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30 जनवरी के अखबारों का रिव्यू : ‘खरगे ने कहा- मोदी जीत गये तो चुनाव नहीं होंगे’… ये खबर मेरे सात में से छह अखबारों में यह पहले पन्ने पर नहीं है!

संजय कुमार सिंह-

तीस जनवरी 2023 के अखबारों का रिव्यू : इंडियन एक्सप्रेस ने अर्थव्यवस्था पर प्रचार का सच बताया, पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था होने में तीन वर्ष लगेंगे

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अगर मुझे आज की सबसे बड़ी खबर तय करना होता तो मैं कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के उस बयान को चुनता जिसमें उन्होंने कहा है कि नरेन्द्र मोदी चुनाव जीत गये तो यह आखिरी चुनाव होगा। मुझे लगता है कि यह बहुत बड़ी बात है और अगर खरगे ने कहा है तो निश्चित रूप से पहले पन्ने पर प्रमुखता से होनी चाहिये थी। मेरे सात अखबारों में आज यह सिर्फ इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर है। खरगे का कहा क्यों महत्वपूर्ण है और मेरी राय में क्यों पहले पन्ने पर होना चाहिये उसे बताने से ज्यादा जरूरी यह बताना है इसे छोड़कर आज के अखबारों की ज्यादार खबरें सरकारी प्रचार हैं या फिर विपक्ष को परेशान बदनाम करने के सरकारी उपायों का भाग। आगे पढ़कर आपको यकीन हो जायेगा कि सरकार अपने प्रचार और विपक्ष को बदनाम करने में यकीन करती है। दुर्भाग्य से अखबार उसका साथ देते लगते हैं। इसमें राहुल गांधी की न्याय यात्रा की खबर पहले पन्ने पर नहीं छपी है और तब भी नहीं है जब 25 को यात्रा के बंगाल में प्रवेश पर खबर थी कि ममता बनर्जी की एकला चलो की घोषणा के बाद राहुल यात्रा छोड़ दिल्ली लौटे।

दिल्ली लौटने का कारण यह था कि यात्रा में दो दिन का पूर्व घोषित ब्रेक लिया गया था जो 26 जनवरी की छुट्टी के कारण था। अखबारों को यह जरूरत या जिम्मेदारी नहीं लगी कि ब्रेक के बावजूद (या बाद) यात्रा जारी रहने की खबर दें। बंगाल में ममता बनर्जी के एकला चलो का यात्रा पर क्या असर हुआ या नीतिश कुमार के दल बदल पर राहुल गांधी ने कोई प्रतिक्रिया दी या नहीं। बिहार में क्या असर हो सकता है आदि। अखबारों में यह सब तो नहीं ही है सरकार के काम पर एक टिप्पणी आज इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर छपी है। वह या वैसी कोई खबर वर्षों से आम अखबारों में नहीं दिखी। खबर बताती है कि देश में कंसलटैंट का राज चल रहा है। सरकार के 44 विभागों में 1499 कंसलटैंट हैं जो बाहरी एजेंसियों के हैं। इनमें चार बड़ी कंसलटैंट फर्म तो हैं ही इनके 1499 कंसलटैंट सरकार के लिए काम कर रहे हैं। इनपर सभी विभाग मिलकर 302 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष खर्च करते हैं। अखबार ने आरटीआई के तहत प्राप्त आंकड़ों के आधार पर यह खबर दी है। अब आरटीआई के तहत सूचना नहीं दी जाती, मांगने पर सूचना देने वाला मना कर देता है और जोर दिया जाये तो सूचना मांगने के लिए जुर्माना लगा दिया गया है।

