अनिल कुमार यादव-
आउट आफ स्टॉक. यह आइटम उपलब्ध नहीं है. मुझे नहीं लगता, दस दिन में पहला संस्करण बिक गया होगा जबकि अभी सभी राज्यों में किताब पहुंची भी नहीं है. लगता है सप्लाई चेन में कुछ गड़बड़ है.
यात्रा-वृत्तांत लिखने का कोई इरादा नहीं था. मैं अपने आसपास से चट कर, कुछ दिन, दुर्गम पिंडर घाटी के बच्चों के साथ गपियाने गया था. लेकिन औघड़ के मन की तरह फटे वहां के दर्रे, मरोड़ दिए गए रास्ते, उत्पाती गधेरे, आतंकित करने वाली बारिश और जंगल में दिन-दहाड़े के अंधेरे कुछ फुसफुसा रहे थे.
घास जैसे बाल, गठीले हाथों की पकड़, चीमड़ पिंडलियों की सख्ती, ठहरी हुई आंखें, झुलसी खाल वाले बेअंदाज शराबी, रास्तों पर चाबुक खाकर भी अपनी जान की सलामती के लिए न बिदकने वाले घोड़े, थाली पर सवार होकर बर्फ में फिसलने वाले बच्चे कह रहे थे कि यह जगह कुछ और है.
मैं कुछ दिन रूक गया.
पिघलते ग्लैशियरों के नीचे कीड़ाजड़ी खोदने का सीजन चल रहा था और दिन-रात मेरे साथ रहने वाले, पैदाइशी पर्वतारोही लड़के का नाम ‘कीड़ू’ था. मैं बच्चों-किशोरों की सोहबत में इस अनजानी दुनिया में जहां तक जा सकता था भटकता गया. आधा कीड़ा-आधी घास या इस कामशक्तिवर्धक ने ऐसे भंवर में डाल दिया जहां अंततः सबकुछ बिडम्बना में बदल जाता था.
एक रात, तीन विदेशी स्मगलर आकर मेरे बगल के कमरे में आ बसे. न चाहते हुए भी मुझे उनका दुभाषिया बनना पड़ा. उसके बाद जो हुआ वैसा बिरले ही होता है…तब तय हो गया कि यह किताब लिखी जाएगी.
अगले पांच साल, पिंडर घाटी के मैने कई फेरे लगाए. इलाके के पुलिस वाले तलाशी लेने लगे. उन्हें शक हो गया था कि कहीं मैं चरस या कीड़े का काम तो नहीं करने लगा हूं. मुनीरका में लॉकडाउन के भुतहे एकांत में बैठकर इसे लिखा गया.
जो जोती इस किताब की पहली पंक्ति लिखने प्रेरणा बनी, अब वह अपने भाई-बहन के साथ एक अनाथालय में रहती है. इस बीच मेरे दोस्त और उसके पिता की पांच पर्वतारोहियों के साथ सुंदरढूंगा की बर्फ में दबकर मौत हो चुकी है. बहुत सोचता हूं लेकिन समझ नहीं आता कि उन्हें धन्यवाद कहने का क्या तरीका हो सकता है!
‘कीड़ाजड़ी’ : इस पुरातन जड़ी के बारे में नामनइ दोरजे (1439-1475) [तिब्बती पद्धति के चिकित्सक और लामा] का एक लंबे कवित्त की कुछ लाइनें साझा कर रहा हूं. अंग्रेजी से इसका अनुवाद कवि Mrityunjay ने किया है
इंद्रिय सुख पावे लहकावे कामजगत आनंद घना ।
अष्टांग शास्त्रे लिखित रहस कामवर्धना ज्ञान बना ।।
‘दम बु बर शिंग जग मा रत्सा’ ज्ञानी स्मृति में रखना ।
जिसका ‘यार त्सा गुन्बु’ नाम है दूजा सुनो प्रसन्नमना ।।
ऊँची पर्वतमाला दूरस्थ घास के ढलवें तल पर ।
ग्रीष्म उतरती तब कीड़ों पर जम जाती है घास ।।
मधुऋतु में जड़ लगती इसकी जैसे जीरा हो ।
हरे रेशमी नरकुल जैसे फूल पहाड़ी लहसुन पात ।।
मैं आधुनिक घुमंतू नहीं हूं. न कैमरा, न रिकार्डर, न अच्छा फोन. ओल्डमओल्ड स्कूल कह सकते हैं जो बकरी को मिमिया कर, भेड़ को छींक कर, बूढ़ी को लंगड़ा कर, बच्चे और समुद्र को मचल कर, हवा को सीने पर, रेत और बरफ को तलवों पर आत्मसात करता है. मेरा अपना तरीका समाजों को देखने का नहीं, कुछ दिन बस जाने का है. जीना प्रमुख है, लिखना या उत्पादन बहुत बाद की चीज है जो ना हो पाये तो भी खास फर्क नहीं पड़ता. जब तकनीक ने पाव भर जीरे में ब्रह्मभोज की सहूलियत दे दी है मेरे पास कायदे की तस्वीरें तक नहीं हैं. यह एक तरह का संतुलन है. जो तुमने जिया वह कभी तस्वीरों में समा नहीं सकता और शब्दों के सिवा उसे व्यक्त करने का कोई और चारा नहीं है. अब भी सबसे अधिक शक्ति उन्हीं में बची है.
