जब विशेश्वर कुमार ने अमर उजाला में मुझे क्राइम रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी दी…

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Shailesh Awasthi-
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क्राइम रिपोर्टिंग…. एक चुनौती : जुलाई 1993 में “अमर उजाला” कानपुर जॉइन किया तो कुछ महीनों बाद वहां विशेश्वर कुमार रिपोर्टिंग टीम के इंचार्ज बनकर आ गए। वह मेरठ “दैनिक जागरण” से आए थे और उनकी गिनती धाकड़ रिपोर्टरों में थी। कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझे शिक्षा बीट से हटा कर क्राइम बीट की ज़िम्मेदारी सौंप दी।

इसके पहले अनूप वाजपेयी क्राइम रिपोर्टिंग करते थे, उनकी गिनती धाकड़, काबिल और मेहनती रिपोर्टर में थी। उनका इतना जबरदस्त नेटवर्क था की कानपुर में अपराध की खबरें उनके पास सबसे पहले पहुंचती थीं। उधर प्रतिद्वंद्वी अखबार “जागरण” के सरस वाजपेयी के सूत्र हर तरफ थे और उनसे कोई खबर छूटना मुश्किल था। स्वतंत्र भारत से सुरेश त्रिवेदी, सुनील गुप्ता और आज अखबार से उमेश शुक्ला जैसे धुरंधर क्राइम रिपोर्टर थे, जिनसे मुकाबला आसान नहीं था।

एक और महत्वपूर्ण कड़ी थे स्वतंत्र चेतना और सियासत अखबार के सतीन्द्र वाजपेयी “चच्चू”…इनके अस्पतालों और पोस्टमार्टम हाउस में ऐसे सूत्र थे, जो रात 2 बजे तक वहीं डटे रहते और ख़बर उन तक पहुंचाते।

क्राइम रिपोर्टिंग में मेरा कोई अनुभव नहीं था। विशेश्वसर जी ने हौसला बढ़ाया, अनूप वाजपेयी ने सहयोग किया। मैंने चुनौती स्वीकार की और डट गया। सुबह 10 बजे घर से निकलता, ऑफिस में मीटिंग के बाद अस्पतालों और पोस्टमार्टम हाउस होता हुआ पुलिस ऑफिस पहुँचता। इस बीच कोई वारदात हो जाती तो मौके पर जाता। रात 2 बजे घर पहुँचता। उस दौर में न तो मोबाइल फ़ोन था और न ही सोशल मीडिया…इसके बावजूद कोई खबर नहीं छूटती। मैंने ट्रेंड से हटकर सीआईडी, विजलेंस, अपराध रिकार्ड ब्यूरो, एलआईयू और इंटेलिजेंस दफ्तर से स्टोरी निकलना शुरू किया। किसी गैंग के अन्दरखाने घुस कर जोखिम में अपने को डालकर खबरें निकलता।

“पुलिस के हाथ से ज्यादा लंबे हैं बिलैया के खूनी पंजे”…”कॉलगर्ल रैकेट में शहर के पांच दारोगा”…डाकू निर्भय ने पुलिस को डरा दिया”….शहर आतंकियों का पसंदीदा ठिकाना”…मोतीझील के झुरमुट में डैडी का क्लब”…”जेल में नफीस की आशिकी बबली से”….”स्मैक के धंधे की महारानी नफीसा”….”पूरा कुनबा स्मैक के धंधे में”….गैंगेस्टर श्रीप्रकाश शुक्ला की महबूबा कानपुर में”….चुटियाधारी रामशिरोमणि पांडे डंडा पांडे बनकर लौटे”….”हथियारों की तस्करी में काजल और बबली”….लाइन हाजिर सिपाहियों का जीवन”….”कुर्सी के हत्थे से कार्बाइन की मरम्मत”….जैसी खबरे खूब चर्चित रहीं।

कभी अंडरवर्ड से धमकी मिली तो पुलिस की, कई बार पाठकों, पुलिस अफसरों और अपने वरिष्ठों से प्रसंशा से प्राप्त हुई।

1996-97 का वाक्या है कि शातिर बदमाश अशोक व्यास और टीकाराम ने फजलगंज और नजीराबाद थाने पर ताबड़तोड़ बम चला दिए। नवनीत राणा नार्थ तो सतेंद्रवीर सिंह साउथ सिटी के एसपी थे, एसएसपी थे एसएन सिंह, जो अपनी ईमानदारी और तेज़ी के लिए पक्का साहब नाम से विख्यात थे। सबने मिलकर इन बदमाशों की खोज शुरू की, राणा और सिंह में होड़ मची। हम सभी अखबारों के रिपोर्टरों ने अपराधियो के खिलाफ अभियान चला दिया। आख़िरकार एक हफ्ते के भीतर दोनों बदमाश किदवईनगर इलाके में मार गिराए गए।