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इंडियन एक्सप्रेस की यह खबर दूसरे अखबारों में नहीं होगी, मैं उम्मीद भी नहीं करता क्योंकि यह उसकी अपनी यानी अपने रिपोर्टर श्याम लाल यादव की बाइलाइन वाली खबर है। अब ऐसे काम के लिए रिपोर्टर और ऐसी खबरें नजर नहीं आती हैं। दूसरी तरफ सरकारी प्रचार तो छोड़िये विपक्ष को बदनाम करने वाली खबरें भी प्रमुखता पा जाती है। वैसे भी, कंसलटैंट के काम की क्या रिपोर्टिंग। दूसरी ओर मंत्री जो करते हैं वह किसी से छिपा नहीं है। उसकी खबर छपे या नहीं, उनके खिलाफ ईडी और सीबीआई की कार्रवाई हो या नहीं। द हिन्दू में आज पहले पन्ने पर छपी खबर के अनुसार तमिलनाडु के डीजी पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि राज्य सरकार को हिन्दू विरोधी प्रचारित यानी पेंट करने की कोशिश की गई। सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका के अनुसार तमिलनाडु के मुख्य मंत्री एमके स्टालिन ने मौखिक आदेश दिया था कि 22 जनवरी को धार्मिक आयोजन के सीधे प्रसारण को प्रतिबंधित कर दिया जाये। मुझे याद है कि केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने भी इस आशय का ट्वीट किया था और ट्वीटर पर उस दिन काफी चर्चा रही। अब सुप्रीम कोर्ट में, मौखिक आदेश पर याचिका की सुनवाई हुई है पर खबर दूसरे अखबारों में पहले पन्ने पर इतनी प्रमुखता से नहीं दिखी।

द हिन्दू समेत हिन्दुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने की लीड की सूचना यही है कि झारखंड के मुख्यमंत्री फरार या लापता हैं। बेशक, कोई मुख्यमंत्री न मिले तो खबर है, ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) छापा मारने की जगह किसी को ढूंढ़ने लगे (बिना बताये किसी के घर जाएं तो नहीं होने की संभावना रहती ही है और इसका मतलब व्यक्ति का फरार या लापता होना नहीं है, भले ही घर पर मौजूद चौकीदार कहे कि उसे जानकारी नहीं है)। वैसे भी, झारखंड का मुख्यमंत्री रांची के अपने घर में न मिलें, ऑफिस में भी न हों तो खबर है। दिल्ली में उन्हें क्यों मिलना चाहिये? और नहीं मिलना खबर कैसे है? और अमर उजाला की खबर का शीर्षक देखिये, मुख्यमंत्री सोरेन की तलाश में ईडी के छापे, बीएमडब्ल्यू कार जब्त की, दिल्ली स्थित घर पर अफसर रात करीब 1030 बजे तक डटे रहे। यहां मुद्दा यह है कि झारखंड के मुख्यमंत्री को ईडी वाले दिल्ली में क्यों तलाश रहे हैं। पूछताछ के लिए समन पर नहीं आये तो आगे की कार्रवाई क्यों नहीं कर रही है और ऐसे में घर पर नहीं मिलने का प्रचार उन्हें बदनाम करना नहीं है?

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इस मामले मे जांच की इतनी जल्दी क्यों है? क्या नियमों में प्रावधान ही नहीं है कि मुख्यमंत्री को सामान्य तौर पर बुलाकर पूछताछ की जा सके। क्या इसके लिए लालू यादव की तरह पूर्व होने का इंतजार जरूरी है और अगर यह सब है तो असम के मुख्यमंत्री और कई दूसरे मामलों में इतनी गंभीरता क्यों नहीं है और जब कार्रवाई निष्पक्ष नहीं है तो अखबार के लिए सरकारी पक्ष बताना क्यों जरूरी है? क्या इन्हीं कारणों से खरगे प्रधानमंत्री के ‘पूर्व’ नहीं होने की बात कर रहे हैं? समझ में आये या नहीं, उसे प्रमुखता क्यों नहीं मिल रही है? कुल मिलाकर खबर अपने रंग-रूप और प्रकृति से ही सरकारी लगती है इसे इतना महत्व क्यों? इससे कौन का जनहित सध रहा है? वैसे भी आम आदमी को ढूंढ़ लेने वाली पुलिस जब तमाम अपराधों में वर्षों-वर्षों इंतजार करती है तो इस मामले में इतनी जल्दी क्यों है? क्या वे दफ्तर नहीं जायेंगे या पद छोड़कर विदेश जाने की आशंका है?