तकनीक जिंदगी का व्यापार है, जिंदगी नहीं. जिन्हें व्यापार पर एतराज हो वे इसे बांग्ला समझें.
तिकाब लिखने के लिए मुझे इतनी बधाईयां मिलीं कि छक गया हूं. जब देखा कि लोगों तक पहुंचने लगी है तो मुझे एक दाढ़ी वाला चेहरा याद आया जो अंदर गुमान से भरा लेकिन बाहर लजाया हुआ था. मेरे कहने पर उसने मेरे दोस्तों की की खींची पिंडर घाटी की आमफहम तस्वीरों से एक वीडियो बनाया जो यहां पेश किया जाता है.
मुझे अब बधाईयों की नहीं आपकी प्रतिक्रियाओं की जरूरत है.
दोनों में से जब भी किसी की नई किताब आती थी, कृष्ण बलदेव वैद और निर्मल वर्मा पुरानी दिल्ली में टुन्न होकर घूमते हुए एक गाना गाते थे- छुरी चली रे छुरी वो देखो मस्जिद फतेहपुरी.
सोच रहा हूं, कैसा समय रहा होगा?
वीडियोः Sumer Singh Rathore
तस्वीरेंः Jayesh Bhosale आलोक बनर्जी
किताब ख़रीद लिंकः https://www.amazon.in/Keeda-Jadi-Ki-Khoj-Mein/dp/0143453734/
मनीष पटेल-
अनिल यादव का ताज़ा यात्रा-वृतान्त ‘कीड़ाजड़ी’ पढ़ गया। यह उनके पिछले यात्रा वृतान्त से अलग है। इसमें पिंडर घाटी की ऊबड़खाबड़ ज़िन्दगी की उदासी है। वहाँ के लोगों का जीवन और उसकी गाथा है। एक दास्तान है। जीवन की कठिनता को आसान बनाने के तरीक़ों का यथार्थ चित्रण है। क़िस्से हैं। यह किताब अपने में डुबाती है। गधेरे की संकीर्ण धारा की तरह जीवन में भी एक पैनापन है।
बिम्बों और प्रतीकों से भरी यह किताब कई बार कविता का सुख देती है। चकित करती है। उस दिशा में लेकर जाती है जहाँ की पेचीदा गलियों में जाकर खो जाने की गुंजाइश ज़्यादा दिखती है।एक गीला-गीला अवसादनुमा दुःख छोड़ते हुए यह किताब ख़त्म होती है।
मनोज मन्नू-
बचपन में हम एक साँस में पहाड़ा पढ़ा करते थे। अनिल यादव (Anil Kumar Yadav) की नयी किताब ‘कीड़ाजड़ी’ भी एक साँस में ही पढ़ जाने वाली किताब है।
कीड़ाजड़ी में जो हिमालय है, नदियां हैं, घाटी है, आसमान, मौसम और लोग हैं, वह रोमानी नहीं है। भयानक भी नहीं है। वह रोमानी और भयानक के बीच कहीं अपने असल यथार्थ रूप में है।
पिंडर घाटी को पढ़कर, वहां के लोगों के जीवन को देखकर हम खुश या उदास नहीं होते। अगर कुछ होता है तो वह है- आश्चर्य।आश्चर्य कि इन दुर्गमों में भी जीवन फल फूल रहा है।
वहां एक छोटी सी बच्ची है, नाम है- जोती। वह जैसी है वैसे ही रहना चाहती है। अगर आप उससे प्यार, उससे दोस्ती करना चाहते हैं तो आपको उसकी तरह बनना पड़ेगा, उसके धरातल पर पहुंचना पड़ेगा। वह आपके लिए बदलने वाली नहीं है। पिंडरघाटी भी ऐसी ही है, दोस्ती करना चाहते हैं तो उसके धरातल पर पहुंचिये जैसे लेखक पहुंचता है वर्ना और भी ग़म है जमाने में मोहब्बत के सिवाय।
जोती से मिलवाने के लिए शुक्रिया ‘माट्टर’।
ज्योति देशमुख-
पढ़ते हुए कुछ न कुछ खाते रहना आदत है लेकिन खाते हुए पढ़ना पसंद है। कोई नई किताब पढ़ना शुरू करना था। थाली परोस कर ली और सामने यह किताब दिख गई। पढ़ना शुरू किया तो पहले ही पन्ने ने ऐसा पकड़ा कि लगा वाह! क्या स्वादिष्ट है!
