बिहार की राजधानी पटना की खज़ांची रोड स्थित बिहार बंगाली एसोसिएशन के छोटे-से उमस भरे कमरे में बीते डेढ़ महीने से चहल-पहल बढ़ गई है. बिहार, बंगाल, लखनऊ, दिल्ली सहित देश के कई हिस्सों से यहां बधाई संदेश आ रहे हैं. लोग अपनी समस्याओं का पुलिंदा भी एसोसिएशन के दफ़्तर भेज रहे हैं. एसोसिएशन के सदस्य ये तय करने में माथा पच्ची कर रहे हैं कि भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों के मुद्दों को आगामी बिहार चुनावों में कैसे उठाया जाए. दरअसल ये पूरी कवायद और बधाई संदेश ‘बेहार हेराल्ड’ के लिए है. ‘बेहार हेराल्ड’ पटना से निकलने वाला 141 साल पुराना साप्ताहिक अंग्रेजी अख़बार है.
जमीन मालिकों यानी लैंड ओनर्स एसोसिएशन के सदस्य गुरु प्रसाद सेन ने 1874 में इस अखबार को शुरू किया था. गुरु प्रसाद सेन ढाका से आकर पटना में बसे थे. 110 साल यानी 1987 तक इस अखबार का प्रकाशन हुआ और इसके बाद आर्थिक दिक्कतों के चलते ये बंद हो गया. बिहार बंगाली एसोसिएशन ने इस अखबार को जुलाई, 2015 में फिर से शुरू किया है. शुरूआत में अखबार को सिर्फ 4 पन्ने का निकाला गया है. अखबार ने अपने दो अंकों के ज़रिए ही 700 ग्राहक बना लिए हैं.
अखबार का वितरण देख रहे बिश्वनाथ बताते हैं, “अभी हम 1000 प्रतियां छाप रहे हैं जो पूरी खप रही हैं. अखबार की प्रति और पन्नों की संख्या बढ़ाकर 8 करने की योजना है. फिलहाल हम कलकत्ता भी 50 प्रतियां भेज रहे हैं जहां से अब 100 और कॉपी की डिमांड आ गई है. दिल्ली और लखनऊ से भी अख़बार की मांग आ रही है.”
अखबार को दोबारा शुरू करने की जरूरत के सवाल पर बिहार बंगाली एसोसिएशन के अध्यक्ष दिलीप सिन्हा कहते हैं कि यहाँ सारे भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों में ये विचार आम हो गया है कि उनके मुद्दों को मेनस्ट्रीम अख़बार तरजीह नहीं देते. सिन्हा कहते हैं, “शिक्षा, रोजगार, आजादी के ये सारे सवाल बैक बेंचर हो गए हैं. ऐसे में हमें अपनी बात कहने के लिए मंच चाहिए.”
सेक्यूलरिज्म और डेमोक्रेसी की टैग लाइन के साथ शुरू हुए इस अखबार के शुरुआती दिनों के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है. लेकिन एसोसिएशन के आर्काइव में मौजूद 1922 के बाद के बेहार हेराल्ड को देखकर लगता है कि अखबार “ओपिनियन मेकर” का काम करता था. अखबार में स्वास्थ्य, शिक्षा, भाषाई, जमींदारी, सांप्रदायिकता सहित सामयिक मुद्दों पर संपादकीय खूब लिखे जाते थे. तो रोज़मर्रा की घटनाओं की भी रिपोर्टिंग होती थी.
नए कलेवर में आए बेहार हेराल्ड की संपादकीय टीम के विद्दुत पाल बताते हैं, “ उस वक्त अखबार का स्वर ना तो अंग्रेजों और ना ही आजादी पूर्व कांग्रेस के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है.” पाल कहते हैं, “अखबार किसी भी मसले पर एक ओपिनियन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था. यानी अखबार जो सच्चाई है वो जस का तस सामने ऱख कर समाज के ओपिनियन फॉरमेशन में मदद करता था.”
अखबार में उस वक्त आजादी के आंदोलनों से जुड़ने के लिए कारोबारी विज्ञापन देते थे तो कमर्शियल विज्ञापनों की भी भरमार थी. 1976 में अखबार के साथ बतौर एडवर्टीजमेंट मैनेजर के रूप में काम कर चुके बिश्वनाथ देव बताते हैं, “लोगों के बीच खासकर बंगालियों के बीच इसका क्रेज इस कदर था कि अगर अखबार उनके पास डाक से वक़्त पर ना पहुंचे तो वो सीधे एसोसिएशन के दफ्तर अखबार लेने पहुंच जाते थे.”
बिहार में तकरीबन 13 लाख बंगाली भाषी लोग रहते हैं. फिलहाल अख़बार के नए अंकों में बंगाली भाषियों के मुद्दों के अलावा सामयिक मुद्दों पर जोर है. एसोसिएशन ने दूसरे भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यक के संगठनों से भी संपर्क किया है. दूसरे संगठनों में भी इस बात को लेकर खुशी है. केरल से आए एडम कहते हैं, “हमको एलियन की तरह ट्रीटमेंट मिलता है. हमारी बात कोई नहीं सुनता, बस त्यौहार के मौके पर फोटो छप जाती है. उम्मीद है कि हमें भी आवाज़ मिलेगी.” (साभार- बीबीसी)