न तो रोना आ रहा और न ही हँसना
सुबह किसी लड़के का फ़ोन आया।
बोला सर-नमस्ते
मैं, सर सुनते ही खुश हो गया। तपाक से मैंने कहा-कौन ?
उसने बोला सर-मुझे पत्रकार बनना है !
मैंने कहा- बन जाओ!
कैसे बनूंगा सर ?
मैंने कहा-पढ़ाई करनी होगी ? पत्रकारिता का कोर्स करना होगा.
वो हँस पड़ा ! अरे सर मेरी गली में चार बड़े पत्रकार हैं ?
मैंने कहा उनसे ही पूछ लो।
बोल पड़ा! अरे सर वो परचून की दुकान चलाते हैं। और किसी अखबार में पार्ट टाइम रिपोर्टर हैं। उनकी खबर छपती है। बड़ा रसूख है उन लोगों का। कोई पढ़ाई लिखाई उन लोगों ने नहीं किया है।
फिर मेरे बस कुछ आगे बोलने की हिम्मत नहीं थी।
उसने बोला मैं किसी दूसरे बात करूँगा। लेकिन बनूंगा पत्रकार ही।
फिर मुझे याद आ गया। किसी ने इसे ज्ञान दिया होगा। वैसे भी 70 प्रतिशत पत्रकार बिना किसी डिग्री डिप्लोमा के इस फील्ड में है। प्रिंट मीडिया इसका जनक रहा है। ऐसे लोगों को पत्रकार बनाने में प्रिंट मीडिया की अहम भूमिका थी। कई तो घरबैठे डिग्री लिए हैं। दूरस्थ शिक्षा की मेहरबानी है। अब मैं सोच रहा हूँ। हम लोग क्या पगले थे जो इतनी नाक रगड़ी पढ़ाई के लिए।
अब हमें न तो रोना आ रहा है और न ही हँसना । चूंकि उसी बिरादरी का जो ठहरा। लेकिन आज का यह अनुभव बहुत दुखी किया है।
संतोष कुमार पांडेय
सम्पादक :पोल टॉक
pandey.kumar313@gmail.com