अगर है तो तब ये अधिकारी और नियम कहां थे जब कई लोग विदेश भाग गये। वहां की नागरिकता भी ले ली। पुलिस से कोई मुख्यमंत्री जो सुरक्षा में भी होता है कितनी देर बचेगा और ईडी से बचने की कोशिश कर रहा है यह खबर जरूर है लेकिन इससे बड़ी नहीं कि ऐसी हालत के लिए जिम्मेदार व्यवस्था को जनता ने फिर चुना तो चुनाव नहीं होंगे। यह आरोप तब लगाया गया है जब एक निर्वाचित मुख्यमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच के लिए एक सरकारी विभाग को मुख्यमंत्री के पीछे घूमना पड़ रहा है और सरकारी पार्टी के दूसरे मुख्यमंत्री के खिलाफ कार्रवाई ही नहीं है। एक उपमुख्यमंत्री सरकारी नीति बनाने में कथित भ्रष्टाचार के लिए महीनों से जेल में हैं। और झारखंड के मुख्यमंत्री की तलाश में, उन्हें विदेश भागने (की कथित आशंका) से रोकने के लिए क्या कुछ किया जा रहा है वह सब पहले पन्ने पर है। और सरकार अपने काम के प्रचार के लिए दावा कर रही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था 2030 तक सात ट्रिलियन डॉलर की हो जायेगी। पांच ट्रिलियन की होते-होते क्यों रह गई और उसके लिए कौन जिम्मेदार है या वह झूठ था उसपर कुछ नहीं। मीडिया उसपर लगभग शांत है।

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ऐसे में इंडियन एक्सप्रेस ने सरकारी खबर तो लीड बनाया है और फ्लैग शीर्षक में बताया है कि यह बजट से पहले की समीक्षा है। हालांकि, यहां शीर्षक भी अलग है। और पता चलता है कि देश की अर्थव्यवस्था के प्रधानमंत्री के बहुप्रचारित 5 ट्रिलियन के लक्ष्य को छूने में अभी तीन साल और लगेंगे। टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स में वही खबर है जो मुख्य आर्थिक सलाहकार ने तैयार करवाई है। द टेलीग्राफ में यह खबर लीड है लेकिन समीक्षा और चर्चा के अंदाज में – शीर्षक है, विकास लेकिन इसकी एक कल्पना भर ही। कुल मिलाकर, आज जब खरगे की चेतावनी महत्वपूर्ण है तब सरकारी प्रचार को प्रमुखता मिली है और किसी को कोई शिकायत नहीं है। इमरजेंसी में यही सरकार तय करती थी तो उसका विरोध किया गया था पर अब ऐसा लगता है कि संपादक को ही सेंसर अधिकारी बना दिया गया है।

आज के अखबारों में झारखंड के मुख्यमंत्री के खिलाफ छपी खबर अगर उन्हें बदनाम करने वाली है, सरकार के खिलाफ खबर नहीं छपी है तो यह भी छपा है कि ईडी ने लालू यादव से पूछताछ की। अमर उजाला में लालू यादव और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की खबर साथ-साथ बराबर में है और परीक्षा पे प्रधानमंत्री की चर्चा पहले पन्ने पर लीड है। देश की राजनीतिक स्थिति या भविष्यवाणी को पहले पन्ने पर नहीं छापने वाले अखबार ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कहे को सबसे प्रमुखता से छापा है, “बच्चों का रिपोर्ट कार्ड अभिभावक का विजिटिंग कार्ड नहीं है”। प्रधानमंत्री ना शिक्षक हैं, ना कभी बच्चों के अभिभावक रहे, खुद कहा है कि 12वीं के बाद घर छोड़ दिया था, मांग कर खाते थे आदि आदि। उनका सामान्य परिवार रहा ही नहीं। ऐसे में वे किस अनुभव और ज्ञान की बात करते हैं वे जानें, उन्हें सुनने वाले जानें और इसे खबर मानने-समझने वाले जानें पर इसे प्रमुखता देने का आधार मुझे नहीं समझ में आता है। मुझे यही पता है कि पहली बार प्रधानमंत्री बनने पर उन्होंने स्मृति ईरानी को शिक्षा मंत्री बनाया था और शिक्षा से मुझे उनका यही संबंध रेखांकित करने लायक लगता है पर वह अलग मु्दा है। बेशक यह उनका विशेषाधिकार है पर वे जो कहते हैं उससे जोड़ने पर जो लगता दिखता है वह खबर छापने वाले को क्यों नहीं दिखता है?

