-समरेंद्र सिंह-
कई बार जब हम संकट में होते हैं तो आस-पास सभी को संकट में डालते हैं। यह स्वभाविक बात है। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने जो कहा है वो बात बिल्कुल सही है। ये संकट इस्लाम का संकट है। इस्लाम को इससे बाहर निकलने की कोशिश करनी चाहिए।
फ्रांस की घटना पर भारत में जो लोग लिख रहे हैं, उनमें से बहुतों को सलाह दी जा रही है कि घटना फ्रांस में हुई है, भारत में नहीं हुई है, इसलिए इस्लामोफोबिया बढ़ाने की जरूरत नहीं है।
लेकिन फ्रांस के राष्ट्रपति के बयान के खिलाफ यहां पर सड़कों पर मुसलमान निकल सकते हैं। और वो सही है! बस कोई उस बयान के समर्थन में कुछ नहीं लिख सकता। अगर लिखेगा तो वो धर्मनिरपेक्ष नहीं रहेगा। ये बेवकूफी भरी और बेहूदी बात है।
मैं भारत के मुस्लिम बुद्धिजीवियों की इस दलील का खुल कर विरोध करता हूं। उनकी बुजदीली और मौकापरस्ती इस देश के गरीब मुसलमानों को भारी पड़ रही है। ये इतने कायर और कट्टर नहीं होते तो आज संघ का इतना विस्तार नहीं होता।
कतर के दोगले नेता बयान दे सकते हैं। मलेशिया का सबसे ताकतवर शख्स कह सकता है कि मारने-काटने का अधिकार है। पाकिस्तान का हुक्मरान बोल सकता है। वहां संसद प्रस्ताव पारित कर सकती है। दुनिया के तमाम इस्लामिक देशों के हुक्मरानों को इस्लाम के पक्ष में बंदर की तरह उछलने कूदने का अधिकार है।
लेकिन किसी ऐसे देश के हुक्मरान को अपने धर्म के पक्ष में बोलने का अधिकार नहीं है जहां इस्लाम अल्पसंख्यक है। उन्हें अपनी जनता के पक्ष में बोलने का अधिकार नहीं अगर वह बात इस्लाम की भावना को आहत करती हो। धर्म की जिस तरह की राजनीति ये इस्लामिक देश करते हैं, अगर वैसी राजनीति तमाम अन्य देशों के लोग करने लगे तो कयामत आ जाएगी।
दो दिन पहले मेरे एक दोस्त ने कुछ लिखा और दूसरे दोस्त ने शेयर किया, उस पर खुद को वामपंथी कहने वाले कुछ दोगले किस्म के मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने उसे आतंकवादी करार दे दिया। इनकी कमाल की धर्मनिरपेक्षता है। जो हल्की सी बात पर तेल लेने चली जाती है। ये मुस्लिम बुद्धिजीवी भी किसी आतंकवादी से कम नहीं हैं।
इन्हें सिर्फ एक ही सीख मिली, शान में गुस्ताखी करने वाले को गला रेतकर मार दो!
-अतुल चौरसिया-
फ्रांस में गला रेत कर हत्या और उसके बाद पैदा हुए अंतरदेशीय विवाद में हमारे यहां भी हंगामा हो रहा है. कुछ लोग इसे लोन वुल्फ अटैक यानी किसी सरफिरे का कारनामा बताकर घटना का अपरोक्ष बचाव कर रहे हैं तो कुछ लोग इसकी वजह नबी की शान में गुस्ताखी बता रहे हैं.
क्या इसके इतर भी इस हिंसा के खिलाफ कोई तर्क हो सकता है. यह लोन वुल्फ अटैक नहीं है, फ्रांस में अलग-अलग जगहों पर हुई अनेक घटनाएं यह बताती हैं. अगर यह लोन वुल्फ अटैक है तो शंभुलाल रैगर के मामले को आप कैसे देखेंगे? न्यूजीलैंड की मस्जिद में कत्लेआम करने वाले ब्रेंटन टारेंट को भी आप लोन वुल्फ अटैक कहेंगे?
नहीं, दरअसल ये घटनाएं एक राजनीतिक डिजाइन और एक नफरत प्रेरित माहौल का नतीजा हैं. ऊपर से ये भले ही एकाकी हमले दिखें पर इसके पीछे एक पूरी संगठित मानसिकता काम करती है.
यह आपको शुरू से ही एक माहौल देती है. आपको यह नहीं सिखाया गया कि कार्टून का जवाब कार्टून से भी दिया जा सकता है, फिल्म का जवाब फिल्म बनाकर देना चाहिए, लेख के जवाब में लेख लिखा जाना चाहिए, विरोध के लिए सिविल डिसओबिडिएंस का इस्तेमाल करना चाहिए. इन सब उपायों के परे इन्हें सिर्फ एक ही सीख मिली कि शान में गुस्ताखी करने वाले को गला रेतकर मार देना है.
