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उत्तर प्रदेश

अखिलेश विरोधियों को बदलना पड़ेगा सियासी चोला

संजय सक्सेना, लखनऊ

उत्तर प्रदेश की सियासत में कभी नेताजी मुलायम सिंह यादव धूमकेतू की तरह से थे। उनके बगैर यूपी की सियासत की कल्पना नहीं की जा सकती थी। यूपी के रण में मुलायम ने बड़े-बड़ो को पटकनी दी। कांग्रेस हो या बीजेपी कोई उनके धोबिया दांव से बच नहीं पाया। भले ही मुलायम को बसपा सुप्रीमों मायावती से जरूर टक्कर मिलती रही, लेकिन सियासी कद में मामले में बसपा सुप्रीमों मायावती, नेताजी से हमेशा कोसो दूर नजर आईं। लम्बे समय तक मुलायम प्रदेश और राष्ट्रीय राजनीति तक में छाये रहे।

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संजय सक्सेना, लखनऊ

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उत्तर प्रदेश की सियासत में कभी नेताजी मुलायम सिंह यादव धूमकेतू की तरह से थे। उनके बगैर यूपी की सियासत की कल्पना नहीं की जा सकती थी। यूपी के रण में मुलायम ने बड़े-बड़ो को पटकनी दी। कांग्रेस हो या बीजेपी कोई उनके धोबिया दांव से बच नहीं पाया। भले ही मुलायम को बसपा सुप्रीमों मायावती से जरूर टक्कर मिलती रही, लेकिन सियासी कद में मामले में बसपा सुप्रीमों मायावती, नेताजी से हमेशा कोसो दूर नजर आईं। लम्बे समय तक मुलायम प्रदेश और राष्ट्रीय राजनीति तक में छाये रहे।

प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गये, तो तीन बार यूपी के सीएम बने। मायावती का उभार तब हुआ जब कांग्रेस और बीजेपी को मुलायम लगभग लगभग किनारे लगा चुके थे। माया के सामने कभी भी कांग्रेस और 2014 से पहले तक बीजेपी कोई खास चुनौती नहीं खड़ी कर सकीं, लेकिन अब ऐसा नहीं रहा। आज की तारीख में मुलायम और माया दोंनो की राजनीति हासिये पर चली गई है। मायावती सियासी रूप से कमजोर हो गई हैं तो मुलायम सिंह बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य कारणों से सियासत में अप्रसांगिक हो गये हैं। यह बात अखिलेश यादव ने काफी पहले समझ ली थी, अब समय आ गया है कि अखिलेश से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले उनके चचा शिवपाल यादव और छोटे भाई प्रतीक की बहू अर्पणा यादव भी अपने दिमाग में बैठा लें कि वह लोग अब शायद ही कभी मुलायम के सहारे सियासत की सीढ़िया चढ़ सकें। अखिलेश ठीक कहते हैं मुलायम को अध्यक्ष बनाने का समय अब गुजर चुका है।

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यह सच है कि सामाजिक बंधन की वजह से अखिलेश नेताजी के स्वास्थ्य के बारे में खुल कर कोई बयान नहीं दे पा रहें हैं, लेकिन मुलायम का अजीबो-गरीब व्यवहार तो यही दर्शाता है कि उनके साथ सब कुछ ठीकठाक नहीं चल रहा है। नेताजी को यही नहीं याद रहता है कि उन्होंने कल क्या कहा था और आज क्या कह रहे हैं,कल किसके साथ बैठे थे और आज किसके साथ खड़े हैं ? जबकि सियासत में आज की नहीं वर्षो पुरानी बातें याद रखना पड़ती है। मुलायम के ऊपर बढ़ती उम्र का प्रभाव साफ नजर आ रहा है, यह बात उनके करीबी भी मानते हैं मीडिया में जो रिपोर्टे आ रही हैं,वह भी यही दर्शाती हैं।