पहले ही पेज की पहली ही पंक्ति का पहला ही किरदार, नाम – जोती। आठ साल की जोती के बारे में आगे पढ़ा – “मैं ऐसी ही हूँ। ऐसी ही रहूँगी। क्या फिर भी कोई मुझे प्यार कर सकता है?”
अरे! ये तो मैं ही हूँ! लेकिन शायद मैं अपना नाम गलत लिखती हूँ। मेरा नाम ज्योति नहीं, जोती लिखा जाना चाहिए।
कैलेंडर पर लिखा होता है ‘बच्चे भगवान का रूप होते हैं’ लेकिन कैलेंडर गरीब बच्चों के लिए नहीं होते। बीड़ी जीभ का विस्तार है जो सुलगती रहती है इसलिए मुँह से बाहर रखना पड़ता है। ऐसी न जाने और कितनी ही बातें उन 6 पन्नों में पढ़ ली कि मन बंध गया।
खाना खाते- खाते एक चैप्टर पढ़ गई। बहुत स्वादिष्ट है वाकई! जल्द ही पूरी पढ़कर फिर कुछ लिखूँगी।
अखिलेश झा-
पिछले सप्ताह एक किताब आई ‘कीड़ाजड़ी’। अनिल यादव ने लिखी है। किताब में इसे ट्रैवलॉग कहा गया है, लेकिन इसके लिए यायावरी नाम मुझे बिल्कुल उपयुक्त लगता है। ट्रैवलॉग में एक आभिजात्यता झलकती है, जिससे अनिल यादव का लेखन कोसों दूर है। यायावरी में ठिकानों से अधिक ठिकानों के औसार-पौसार…सबका विवरण होता है और पूरे विस्तार और ठहराव से होता है। तभी यायावर लिखता है इस ‘कीड़ाजड़ी’ में- ‘यहाँ का भूगोल आपदा से पहले और बाद, इतिहास कीड़ाजड़ी के पहले और बाद और समाजशास्त्र अँग्रेजी शराब से पहले और बाद के कालखंडों में बाँटकर देखने से सहूलियत होती है।‘
ट्रैवलॉग में ट्रैवलर का चश्मा विषयवस्तु को बहुत प्रभावित करता है, यायावरी में विवरणी पूरा विस्तार पाती है। बहरहाल, जो हिन्दी की किताबें पढ़ते हैं या हिन्दी साहित्य की अनूदित किताबें अँगरेजी में पढ़ते हैं, वे अनिल यादव को ‘ये भी कोई देश है महाराज’ के लिए जानते हैं। जिन्होंने नहीं पढ़ी है, वे पहले ‘कीड़ाजड़ी’ पढ़ लें। कीड़ाजली को मैं अद्भुत, बहुत महत्त्वपूर्ण कहकर आप सबको नहीं पेश करना चाहता। ये किताब इसलिए ज़रूरी है कि आप लेखन और चिंतन में बची-खुची मौलिकता की पहचान कर पाएँ।
अनिल यादव की किताबें बेस्टसेलर की सूची में हमेशा जगह बनाती हैं, कीड़ाजड़ी भी उसमें अवश्य शामिल होगी। परंतु, आप इसे इस लिए न खरीदें। आप इसलिए इसे खरीदें और पढ़ें ताकि आप लेखन की दुनिया के डालडा से मुक्ति पा सकें। इस किताब के माध्यम से आप रियैलिटी शो की कृत्रिम दुनिया से निकलकर उस दुनिया में पहुँचते हैं, जिनको न जानने के अपराध में आपको बार-बार जन्म-जन्म लेना पड़ेगा। ऐसी किताबें पढ़ने से हमारे मैनेजमेंट के ज्ञान की ठसक पिघलकर किनारे हो लेती है, देश और समाज को लेकर बने हमारे भावुक वितान के सलमा-सितारे बेवजह टँके हुए दिखते हैं। पढ़िएगा और बताइएगा कैसी लगी ये किताब….
