प्रदीप कुमार–
ताज़ी हवा के बाद
अज्ञेय जी के संपादक बनने पर कार्यालय से लेकर बाहर तक ताज़ी हवा का झोंका महसूस किया गया था। उनके आने और जाने, दोनों के पीछे राजनीतिक कारण थे। विशेष संवाददाता रह चुके आनंद जैन युवावस्था में कम्युनिस्ट रहे थे। कांग्रेस के नेताओं में उनका अच्छा रसूख था। साहू- जैन परिवार तक पहुंच भी थी। संघ परिवारियों को बिलकुल पसंद नहीं करते थे। कुल मिलाकर प्रगतिशील सांचे में फिट बैठने वाले आनंद जैन के संपादक बनने से कार्यालय में खुशी की लहर जैसी दौड़ गई। सहयोगी उनके आने से पहले ही कहने लगे थे,अपने बीच का कोई संपादक बना है। समाचार ब्यूरो के लोग विशेष रूप से प्रसन्न थे। स्टाफ से परिचय के दौरान मैंने महसूस किया था कि लंबे और भरे शरीर के नए संपादक आतंकित नहीं करते थे। बौद्धिकता के आभामंडल से वह रहित थे। आनंद जी के प्रारंभिक दिनों में मेरा छह महीने का प्रोबेशन पूरा हो रहा था। उन्होंने मुझे बुलाकर एक फाइल दिखाते हुए कहा था- ‘मैं आप को कनफर्म कर रहा हूं।’
अरसा बाद मुझे मालूम हुआ था कि प्रगतिशील सोच वाले मुख्य उपसंपादक जयदत्त पंत से उन्होंने मेरे बारे में राय मांगी थी। पंत जी ने उनसे कहा था- ‘ कामरेड है, आंख मूंदकर कनफर्म कर दीजिए।’ पंत जी बताया था-‘ अगर तुम संघी होते तो नौकरी न बचती।’ अज्ञेय जी के साथ ही जोशी भी चले गए थे। शानी जी काम करने के इच्छुक थे मगर आनंद जी ने उन्हें कनफर्म करने से इंकार कर दिया था। इसके कारण जो भी रहे हों।अज्ञेय जी के रहते स्टाफ के कई लोग शानी जी से मिलने और बात करने के लिए लालायित रहते थे मगर आफिस छोड़ने के दिन सिर्फ इब्बार रब्बी और मैं उन्हें विदा करने गए थे। बाद में शानी जी को कहते हुए सुना गया था- ‘ मुसलमान होने के कारण मेरी नौकरी गई। ‘ आनंद जी और जो कुछ भी रहे हों मगर मुसलमान विरोधी कतई नहीं थे। पंत जी ने उसी दिन ज़ोर देकर कहा था कि आनंद जैन मुस्लिम विरोधी बिलकुल नहीं हैं। कई दशकों से आनंद जैन के घनिष्ठ रूप से परिचित जानेमाने वरिष्ठ पत्रकार गिरीश माथुर ने भी यही बात कही थी। उधर सहायक संपादक पद पर कार्यरत और तीन बार लोकसभा के सदस्य और उप मंत्री रह चुके प्रोफेसर सिद्धेश्वर प्रसाद खुद शालीनता से पद छोड़कर चले गए थे।
पुराने स्टाफर होने के नाते आनंद जी वरिष्ठता क्रम के सजग प्रहरी थे। अज्ञेय जी के काल में वरिष्ठ पदों पर आए लोगों के खिलाफ स्टाफ में प्रतिरोध का भाव तो था ही। मुझे और दो-तीन रिपोर्टरों को छोड़कर बाकी सभी पुराने थे। वरिष्ठता से उनका भावनात्मक लगाव इस सीमा तक था कि ‘ मसि कागद छुयो नहीं ‘ की श्रेणी में आने वाले सहयोगियों से भी नियमित रूप से लेख लिखवाने लगे थे। बाहर के किसी व्यक्ति ने शायद ही कभी लिखा हो। मेरे जैसे, उप संपादक स्तर के लेखकों के लिए संपादकीय पेज प्रतिबंधित था।एक बार न जाने किन कारणों से वह जनता पार्टी में ‘ जूतों दाल बंट रही ‘ की राजनीति,खास तौर से आरएसएस की तिकड़मों पर लेख लिखवाना चाहते थे। गिरीश माथुर ने इस आधार पर लिखने से मना कर दिया था कि वह ‘ ब्लिट्ज़ ‘ के स्टाफर थे। उन्होंने मुझसे लिखवाने की सलाह दी। लेख न छपने की वजह से नाराज होकर मैंने विनम्रता से कहा था,’ जो आप लिखवाना चाहते हैं,उसके लिए दो लेख चाहिए। ‘ उन्होंने लेखों की तारीफ करते हुए पूछा था, ‘नाम क्यों नहीं दिया?गुरु डर रहे हो क्या? ‘ मैंने कहा, ‘आप नियमित रूप से लिखवाएंगे तो नाम से लिखूंगा।’ इसके लिए वह तैयार नहीं हुए। वे लेख फिर छ्द्म नाम से प्रकाशित हुए ।
