अनिल कुमार यादव-
लखनऊ में हमारा मिलना दो मोहभंगियों का मिलना था. कोई स्वप्न नहीं, कोई उम्मीद नहीं, सिर्फ हर लंबाई के डंक और उनकी जलन. पता था कि दुख दोहराने से ही कटता है लेकिन किसी भी तरह का दोहराव असहनीय था. शुरू में मुझे खीझ होती थी कि हर बार यह कहानीकार सनातन बेरोजगारी का रोना ले कर बैठ जाता है लेकिन पेपर मिल कालोनी के अंधेरे में दो पैग के बाद हम खुद की और जमाने की मूर्खताओं, जिद, क्रूरताओं और मुराहीपन पर हंसने लगते.
तभी ध्यान जाता यह कथाकार कमीज को करीने से पैंट में खोंसता हैं, बाल संवारता है, शौक से चूड़ा-मूंगफली और चिकन भूनता है, सबसे बढ़कर यह कि उसकी हंसी में स्वतःस्फूर्तता है. कैसे? आखिर कैसे?…यहीं से एक धागा निकलता था कि दुनिया में ज्यादातर लोगों की उपेक्षा, विफलता और अपमान से ही यारी है, अगर उन्हें इन भावनाओं की कहानियां सहृदय ढंग से सुनाई जाएं तो बतौर लेखक कामयाब हुआ जा सकता है.
विफलता के साम्राज्य में सच्ची कामयाबी इन दिनों मोदी राज का मुसलमान है. यही धागा “दिन ढले की धूप” में एक मुर्चा लगी टेढ़ी सुई के सहारे आरपार कर दिया गया है. अभी मैने यह लिखकर एक और नाशाद दोस्त को सुनाया तो उसने कहा, मैं भी इसे जानता हूं, ‘देखना यह कामयाब होते ही Avinash Das की तरह बदल जाएगा’.
मैने कहा, ‘देखा जाएगा! अगर यह कहानियां लिखता रहे और वो एकाध कायदे की फिल्म बना दे तो चलेगा क्योंकि परिवर्तन ही तो प्रकृति की इकलौती औलाद है’.
खैर, बस इस इकलौती मार्मिक कहानी के लिए यह संग्रह कुछ दिन सिरहाने रखा जाना चाहिए. सुन रही हैं न पुष्पा जिज्जी!