आपको ये सीख भी नहीं दी गई कि नबी, पैगंबर, आपका दीन इतना कमजोर नहीं है कि किसी गुस्ताख की बदमाशी से खतरे में पड़ जाएगा. जो लोग इसे माहौल या डिजाइन का हिस्सा नहीं मानते उन्हें पाकिस्तान से महिलाओं के एक मदरसे से आई यह वीडियो देखना चाहिए. इसमें सैकड़ों अबोध बच्चियों के सामने एक बुर्कानशीं महिला फ्रांसीसी राष्ट्रपति का गला तलवार से काटने का सार्वजनिक प्रदर्शन कर रही है.
इन अबोध बच्चियों को यही तालीम मिल रही है कि दीन की रक्षा गला काटकर ही की जा सकती है. मित्र आप लोन वुल्फ अटैक की आड़ में जो फरेब और बेइमानी रच रहे हैं वह असल में इंसानियत से बेइमानी है. बीमारी को दूर करने की पहली शर्त है कि बीमारी को स्वीकार किया जाए. बावासीर की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि आदमी ताउम्र शर्म-हया के नाते छिपाता फिरता है और बावासीर को फिशर और फिशर को नासूर में बढ़ाता जाता है.
मैंने जानबूझ कर इसमें राजनीति को शामिल नहीं किया. मैक्रॉ अपने यहां जो कर रहे हैं, वही एर्दोआं तुर्की में कर रहे हैं और मोदीजी भारत में. पाकिस्तान वाले इमरान को छोड़ ही दीजिए, उनकी नियति है साइडकिक प्ले करना.
सोशल मीडिया पर हिंसा की वकालत का बहुमत है
-शीतल पी सिंह-
कितने ऐसे लोग हैं जो किसी बात पर किसी से असहमत / अपमानित/ आहत महसूस करके दूसरे इंसान की बेदर्दी से जान ले लेते हैं या जान लेने की कोशिश करते हैं ? अपने आस पास की ऐसी घटनाओं के प्रतिशत का खुद का लेखाजोखा बनाइये ।
दुनियाँ के विकास के साथ यह संख्या घटती गई है । इस तरह का जंगली इंसान होने के लिये एक ख़ास परवरिश/ कंडीशनिंग दरकार होती है जिससे उस व्यक्ति का एड्रिनलिन ज़रूरत से ज़्यादा उछाल मारता है ।
हर एक अपनी संभावित प्रेमिका के ना कहने पर उस पर तेज़ाब नहीं फेंक देता / गोली नहीं मार देता , बस लाखों में एकाध ही ऐसे अब तक बचे हुए हैं जो इस तरह की मूर्खता करके उसका और अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं ।इसे वह महान काम समझता है पर दूसरे जानते हैं कि यह नितांत मूर्खता है और एक ख़ास उम्र में एक ख़ास तरह की परवरिश पाये मनबिगड़े / कई बार धन /पद के मद में बौराए परिवार के लफंडरो का कारनामा होता है ।
तो इक्कीसवीं सदी तक पहुँच कर भी बहुत सारे लोग मसलों को बात से हल करना और बातचीत से समझना बूझना नहीं सीख सके हैं । वे दिमाग़ी तौर पर पिछड़े हुए लोग हैं जो अभी तक पाँच छह सौ बरस पहले या उससे भी और पहले की सोच समझ में जी रहे हैं । ये दुनियाँ के लिए अनुपयोगी हैं यह बात नहीं समझते । उनकी मारकाट उन्हीं को मरने कटने के रास्ते पर धकेल रही होती है यह समझने की तासीर उनके दिमाग़ों में न होती है और न उनकी सोहबत इसे होने देती है । ये तन मन धन से गरीब लोग हैं ।
इनको यह भी नहीं मालूम और न समझ है कि धीरे धीरे दुनियाँ ग़ैर ज़रूरी लोगों के प्रति दया दिखाने की मानवीयता त्यागती जा रही है । संयुक्त राष्ट्र जैसी अंतराष्ट्रीय संस्थाएँ कमजोर होती जा रही हैं । आज यमन में मर रहे लाखों बच्चों का कोई वली वारिस नहीं है । सूडान के खून ख़राबे से दुनियाँ को धीरे धीरे उबकाई आ रही है । कई भौगोलिक इकाइयों में तो अब सरकार के नाम पर मारकाट करने वाले गिरोहों के साये में लोग नित मरने कटने को अभिशप्त हैं !