ग्वालटोली में शातिर आरिफ चौड़ा का एनकाउंटर रात 2.30 पर हुआ, हम मौके पर पहुंचे और खबर छपी। “आज” अखबार से उमेश शुक्ला के साथ राममहेश मिश्र भी मौजूद थे, इस तरह मौक़े पर रिपोर्टिंग का अलग पंच था। कुछ महीने बाद जागरण से दुर्गेन्दर चौहान क्राइम बीट में आ गए और फिर हमारी जोड़ी मशहूर हो गई। कभी-कभी तो एक ही स्कूटर पर हम स्पॉट पर पहुंचते। अलग-अलग प्रतिद्वंद्वी अखबार में होते हुए तगड़े दोस्त रहे। यह अलग बात है खबरों का एंगल और एक्सक्यूसिव स्टोरी कभी किसी से शेयर नहीं करते थे।

अस्पताल और पोस्टमार्टम हाउस की खबरों में अनूप गैरोला और आनंद मिश्रा का सहयोग हम कभी नहीं भूल सकते। कई साल की क्राइम रेपोर्टिग के दौरान आर.के.एस. राठौर, रतन श्रीवास्तव, नवनीत राणा, संजय तरडे, ए. के.सिंह, हरीश कुमार, सत्येन्द्रवीर सिंह, रामलाल, अनंतदेव, उमेश कुमार सिंह, सतीश गणेश, जैसे एसपी कानपुर में देखे, जिनसे अपराधी थर-थर कांपते थे। किसी की हिम्मत नहीं थी जो किसी अपराधी की इनसे सिफारिश कर दे। ये सभी तरक्की पाकर डीआईजी और आईजी बने।

प्रवीण सिंह, एकेडी द्विवेदी जैसे एसएसपी का जलवा रहा। एसएन सांभल और एके मित्रा जैसे आईजी जनता के लिए 24 घंटे उपलब्ध रहते थे। बीएस गरबब्याल, आरके सिंह, रामशिरोमणि पांडे, शशि भूषण सिंह, एके सिंह, एसके तेवतिया, एके शर्मा, सतीश गौतम, त्रिपुरारी पांडे, ऋषीकांत शुक्ला जैसे थानेदारों से अपराधी कांपते थे।

जब कानपुर “अमर उजाला” में शम्भूनाथ शुक्ला संपादक थे, तब चंबल के बीहड़ों में डकैतों का जबरदस्त आतंक था। वह खुद मेरे और फोटोग्राफर शैलेन्द्र द्विवेदी के साथ बीहड़ों में जोखिमभरी रिपोर्टिंग पर गए थे। वहां तैनात पुलिसवालों ने हमे मना किया पर हम नहीं माने। निर्भय गुर्जर, सलीम, जगजीवन परिहार जैसे कुख्यात डकैतों के गांव तक गए। साक्षात्कार किया, गांव वालों की तकलीफें सुनीं और विस्तार से प्रकाशित किया।

शम्भूनाथ शुक्ला जी ने जिस तरह हमे गाइड किया और डर खत्म किया, इससे हममें आत्मविश्वास बढ़ा। वह खुद भी खबरें लिखते और पूरी टीम की प्रोत्साहित करते। फिर डकैतों के खिलाफ सरकार के निर्देश पर पुलिस ने अभियान चलाया और कई मारे गए। हम पत्रकार अलग-अलग अखबारों में भले रहे हों, लेकिन आपस में एक-,दूसरे का बहुत सम्मान करते। वरिष्ठों की बात टालने का सवाल ही नहीं। एकता की वजह से अधिकारी भी सजग रहते।

बाद में पेजर और फिर मोबाइल आ गया तो छोटी घटनाओं में मौके पर जाना कम हो गया। क्राइम रिपोर्टर का अपना अलग जलवा होता। इसके बाद सर्वेश मिश्रा, विनय गुप्ता, मनीष निगम, हैदर नकवी, सौरभ, प्रदीप अवस्थी, संजय त्रिपाठी, विवेक त्रिपाठी ने अपराध रिपोर्टिंग में बढ़कर मानक गढ़े। संजय त्रिपाठी की “हीरापंथी”….रिपोर्ट ने तहलका मचा दिया था।

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