संजय वर्मा-
Anil Kumar Yadav के लिखे से मेरा पहला परिचय उनके नार्थ ईस्ट के ट्रेवलॉग – ‘ वह भी कोई देस है महाराज’ से हुआ । पिछले 10 सालों से मित्रता की दहलीज पर ठिठका घनघोर पाठक का रिश्ता है मेरा उनसे । उनका लिखा बीन बीन कर पढ़ता हूं । यहां तक कि उनका किसी की फेसबुक पोस्ट पर लिखा हुआ कमेंट भी !
उनकी नई किताब आई है-‘ कीड़ा जड़ी’ ! जरूर पढ़िए । वही जादुई भाषा ,वही मायावी क्राफ्ट ,वही किस्सागोई का रस , और वही छोटे-छोटे सूत्र जिनके जरिए वे एक जुमले में जो कहते हैं किसी दूसरे को कहने के लिए पूरी किताब लिखना पड़े ।
कीड़ाजड़ी उनके पिंडर घाटी की यात्रा का वृतांत है । एक ऐसा बर्फीला इलाका जहां अब तक ठीक से बिजली सड़क मोबाइल के साथ आधुनिक मानव की कृतिमता पहुंचना शेष है । कीड़ाजड़ी पौधे और जीव के एक साथ होने का बिरला संजोग है जो काम शक्ति बढ़ाने का दवाई के रूप में भी इस्तेमाल होता है । पिंडर घाटी के लोगों का जीवन इस जड़ी से किस तरह बदल रहा है इस किताब में इसकी भी पड़ताल है।
यह यात्रा जितनी बाहर की है उतनी ही भीतर की भी । कुदरत के नज़ारे, पहाड़ नदी झरने के दिखाने के साथ-साथ लेखक आपको अपने भीतर चल रही यात्रा का हाल भी सुनाता है जो आपको मजबूर करती है कि आप भी अपने भीतर झांकिए ।
एक के बाद एक दिलचस्प किस्से और उससे भी अधिक दिलचस्प किरदार आते हैं । ऐसा ही एक किरदार है रामदेव । जिसका इस भरी दुनिया में कोई नहीं । उसका कहना है कि भगवान राम ने उसे अपना पर्सनल मोबाइल नंबर दिया था जिसे गांव वालों ने साजिशन पुलिस की मदद से जब्त करवा दिया । अब उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य इस ज़ब्त मोबाइल नंबर को किसी तरह वापस हासिल करना है। वह हर किसी से यही बात करता है । मुझे रामदेव के बारे में पढ़ते राग दरबारी का लंगड़ याद आया , जिसने एक नकल हासिल करने की सनक के पीछे अपना सारा जीवन लगा दिया था । अनिल यादव कहते हैं – “और कुछ हो ना हो रामदेव ने पिंडर घाटी के ग्रामीणों तक अपनी जिंदगी का एक औचित्य तो पहुंचा ही दिया है ..”
