रवीश कुमार-
यूपी के नौजवानों के लिए खुशखबरी। उनके मन मुताबिक़ चुनाव का टोन सेट हो रहा है। क्या वाक़ई जनता अब इसी तरह से राजनीति को समझती है कि नेता धर्म और मंदिर का नाम लेंगे उसे बिना सवाल जवाब के स्वीकार कर लेगी ? इतने दम ख़म से रोज़गार और अस्पताल को लेकर क्यों नहीं बोलते?
हिन्दुस्तान, जागरण और भास्कर में कैसे छप रहा है, पढ़ने वाले ही बता सकते हैं। मैं अमर उजाला इन दिनों पढ़ रहा हूँ ।
मैं कई दिनों से देख रहा हूँ कि अख़बारों में भाजपा की हर रैली और बयान को मोटे अक्षरों और ज़्यादा जगह में छापा जा रहा है।अखिलेश यादव की रैली को छोटे अक्षरों और छोटी जगह में छापा जाता है।
अमर उजाला में मैंने शायद ही देखा हो कि विपक्ष को जगह मिलती हो। नाम के लिए कुछ छाप दिया जाता है। सपा की खबरों में केवल अखिलेश की होती है वो भी मामूली सा लेकिन योगी मोदी और शाह के अलावा बीजेपी के हर दूसरे नेता को कवर किया जा रहा है। उनकी एक ही बात को रोज़ हेडलाइन बनाई जा रही है। उसमें नया कुछ नहीं है । ऐसा लगता है कि आदेश मिला हो कि योगी मोदी या शाह कुछ भी बोलें राम मंदिर और हिन्दू हिन्दू की हेडलाइन बनानी है।
विपक्ष के नेता कार्यकर्ता और समर्थक से मेरा एक सवाल है वे अपनी जेब से दो रुपये देकर लोकतंत्र की हत्या कर रहे इन अख़बारों को क्यों ख़रीदते हैं ? क्या वे भी लोकतंत्र की हत्या में शामिल में हैं ? विपक्षी दलों को हर दिन अख़बारों की समीक्षा करनी चाहिए और रैली में अख़बार लेकर जनता को फ़र्क़ बताना चाहिए। उन्हें इन अख़बारों से भी लड़ना होगा और उसका तरीक़ा यही है कि हर रैली में अख़बारों को लेकर दस मिनट का भाषण दें और हो सके तो वहीं फाड़ दें। विपक्ष को ‘अख़बार फाड़ो’ का लोकतांत्रिक आंदोलन चलाना चाहिए।