पत्नी के गहने बेचकर शुरू किया था ‘अपनी राज्यसत्ता’ पत्रिका!

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Shailesh Awasthi-
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कानपुर में “दैनिक गणेश” अखबार बंद हुआ तो मैं कोई एक साल तक बेरोजगार रहा। शादी हो चुकी थी, जेब खाली, पत्नी से कैसे कहूं कि अपन न तो तुम्हें घुमा सकते और न ही कुछ तुम्हारे लिए कुछ खरीद सकते। लेकिन वह मेरी मनोदशा समझती थी तो न कभी ख्वाहिश पेश की और न ही कोई ज़िद।

शादी के बाद पहली होली और पास एक धेला नहीं….उस रात आंगन में लेटा, आंखे आंसुओं से तर-बतर, कैसे रंग लाऊं, कैसे मिठाई, कैसे पत्नी को उपहार दूं और कैसे ज़िन्दगी में रंग भरूँ। आसमान में चांद और सितारों को अपनी व्यथा बता रहा था, उस रात चांदनी भी मेरे तरुण मन को बिल्कुल नहीं भा रही थी, ख्याल में था कि सवेरा ही न हो, होली ही न हो, इस रंगहीन जीवन का क्या करूँ….।

तभी पत्नी आई और मेरे चेहरे को पढ़ कर हौसला बढ़ाया। बोली ये गहने मेरे किसी काम के नहीं, मुझे पहनना पसंद भी नहीं, ये लो और कोई काम शुरू करो, हमे भरोसा है तुम्हारी कामयाबी का।

मुनव्वर राना का पंक्तियां याद आ गईं…”मेरी मजबूरी बेजान चीजें भी समझतीं हैं, गले से जब उतरता है तो जेवर कुछ नहीं कहता”…।

सुबह उठा और नई स्फूर्ति के साथ चिंतन शुरू किया। तय किया कि अपनी पत्रिका निकलूंगा। शीर्षक के लिए अप्लाई किया और 15 दिन में ही जवाब के साथ पत्रिका का नाम आ गया..”अपनी राज्यसत्ता”…। तैयारी में जुट गया, अपने पत्रकार मित्रों से न्यूज़ आइटम और लेखों का सहयोग लिया।

एक महीने की कवायद के बाद अगस्त 1992 में पहला अंक प्रकाशित हुआ। आक्रामक तेवर और हर विषय पर खबरों की वजह से पत्रिका पसंद की गई, एनटीसी घोटाले पर महेश शर्मा की रिपोर्ट थी तो मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा इंटरव्यू भी। इंटरव्यू अशोक पांडे ने लिया था। नेत्र चिकित्सा पर डॉ. देवेन्द्र के टिप्स थे तो राजनीति पर भी खास कवरेज। नगर निगम, सूचना विभाग सहित कई निजी फर्मों के विज्ञापन भी।

मुख्यपृष्ठ दिल्ली से डिज़ाइन करवाया था। ऑफिस के लिए काकादेव में फूफाजी के घर में जगह ली थी और फ़ोन भी उनका ही इस्तेमाल करता था।

मीडिया जगत हतप्रभ था कि कोई कंगाल कैसे ऐसी महंगी पत्रिका कैसे निकाल सकता है, पर यह संभव हुआ परिवार और मित्रों के सहयोग से। गाड़ी चल निकली, जो मुह फेर के बैठे थे, कसीदे पढ़ने लगे, इसे मैंने विनम्रता से स्वीकार किया और बिना खुश हुए अपना काम करता रहा।

पत्रिका ठीकठाक चल निकली।

इस बीच महेश शर्मा के जरिए “अमर उजाला” के सम्पादकीय प्रभारी आदरणीय दिनेश जुयाल से मुलाकात हुई और उन्होंने ट्रेनी का पद ऑफर किया। वादा किया कि छह महीने में स्थायी कर जूनियर सब एडिटर बना देंगे। जुलाई 1993 में विधिवत अमर उजाला जॉइन कर लिया और इसमें मेरे मनोरथ के साथी महेश शर्मा की महत्वपूर्ण भूमिका रही, जिनके ऋण से उऋण नहीं हो सकता।

इस बीच बेटे शिवांश ने जन्म लिया। 3000 रुपए महीना वेतन मिलने लगा। पिता जी भी श्रम विभाग की नौकरी में थे। हम शास्त्री नगर कालोनी के एक क्वार्टर में रहते थे, गृहस्थी आराम से चलने लगी। अमर उजाला में व्यस्तता के चलते पत्रिका बंद करनी पड़ी। लेकिन उन संघर्ष के दिनों ने मुझे बहुत सिखाया और जिसके बल पर आगे की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम रहा…।

इसके पहले का पार्ट पढ़ें-

“दैनिक गणेश” में मेरी 1988 में 450 रुपये पगार थी!

97 साल पुराना ‘प्रताप’ अख़बार देखें, 24 पेज में 70 छोटे विज्ञापन हैं!

पत्रकारिता के स्कूल हैं दिलीप शुक्ला!

टकले अभिनेता मनमौजी का नाम ‘लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ में दर्ज!

जब भी जीवन में संकट आया, अमर उजाला ने मेरा साथ दिया!

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One comment on “पत्नी के गहने बेचकर शुरू किया था ‘अपनी राज्यसत्ता’ पत्रिका!”

  • Akash kumar says:

    बहुत गलत काम किया आपने .खुद का अखबार बंद करके .जब नौकरी नहीं होती तो कोई नहीं पुछता.और जब आपकी काबिलियत दुनिया को नजर आया ।तो मर जाला जाने का कोई जरूरत थी .आप सछम हो ही गये थे

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