Nirendra Nagar : अभी ‘न्यूटन’ देखी हॉल में। फ़िल्म में दिखाया गया है कि कैसे प्रशासन, पुलिस और सशस्त्र बलों की मिलीभगत से चुनाव के नाम पर इस देश में कई जगह केवल छलावा होता आया है चाहे वह कश्मीर हो या छत्तीसगढ़। पहलाज़ निहलानी के रहते तो यह मूवी सेन्सर बोर्ड से पास ही नहीं होती। वैसे न्यूटन जो एक ईमानदार युवा सरकारी कर्मचारी है और जो इस बात पर डटा हुआ है कि वह अपने अधिकार वाले बूथ में असली मतदान करवाकर रहेगा, उसकी ज़िद्दी कोशिशों पर जब दर्शक हँसते हैं तो स्पष्ट होता है कि ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की वाक़ई इस देश में क्या क़ीमत है। एक दर्शक तो वास्तव में बोल भी पड़ा – ‘पागल है क्या!’ ऐसा लगा जैसे उसने न्यूटन और उसके जैसे सभी लोगों को गाली दी हो।
Nitin Thakur : बहुत लोग न्यूटन देख चुके होंगे. मैंने देखने के बावजूद काफी वक्त तक कुछ नहीं लिखा. ऐसी फिल्मों पर लिखने के लिए अच्छा खासा वक्त चाहिए. सबसे बढ़कर वो मानसिक परिस्थिति होनी चाहिए जिसमें आप फिल्म के सभी पहलुओं को सामने रख सकें. यहां वो पहलू भी शामिल हैं जो छिपे रह जाते हैं. फिल्म तो सब एक ही देखते हैं पर किसी से कुछ छूट जाता है तो किसी को कुछ दिख जाता है. रुझान और चीज़ों को ग्रहण करने पर है कि आपने कितना सीखा या देखा.
न्यूटन अपने काम को ईमानदारी से पूरा करने की सनक पर है. वो तंत्र के आपस में उलझते कर्मचारियों की उस “अंडरस्टैंडिंग” पर है जो कानूनी तो नहीं मगर व्यवस्था बनाए रखने के लिए डेवलप हुई और अब स्वीकृत है. फिल्म दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सीमाएं दिखाने पर है. ये बताती है कि हम अपने सीमित अधिकारों और ताकत के बूते किसी हद तक सही रास्ते चल भी सकते हैं. हां, गांधी दुनिया में स्वीकारे जाने से पहले कभी पागल लगे होंगे.. ऐसा ही आपको फिल्म वाले नूतन कुमार उर्फ न्यूटन के लिए लग सकता है. कुछ साल पहले आई “हैदर” दिखा कुछ रही थी मगर तल के नीचे बयां कुछ और ही करती थी. इसी तरह “न्यूटन” सिनेमाघर के दर्शकों को एक गाल पर सहलाते हुए दूसरे पर चांटे जड़ रही है.
जैसा कि मैंने कहा कि अपना अपना हिसाब है. कोई सहलाने को ज़्यादा महसूस करता है और कोई चोट को. इसे फिल्म का बहुअर्थी होना ही कहेंगे कि किसी दृश्य पर आपकी सीट के एक तरफ बैठा दर्शक हंस सकता है तो ठीक उसी वक्त वही दृश्य दूसरी तरफ बैठे दर्शक को रुला सकता है. मैं हिंदी फिल्मों से निराश होकर सालों पहले विदेशी फिल्में देखने लगा था. कुछ सालों बाद जब मैंने हिंदी फिल्म की गली में झांका तो पाया कि सूरत बदलने लगी है. कुछ लोग जो मोहल्ले का माहौल खराब कर रहे थे वो जा चुके हैं. उन मकानों में नए लोग आ गए हैं जो तुलनात्मक रूप से पुराने वालों से बहुत बेहतर हैं. समाज अब “नो मीन्स नो” पर फिल्म बनाकर आत्ममंथन और पछतावे की भावना के साथ जी रहा है.
खुद न्यूटन सत्तर साल पुरानी व्यवस्था को वैसे ही देख रही है जैसे आप काफी वक्त से एक ही जगह पड़ी ईंट उठाते हैं और उसके नीचे पल रहे कीड़े आपके सामने रेंगते हुए चले आते हैं. अब राजकुमार राव ऑस्कर में जा चुके हैं. कहा जा सकता है कि फिल्म को ऑस्कर के लिए चुनकर गलती नहीं की गई है. भले वो ना भी जीते तो भी बहुत फर्क नहीं पड़ता. हर फिल्म के साथ गुणवत्ता बढ़ ही रही है. आप भी इस क्वालिटी चेक के लिए न्यूटन देखें. ऐसी फिल्मों को पैसा कमाने का मौका मिलना चाहिए. अगर हो सके सिनेमाघर का रुख कीजिएगा. डीवीडी आने पर बच्चों को दिखाने के लिए खरीद लीजीएगा. आज के दौर में न्यूटन कमर्शियल ड्रामा कम एक डोक्यू ड्रामा ज़्यादा है.
वरिष्ठ पत्रकार नीरेंद्र नागर और नितिन ठाकुर की एफबी वॉल से.