समय आ गया है कि अखिलेश के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले शिवपाल और अर्पणा जैसे तमाम नेतागण नेताजी की सियासी जमीन के सहारे अखिलेश को घेरने के बजाये स्वयं उनके सामने मजबूत विकल्प बन कर खड़े हों। बात मुलायम की अस्वस्थता की छोड़ भी दी जाये तब भी, अखिलेश के खिलाफ मुलायम को कभी मजबूत हथियार बनाया ही नहीं जा सकता है, यह बात समझना कोई बड़ी बात नहीं है। आखिर बाप-बेटे के रिश्ते में जितनी भी दरार आ जाये, लेकिन हाथ की लकीरें और खून के रिश्ते कभी जुदा नहीं होते हैं। अखिलेश की रगों में मुलायम का ही खून दौड़ रहा है। इसी लिये मुलायम एक दिन अखिलेश के लिये कड़वा बोल देते हैं तो दूसरे दिन उन्हें अपनी गलती का अहसास हो जाता हैं। पिता की तरफ से ही नहीं बेटे अखिलेश की तरफ से भी पुत्र धर्म निभाया जा रहा है। अखिलेश का बार-बार यह कहनां कि नेताजी उनके पिता हैं। हर पिता अपने बेटे को डांटता है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। उनके विरोधियों को आईना दिखाने के लिये बहुत है।

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लब्बोलुआब यह है कि अब न तो अपर्णा यादव को इस मुगालते में रहना चाहिए कि अखिलेश भैया को पिताजी के लिये राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़ देना चाहिए। चचा शिवपाल या उनकी जैसी सोच रखने वालों को भी यह बात समझना होगा। विरोधाभास देखिये अपर्णा एक तरफ तो उम्मीद करती हैं कि अखिलेश पिता जी के लिये पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष पद छोड़ दें,वही वह अखिलेश को चिढ़ाने के लिये योगी की तारीफ करती हैं। उन्होंने योगी सरकार की तारीफ करते हुए रीजनल पार्टियों को हिटलर की तरह बताया। हिटलर का इशारा किस पर किया जा रहा था,यह सब जानते हैं।

चचा शिवपाल सिंह यादव तो समाजवादी सेक्युलर मोर्चे की रूपरेखा तक तैयार करने में लग गये हैं,उनके अनुसार मुलायम सिंह यादव इस मोर्चे के अध्यक्ष बनने को तैयार हैं। बकोल शिवपाल, नेताजी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है। मगर नेताजी को यही नहीं पता है कि उनकी इस संबंध में शिवपाल से कोई बात भी हुई है। वह तो यहां तक कहते हैं शिवपाल ने ऐसी बात गुस्से में कह दी होगी।

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वैसे यह सिलसिला लम्बा चल रहा है। मुलायम दो नाव पर सवारी करते नजर आ रहे हैं दिमाग से वह शिवपाल तो दिल से अखिलेश यादव के साथ नजर आ रहे हैं। इसी लिये उनके बयानों में परस्पर बदलाव भी देखने को मिलता है। उनके परस्पर विरोधी बयानों को देखा जाये तो एक दिन वह कहते हैं कि तीन बार बुलाया मगर अखिलेश ने मेरी बात नहीं सुनी। मैं लड़ने के लिए तैयार हूं। दूसरे दिन कहते हें कि मेरा आशीर्वाद अखिलेश के साथ है, जितना किया जा सकता था, उसने किया। एक दिन कहते हैं कि हम कांग्रेस के साथ गठबंधन के खिलाफ हैं। प्रचार नहीं करेंगे। दूसरे दिन कहते हैं अब गठबंधन कर लिया तो कर लिया, हम प्रचार करेंगे। गठबंधन को आशीर्वाद भी देंगे। एक दिन कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने सही कहा था कि जो बाप का न हुआ वह आपका क्या होगा। मेरा बेटा ही मेरे खिलाफ था। फिर कहते हैं अखिलेश ने अच्छा काम किया,लेकिन कांग्रेस से गठबंधन के चलते हार हुई। इस तरह के बयान यही दर्शाते हैं कि मुलायम अपने दिलो-दिमाग पर नियंत्रण नहीं रख पा रहे हैं।

लेखक संजय सक्सेना लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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