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आदिवासियों व वनवासियों की बेदखली पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाने के साथ-साथ केंद्र और राज्य सरकारों को फटकारा

उच्चतम न्यायालय ने आदिवासियों और वनवासियों को भारी राहत देते हुए उन्हें फिलहाल जंगल से बेदखल नहीं करने का आदेश दिया है. उच्चतम न्यायालय ने 13 फरवरी के आदेश पर रोक लगाते हुए केंद्र और राज्य सरकार को फटकार लगायी और पूछा कि अब तक क्यों सोते रहे. जंगल की जमीन पर इन आदिवासियों और वनवासियों के दावे अधिकारियों ने अस्वीकार कर दिए थे. न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा और न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा की पीठ ने इन राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि वे वनवासियों के दावे अस्वीकार करने के लिए अपनायी गई प्रक्रिया के विवरण के साथ हलफनामे कोर्ट में दाखिल करें. पीठ इस मामले में अब 30 जुलाई को आगे सुनवाई करेगी.

यह फैसला उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र सरकार की ओर से आदिवासियों को जंगलों से हटाने के आदेश पर रोक लगाने के मामले में सुनवाई के दौरान दिया. दरअसल केन्द्र और गुजरात सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने जल्द सुनवाई के लिए मेंशन किया. इस पर उच्चतम न्यायालय ने गुरुवार को याचिका की सुनवाई करने को कहा था. गौरतलब है कि 13 फरवरी को जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस नवीन सिन्हा और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की पीठ ने 16 राज्यों के करीब 11.8 लाख आदिवासियों के जमीन पर कब्जे के दावों को खारिज करते हुए राज्य सरकारों को आदेश दिया था कि वे अपने कानूनों के मुताबिक जमीनें खाली कराएं. पीठ ने 16 राज्यों के मुख्य सचिवों को आदेश जारी कर कहा था कि वे 24 जुलाई से पहले हलफनामा दायर कर बताएं कि उन्होंने तय समय में जमीनें खाली क्यों नहीं कराईं.

केन्द्र सरकार ने 13 फरवरी के आदेश में सुधार का अनुरोध करते हुए कोर्ट से कहा कि अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून, 2016 लाभ देने संबंधी कानून है. क्योंकि ये लोग बेहद गरीब और निरक्षर हैं, जिन्हें अपने अधिकारों और कानूनी प्रक्रिया की जानकारी नहीं है, इसलिए इनकी मदद के लिए उदारता अपनाई जानी चाहिए. केंद्र सरकार ने कहा कि अधिनियम के तहत वास्तव में दावों का खारिज होना आदिवासियों को बेदखल करने का आधार नहीं है. अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसके आधार पर दावे के खारिज होने के बाद किसी को बेदखल किया जाए.

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गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय से मांग की थी कि 11.9 लाख वनवासी जनजातियों (एफडीएसटी) और अन्य पारंपरिक वनवासियों (ओटीएफडी) को जंगलों से निकालने के आदेश पर रोक लगाने संबंधी याचिका पर तुरंत सुनवाई करे. इन लोगों के जंगल में रहने के अधिकार से जुड़े दावों को राज्य सरकारों ने खारिज कर दिया था. इनमें वो लोग शामिल हैं जो ये सबूत नहीं दे पाए कि कम से कम तीन पीढ़ियों से भूमि उनके कब्जे में थी.

क्या है मामला
उच्चतम न्यायालय में राज्यों द्वारा दायर हलफनामों के अनुसार, वन अधिकार अधिनियम के तहत अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों द्वारा किए गए लगभग 11,72,931 (1.17 मिलियन) भूमि स्वामित्व के दावों को विभिन्न आधारों पर खारिज कर दिया गया है. इनमें वो लोग शामिल हैं जो ये सबूत नहीं दे पाए कि कम से कम तीन पीढ़ियों से भूमि उनके कब्जे में थी. ये कानून 31 दिसंबर 2005 से पहले कम से कम तीन पीढ़ियों तक वन भूमि पर रहने वालों को भूमि अधिकार देने का प्रावधान करता है. दावों की जांच जिला कलेक्टर की अध्यक्षता वाली समिति और वन विभाग के अधिकारियों के सदस्यों द्वारा की जाती है.

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आदिवासियों और वनवासियों की मध्य प्रदेश, कर्नाटक और ओडिशा में सबसे बड़ी संख्या है, जिसमें अनुसूचित जनजातियों और अन्य वनों के निवासियों (वन अधिकार कानून की मान्यता) अधिनियम, 2006 के तहत भारत भर के वनों में रहने वालों द्वारा प्रस्तुत भूमि स्वामित्व के कुल दावों का 20% शामिल है. संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार द्वारा भारतीय वन अधिनियम, 1927 के तहत वनवासियों के साथ किए गए ऐतिहासिक अन्याय को रद्द करने के लिए कानून बनाया गया था, जो पीढियों से रह रहे लोगों को भूमि पर “अतिक्रमण” करार देता था. उच्चतम न्यायालय ने विशेष रूप से 17 राज्यों के मुख्य सचिवों को निर्देश जारी किए थे कि उन सभी मामलों में जहां भूमि स्वामित्व के दावे खारिज कर दिए गए हैं उन्हें12 जुलाई, 2019 तक बेदखल किया जाए. ऐसे मामलों में जहां सत्यापन/ पुन: सत्यापन/ पुनर्विचार लंबित है, राज्य को चार महीने के भीतर प्रक्रिया पूरी करके रिपोर्ट प्रस्तुत की जाय.

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में अनुमानित 104 मिलियन आदिवासी हैं. लेकिन सिविल सोसाइटी समूहों का अनुमान है कि वन क्षेत्रों में 1,70,000 गांवों में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों और अन्य वनवासियों मिलाकर लगभग 200 मिलियन लोग हैं, जो भारत के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 22फीसद हिस्सा कवर करते हैं.

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राहुल का निर्देश
भूमि अधिग्रहण कानून पर सुप्रीम कोर्ट का 13 फरवरी को फैसला आने के बाद छतीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा था कि राज्य सरकार अपने स्तर से सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर पुनर्विचार याचिका डालेगी. उन्होंने कहा है कि राज्य सरकार आदिवासी और किसानों के हितों के साथ हमेशा खड़ी है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने हाल ही में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों को निर्देश दिया था कि राज्य अपने स्तर से आदिवासी हितों की रक्षा के लिए कदम उठाए. राहुल गांधी ने यह निर्देश भी दिया था कि वनाधिकार कानून की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट में अगली सुनवाई में राज्य सरकार अपनी ओर से अपना वकील खड़ा करे और जरूरत पड़े तो पुनर्विचार याचिका भी लगाये.चुनाव निकट होने के कर्ण सम्भावित नुकसान से बचने के लिए मोदी सरकार ने स्वयं पहल की.इसके साथ गुजरात की भाजपा सरकार ने भी पुनर्विचार याचिका डाली थी.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भूमि अधिग्रहण कानून और संबंधित नियमों को लेकर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ, छतीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पत्र लिखा था. इस पत्र में उन्होंने भूमि अधिग्रहण कानून के उन बदलावों को पहले की तरह करने को कहा, जो पिछली भाजपा सरकारों ने किए थे.

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लेखक जेपी सिंह इलाहाबाद के वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ-साथ कानूनी मामलों के जानकार भी हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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