ओम थानवी-
हिंदी में ज्ञानी बहुत हैं। पर लेखन की दुनिया में भाषा, शैली, संयम, आत्मपरीक्षण की प्रेरणा कौन दे?
जयपुर के पास पुरानी आगरा रोड, नए जयपुर-दिल्ली मार्ग पर स्थित सुरम्य रिज़ॉर्ट कानोता कैम्प में चौथा “कथा-कहन” शिविर कल संपन्न हुआ। यह कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ की पहल है, जिसे चार साल पहले उन्होंने साहित्यअनुरागी बहादुरसिंह राठौड़ और अंशु कुलश्रेष्ठ के सहयोग से शुरू किया। अब यह एक नियमित सिलसिला बन चुका है, जहाँ गद्य-गल्प की अभिव्यक्ति पर गहन बात होती है।
मनीषा इसे कार्यशाला कहती हैं। इसका स्वरूप कुछ अज्ञेय के उन लेखक शिविरों जैसा है, जो अस्सी के दशक में उन्होंने वत्सल निधि की स्थापना के साथ शुरू किए। अनुभवी लेखक-आलोचकों और युवतर लेखकों का कुछ रोज़ के लिए कहीं एकांत प्रवास। उद्बोधन और विमर्श। मनीषाजी ने कार्यशाला के नाते नए लेखकों के लिए कथानक, कथोपकथन, भाषा-शैली आदि के प्रशिक्षण का प्रावधान भी रखा है।
कार्यशाला में इस बार कोई पचास संभागी शामिल रहे। अंतिम दिन अशोक वाजपेयी आए। उन्होंने अपने चिर-परिचित दिलचस्प अंदाज़ में प्रेमचंद, हजारीप्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, मिलान कुंदेरा, रेणु, निर्मल वर्मा, मनोहर श्याम जोशी आदि के हवालों से कथा-कहन की विपुल संभावनाओं की चर्चा की और सार्थक साहित्य-सृजन का मुतालबा भी।
आयोजन में नंद भारद्वाज, अलका सरावगी, अखिलेश, ‘आलोचना’ के संपादक संजीव कुमार, ‘हंस’ संपादक संजय सहाय, दुर्गाप्रसाद अग्रवाल, विनय कुमार, लक्ष्मी शर्मा, सीरज सक्सेना, प्रभात रंजन, अजंता देव, संजीव पालीवाल आदि से मुलाक़ात हुई। नामवर शायर शीन काफ़ निज़ाम से भी, जो एक मुशायरे की शाम वहाँ थे।
आमंत्रण था, पर शिविर में मैं तीन रोज़ ठहर नहीं सका; पहले दिन के शुभारंभ में अपनी बात ज़रूर कहकर आया। कि भाषा की पतली होती हालत की हम फ़िक्र करें और इस बात का तक़ाज़ा भी कि नाज़ुक दौर में लेखक समुदाय रचना में करे न करे, अभिव्यक्ति के इतने माध्यम हैं, कहीं तो उसकी चिंता और वक़्त के सरोकार मुखर नज़र आएँ।