दिलीप मंडल-
बधाई। शुक्रिया एमके स्टैलिन। तमिलनाडु के मंदिरों में ग़ैर-ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति के बाद। त्रिची के प्रसिद्ध ऐतिहासिक वायलुर मुरुगन मंदिर के नए अब्राह्मण पुजारी एस. प्रभु और एस. जयबालन। एस. प्रभु के पिता दर्ज़ी हैं। पुजारी बनने के लिए दोनों ने ट्रेनिंग ली थी और परीक्षा पास की थी।
हिंदू मंदिरों में अब्राह्मण पुजारी बन रहे हैं। तमिलनाडु में इनको क़रीब एक लाख नौकरियाँ मिलेंगी।
बौद्ध लोगों को इसमें नहीं पड़ना चाहिए।
दलितों को बौद्ध बनाने का बाबा साहब का दिया प्रोजेक्ट उनके पास है। उस पर ध्यान देना चाहिए। 20 करोड़ दलितों में अभी 1 करोड़ भी बौद्ध नहीं बने हैं। जबकि ऐसा करने से रिज़र्वेशन पर भी कोई असर नहीं पड़ना है।
दलित बौद्ध बन गए और दूसरी तरफ़ मंदिरों पर ब्राह्मण नियंत्रण ख़त्म हो गया तो ब्राह्मणवाद ख़त्म।
कुछ लोग ज़्यादा ही क्रांति मचाए हुए हैं। कह रहे हैं कि ग़ैर ब्राह्मणों के पुजारी बनने से क्या होगा? इससे तो अंधविश्वास बढ़ेगा। ये सब छोड़कर क्रांति करनी चाहिए। लेकिन वे क्रांति कर नहीं रहे हैं।
इनको नज़र ही नहीं आ रहा है कि तमिलनाडु में 38,000 मंदिर सरकार के नियंत्रण में है। प्रति मंदिर तीन पुजारी के हिसाब से कम से कम एक लाख सरकारी नौकरियों का मामला है।
बाक़ी राज्यों ने भी तमिलनाडु से सीख लिया तो 15 से 20 लाख नौकरियाँ इसमें हैं।
ब्राह्मण समझ रहे हैं। विरोध कर रहे हैं। बाक़ी लोगों की क्या समस्या है? मैं बता रहा हूँ क्रांति नहीं होने वाली। इसे ही क्रांति मान लीजिए।
दलितों की अलग ही समस्या है। आपको बाबा साहब ने कहा है बौद्ध बनो। हिंदुओं के मंदिर में क्या हो रहा है, इससे आपको क्या मतलब। यहाँ तो आपको अपमान ही मिलना है। बौद्ध बनिए।
बाक़ी लोगों को पुजारी बिज़नेस में ज़ोर शोर से जुट जाना चाहिए।
पंकज मिश्रा-
महिलाओं का मंदिर में प्रवेश , मंदिर में दलित पुजारी की नियुक्ति , यह सब 19 वीं सदी के reform है जो अपनी आयु पूरी कर चुके है |
आज की तारीख में , यह सब प्रतीति में प्रोग्रेसिव परंतु सार में regressive steps है | ठीक उसी तरह जैसे मंदिर निर्माण का आंदोलन | दलित पुजारी , दलित चेतना का क्या उत्थान करेगा , वह तो खुद एक पूर्व – आधुनिक कर्मकांडों का प्रसार में अपनी मुक्ति समझ रहा … …
जहां तक रोजगार का सवाल है तो वह मंदिर मस्जिद गिरजा बनाने से भी पैदा ही होता है | ताजिया सिरवाने और कांवड़ यात्रा से भी उपजता ही है | तो क्या 21वीं सदी में इसकी वकालत की जाए ….
कहना यह कि किसी भी सत्ता के लिए ऐसे सुधार सबसे आसान और लोकप्रिय कदम है जिसे उठाने में उन्हें कोई खास आपत्ति नही होती … जैसे किसी समस्या की के समाधान के लिए उसे निर्मूल करने के बजाए , उसकेलिए कठोर कानून बनाना …. यह लोक लुभावन भी होता है परंतु असल में बेहद नुकसान देह … बलात्कारी को फांसी का कानून सबसे आसान है बनाना परंतु यह ब्लात्कार रोकने के बजाय बलात्कृत की हत्या ज्यादा सुनिश्चित करता है |
सबसे आसान काम होता है