लंबे समय तक काम कर चुके हैं और कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं.
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p. basant bhatt
November 25, 2014 at 1:17 pm
संस्कृत भाषा का मजाक उड़ाने वाले इसकी निंदा करने वाले यह नहीं जानते भाषा मां होती है। आप किसी की मां का मजाक उड़ाते है या उसका अपमान करते है। तो यह विचार करें कि कोई आपका मां का अपमान करे तो आपके हद्य पर क्या होगा। मुझे खेद है कि पढ़े लिखे लोग होकर ब्राह्मण शब्द का अर्थ नहीं जानते है और ब्राह्मण का अपमान करते है। किसी का अपमान करना या किसी की निंदा करना स्वयं के व्यकित्व पर प्रशन चिन्ह लगाना है। मै निवेदन करता हूं कि आप ऐसे व्यक्तियों को जगह ना दे।
sanjeev singh thakur
November 25, 2014 at 2:27 pm
Sanskrit ka apmaan surya k upar thukne jaisa h. Puri duniya mein bhasha ki samridhi uski vocubulary yani shabdavali se hoti h. Sanskrit ki voc. duniya ki sabhi language se jyada hone k karan Gemany me ispar research chal rhi h. Ho sakta h computer k liye ise sabse jyada upyogi bhasha mana jaye. Mahabharat jaisa duniya ka sabse bada epic sanskrit mein hi h.
पंकज झा
November 25, 2014 at 4:01 pm
अद्भुत और सुंदर विश्लेषण. प्रणाम.
Jackey
November 26, 2014 at 4:44 am
अद्भुत और सुंदर विश्लेषण. प्रणाम.
I Salute to YOu
Barun Kumar Singh
November 26, 2014 at 5:28 am
नाम तो नवीन रखे हैं लेकिन नाम के अनुरूप उनमें कहीं कोई नवीनता नहीं हैं। अपनी दकियानूसी सोच के कारण ही वे देववाणी भाषा संस्कृत को मर चुकी भाषा कहते हैं। हजारों सालों के इतिहास को एक शब्द में इतिश्री कर देना बुद्धिमता नहीं बुद्धिहीनता का परिचायक है। विनय बिहारीजी ने उन्हें अद्भुत जवाब दिया है और मैं मानता हूं कि इससे और लोग भी सहमत होंगे। आज लोगों की अपनी मानसिकता बदल गयी है वे तो खाते हैं पश्चिमी सभ्यता में खडे़ होकर और मल-मूत्र खड़े होकर या सीट पर बैठकर त्याग करते हैं। जिसकी जैसी मानसिक सोच रहेगी और जिस वातावरण के परिवेश में पलेगा वो वैसी ही सोच रखेगा और सब कुछ को बाजार एवं आधुनिकता से जोड़ देगा।