आनंद जी घोषित तौर पर संघ विरोधी ‘ प्रगतिशील ‘ खेमे के थे। पाकिस्तान -अमेरिका- चीन की संयुक्त साजिश को नाकाम और पीडीपी ( पीपल्स डेमोक्रैटिक पार्टी ) के नेतृत्व में हुई वामपंथी क्रांति की रक्षा करने के लिए अफगानिस्तान में सोवियत सैनिक प्रवेश का वह आपसी बातचीत में समर्थन करते थे। रात की ड्यूटी में मैं खबरों के साथ खेल कर लिया करता था। कभी-कभी सोवियत साप्ताहिक ‘ न्यू टाइम्स ‘ में छपी रिपोर्टों के आधार पर समाचार- विश्लेषण बना देता था। आनंद जी की नज़रों से ये सब ओझल नहीं था।एक बार उन्होंने कहा भी -‘ गुरु खेल अच्छा करते हो।’ लेकिन दो घटनाओं से मेरा माथा ठनका। लंदन के प्रतिष्ठित पर रूढ़िवादी साप्ताहिक ‘इकनामिस्ट’ में अफगान युद्ध पर एक रिपोर्ट प्रमुखता से छपी थी, जिसका सार था: सोवियत संघ अफगानिस्तान के वाखन गलियारे पर कब्जा करना चाहता है। इससे आगे बढ़कर वह जाड़े में न जमने वाले अरब सागर तक पहुंच सकता है। दरअसल यह भारत में भय को पैदा करने की कोशिश थी,जिससे ग्रस्त होकर उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता ने साम्राज्यवादी रूस के खिलाफ ‘ द ग्रेट गेम ‘ शुरू किया था। न तो चरण सिंह की कामचलाऊ सरकार ने और न चुनाव जीत कर प्रधानमंत्री बनीं इन्दिरा गांधी ने अफगानिस्तान में सोवियत सैनिक हस्तक्षेप का समर्थन किया था। साथ ही विदेश मंत्रालय और राजनीतिक हल्कों में यह राय प्रबल थी कि भारत को सोवियत विरोधी खेमे से भी दूर रहना चाहिए। नई दिल्ली में सक्रिय अमेरिका समर्थक लाबी अवश्य पाकिस्तान की तरह भारत को भी ‘ फ्रंट लाइन स्टेट ‘ बनाने पर तुली हुई थी। आए दिन इंडिया इंटेरनेशनल सेंटर, मावलंकर हाल और अन्य स्थानों पर सोवियत विरोधी सेमिनार होते थे।
आनंद जी ने ‘इकनामिस्ट ‘की उस रिपोर्ट को अपने हाथ से मुख्य उपसंपादक को लाकर दिया था,जो अगले दिन पहले पेज पर आठ कालम एंकर के रूप में छपी। आफिस की लाइब्रेरी में ‘ वाशिंगटन पोस्ट ‘ नहीं आता था। आनंद जी ने उसमें छपी एक सोवियत विरोधी रिपोर्ट भी प्रमुखता से पीछे के पेज पर छपवाई थी। बीच-बीच में इस तरह की ‘ विशेष रिपोर्टें ‘ नभाटा में छपती थीं। दो साल पूरे होने के कुछ हफ्ते पहले आनंद जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ दो- तीखे लेख लिखे । पंत जी और मेरे सामने आकर उन्होंने पूछा- ‘ पढ़ा आप लोगों ने ? इसे कहते हैं धारदार लेखन।’ पंत जी ने कहा था,’ धारदार तो है पर आप को लिखना नहीं चाहिए था।’ यह सुनकर वह अपने चैंबर में चले गए थे। पंत जी मेरी प्रतिक्रिया जानना चाहते थे। मैंने कहा था,यह लेख -श्रृंखला इनके ताबूत में आखिरी कील साबित होगी। उप संपादक और संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता रत्नसिंह शांडिल्य ने भी उसी दिन कहा था- ‘खेल हो गया।’ दो साल पूरे होने से तीन दिन पहले ही आनंद जी ने आफिस आना बंद कर दिया।
लंबे समय तक दिल्ली में राजनीतिक संवाददाता रहे आनंद जैन संघ की गहरी पैठ का अंदाज़ा नहीं लगा पाए थे। उन्हें गलतफहमी थी कि कांग्रेस की सरकार में उन पर घातक प्रहार नहीं होगा। उनका कार्यकाल श्रीहीन रहा। करीब डेढ़ साल बाद वह मालिकों से निकटता के बूते उसी माले पर, कमरा नंबर चार ( नभाटा के संपादक का चैंबर) से 40 फुट दूर बने सहयोगी प्रकाशन ‘ सांध्य टाइम्स ‘ के अस्थायी चैंबर में संपादक बनकर लौटे थे।