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आम आदमी को एंटायर पॉलिटिकल साइंस न समझ में आये तो चलेगा पर अखबार वालों को क्यों नहीं समझ में आता है और नहीं समझने वालों को ईनाम मिल जाता है तो उसपर संदेह क्यों नहीं होता है और ये सारे सवाल पत्रकारिता और खबरों के संबंध में हैं। खबर यह भी है कि लालू यादव की बेटी और राज्य सभा सदस्य मीसा ने कहा है, कोई भी देख सकता है कि कैसे मामला आगे बढ़ रहा है। कल सरकार बदली और केंद्रीय एजेंसियां आज ही पहुंचने लगीं। यह द टेलीग्राफ का आज का कोट है लेकिन लालू यादव से ईडी की पूछ ताछ की खबर के साथ नहीं है। लालू यादव पर भ्रष्टाचार के आरोप है, चारा घोटाले में उन्हें सजा भी हुई है लेकिन अब वे 75 साल के हैं और किडनी ट्रांसप्लांट की जानकारी सबको है। ऐसे में ईडी उनसे पूछताछ करके किस मामले की जांच कर रहा है? अगर सबूत हैं तो जेल भेजा जाये, उन्हें परेशान किये बगैर जो सबूत जुटाये जा सकते हैं जुटाये जाएं वरना पूछताछ में सहयोग नहीं करने का मतलब आगे परेशान करने का रास्ता खुला रखने के अलावा क्या हो सकता है? अगर जांच ही करनी है तो इस बात की जांच क्यों नहीं होनी चाहिये कि नीतिश कुमार किस कारण दल बदल कर लेते हैं और मायावती किन कारणों से अपनी राजनीति खराब करके पार्टी को लगभग खत्म करके भी भाजपा के साथ बनी हुई हैं। जहां तक जांच की बात है कोई डरकर चुप हो जाये तो उसे छोड़ दो जो विरोध करता रहे उसके खिलाफ जांच ही पूरी न हो तो खबर क्यों नहीं है?

सामान्य सी बात है कि कोई भी अपने खिलाफ सबूत क्यों देगा और अकाट्य सबूत नहीं हैं तो पूछताछ करने का क्या मतलब? परेशान करना क्यों नहीं है? आकाट्य सबूत हैं तो कोर्ट में पेश क्यों नहीं किये जा रहे हैं। वैसे भी इस उम्र में और इतने वर्षों बाद याद कितना रह जाता है। अगर पूछताछ ही करनी है तो हेमंत बिस्व सरमा से क्यों नहीं की जा रही है जो स्वस्थ और अपेक्षाकृत कम उम्र के हैं, मामला ताजा है और सरकार पर वाशिंग मशीन पार्टी होने का आरोप भी है। सरकार अगर दूसरों को बदनाम करने के लिए छापे मरवा सकती है तो हेमंत बिस्व सरमा या बृजभूषण सिंह जैसों के खिलाफ जांच नहीं होने से सरकार का पक्षपात दिखता है। अखबार अगर दोनों मामलों को बराबर महत्व दे रहे होते तो सरकार मनमानी नहीं कर पाती। पर अखबार प्रचारक की भूमिका में नजर आ रहे हैं और ज्यादातर मामलों में खबरों की प्रस्तुति वैसी होती है जैसे सरकारी सर्वेक्षण बताते हैं।

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