सरकारों के लिये खूनखराबा उनको बनाए टिकाए रखने का औज़ार है । बड़े देशों के लिये उनके बाज़ार पर क़ब्ज़े को बनाए रखने के लिए देशों / आबादियों को डराए रखने / क़ाबू में रखने का तरीक़ा है । लेकिन अवाम के लिये तो यह ज़हर है जिससे सिर्फ़ नुक़सान ही नुक़सान है ।
दुनियाँ की सभी सेनाओं में सबसे आगे मरने / मारने वालों की टुकड़ी सबसे कम उम्र के नौजवानों की बनाई जाती है । राजनैतिक दलों और धर्म के उकसाए हुए लोगों में भी मरने मारने वाले ज़्यादातर बार कम उम्र के युवा ही होते हैं । अधिकतर के बचपन में कठिनाइयों ने उन्हें डिस्टर्ब किया हुआ होता है । हिंसा का कमसिनी कमअक्ली और परवरिश की तकलीफ़ों से सीधा संबंध है ।
ये सिर्फ़ संयोग नहीं है कि फ़्रांस में हुई पिछले दिनों की गला काटकर हत्या करने की दोनों घटनाओं में हमलावर क्रमशः उन्नीस और इक्कीस साल के थे । दोनों चेचेन्या और ट्यूनीशियाई मूल के थे जहां समाज व्यवस्था बुरी तरह से खड़खड़ाई हुई है, चेचन्या दशकों से गृहयुद्ध की चपेट में है और ट्यूनीशिया लीबिया की सीमा पर है जहां गृहयुद्ध जारी है ।दोनों एक ऐसे धार्मिक संस्कार से थे जो इस समय दुनियाँ भर में अपने विक्टिमाइजेशन से परेशान है/ या ऐसा समझता है ।
सोशल मीडिया पर हिंसा की वकालत का बहुमत है । किंतु परंतु लगाकर यह किया जाता है जबकि यह सीधे सीधे ख़ारिज किया जाना चाहिए । इंसान के इंसान बनने की राह का सबसे बड़ा रोड़ा हिंसा का ख़्याल है।
आपकी आने वाली नस्लों को “अभिव्यक्ति” का मतलब समझ आ जाये…
-सिद्धार्थ ताबिश-
बिल्कुल.. अगर आपको किसी सरकार या किसी स्टेट की बात बुरी लगती है या आपकी भावनाएं आहत होती हैं तो आपको बिल्कुल अधिकार है कि आप उसका विरोध करें.. पुरज़ोर विरोध करें.. प्रदर्शन करें.. वार्तालाप करें.. और ये तब तक करें जब तक आपकी बातें न मानी जाएं.. ये आपका अधिकार है और ये आपकी अभिव्यक्ति की आज़ादी है
मगर आप अपनी भावनाएं आहत होने पर लोगों के गले काटें, दंगे करें, ख़ून ख़राबा करें तो अगले को हक़ है कि वो आपके साथ इतनी सख़्ती से पेश आये कि आपकी आने वाली नस्लों को “अभिव्यक्ति” का मतलब समझ आ जाये
क्यूंकि अब बहुत हो गया.. आप इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं जहां मंगल ग्रह पर गया हुवा एक रोबोट आपको वहां की वीडियो और फ़ोटो भेजता है और आप चौदह सौ साल पहले आयी एक धारणा, जिसमें ये कहा गया कि आप “क़ब्र” में जाएंगे तो आपको मार पड़ेगी, उसको मानते हुवे डर में दुबले हुवे जाते हैं.. और आपकी इस बेवकूफ़ी भरी आस्था या ये डर आपके भीतर जिसने डाला है उसकी अगर कोई हंसी उड़ाए तो आप उस हंसी उड़ाने वाले कि गर्दन काटेंगे?
आप जैसे राम रहीम और आसाराम पर हंसते हैं और हंसी उड़ाते हैं वैसे ही दूसरों को ये अधिकार है कि आपकी बेवकूफ़ी भरी मान्यताओं और उनको बनाने वालों की हंसी उड़ाए.. आपको नहीं दिखता है मगर आपकी मान्यताओं को बनाने वाले आसाराम और रामरहीम से कहीं से कहीं ज़्यादा क़ाबिल नहीं थे.. इनसे भी पचास डिग्री नीचे की बुद्धि के वो लोग थे
मगर आप गला काट कर अपने लोगों की इज़्ज़त करवाएंगे तो अब ये सब बर्दाश्त के बाहर की बात है.. अब इसका इलाज ज़रूरी है.. अब सरकारों को इस “पागलपन” के ख़िलाफ़ एकजुट होकर इस “बेवकूफ़ी” का स्थायी इलाज करना चाहिए