पढ़ते पढ़ते मैं इस औचित्य में अटक जाता हूं । सोचता हूं क्या हम सबके भीतर भी एक रामदेव या लंगड़ नहीं रहता ? हम सब भी तो इस बेमकसद जीवन की निर्थकता से भागते हुए जीवन के लिए एक औचित्य ढूंढने की कोशिश में लगे हैं , जिसे लोगों तक पहुंचा सके । क्या फर्क पड़ता है यह औचित्य एक मोबाइल नंबर हो एक नकल हो या पैसा कमाना , परिवार की चिंता ,कभी समाज की बेहतरी ही क्यों ना हो ? अंततः यह सब अपने अपने बेमकसद जीवन का औचित्य साबित करने की कोशिश ही तो है ।
एक और सूत्र देखिए…. “देखने का दबाव …, दूसरों की नजर में खुद का अनुमान करना और उसकी प्रतिक्रिया में उचित व्यवहार करना दुनिया की सबसे अधिक थका देने वाली प्रक्रिया है… ।”
शायद अनजाने ही हम सब एक बिग बॉस शो के सदस्य हैं । आसपास के लोगों की आंखें बिग बॉस के कैमरे हैं । हमें जो कुछ करना है कहना है , इन कैमरों के दबाव में कहना है । क्या हम कभी इनकी चिंता किए बगैर जी पाते हैं ।
एक और- ….ज्यादातर मर्द विनम्रता को जीवन जीने में सहायक मानसिक उपकरण या छिपकली की पूंछ की तरह अपने व्यक्तित्व से जोड़ कर रखते हैं ,लेकिन वह इस आदमी के भीतर से फूटती लगती है…
…क्या ट्रैकिंग कोई पावर गेम है । क्या जान का जोखिम और इतने कष्ट सिर्फ थोड़ी देर के लिए अनछुई प्रकृति पर मालिकाने के आभासी बोध के लिए उठाए जाते हैं …
मैं इसमें अपनी बात जोडूं तो क्या तमाम अचीवमेंट चाहे वो पहाड़ चढ़ने के हो या करोड़पति बनने के अंततः दूसरे लोगों का वेलिवेशन हासिल करने के लिए हैं ? क्या हम सब अभिशप्त हैं इस वैलिडेशन की खातिर अपना जीवन बर्बाद करने के लिए।
बहरहाल किताब जरूर पढ़िए । और अब तक यदि आपने उनकी वह भी कोई देस है महराज न पढ़ी हो तो वह भी जरूर पढ़िए ।
महेश मिश्रा-
अनिल जी बहुत सामर्थ्यवान लेखक हैं और उनकी नई पुस्तक एक बार पुनः यह साबित करती है। लेखक के पास कहने का संकोच नहीं है, बहानेबाजी नहीं है, आत्मछल नहीं है। उनके पास है तो एक तीक्ष्ण दृष्टि है जो पैनी भी है और कोमल भी है, सख्त है और खुरदरी भी है और उल्लास की भी है। वह न तो खुद को भुलावे में रखती है न किसी और को भुलावे में रहने देना चाहती है।
अनिल जी की दृष्टि में एक ऐसी समग्रता है जो जीवन की धूप और छाँव दोनों को एक साथ गरिमा से देख पाती है और उसकी विडंबनाओं को भी उतनी ही प्रखरता से दर्ज कर पाती है।
वे बच्चों से जुड़े प्रसंगों में इतने वात्सल्यमय हो जाते हैं कि लगता है कहीं वे बाललीला के कवि तो नहीं हैं। जब वे प्रकृति का वर्णन कर रहे होते हैं तो लगता है प्रकृति के उदार कवि हैं क्या? ऐसे कवि जिनकी दृष्टि में पर्यटक दृष्टि नहीं है बल्कि उससे रूपाकार होने की, उसके तादात्म्य में रहने की सलाहियत है।
वे जीवन-दर्शन के विचारक भी लगते हैं और संस्कृति/ सभ्यता के समीक्षक भी। उनकी दृष्टि में किसी को छोटा देखने की प्रवृत्ति नहीं दिखती है। वे सच में विरल हैं।
कीड़ाजड़ी उनका यात्रा-वृत्तांत कहा जा सकता है लेकिन ठीक इसी विधा में शायद न अटे। उत्तराखंड की पिण्डर घाटी में एक एन जी ओ की तरफ से अतिथि शिक्षक बनकर नैरेटर-लेखक वहाँ जाते हैं और वहाँ के जीवन को जीते हैं। वहाँ की हर तरह की गतिविधि को पूरी सहृदयता से देखते हैं और वहाँ के लोगों के जीवन दर्शन को पकड़ते हैं। उसका रस लेते हैं और पाठक तक उसे पहुँचाते हैं। अपनी उपस्थिति से वर्णन को कहीं भी बोझिल नहीं करते। दूसरे पात्र ही प्रमुखता पाते हैं।
उनकी खास अभिव्यक्तियाँ इस पुस्तक में पूरी समग्रता में पढ़ने को मिलती हैं और भूदृश्यों के वर्णन में वे इस पुस्तक में अपनी इससे पहले की पुस्तकों से आगे बढ़े हैं। दृश्य-वर्णन कई बार अच्छे फिल्ममेकर की तरह पोएटिक महसूस होता है। एक उदाहरण देखिये-(लेखक रात में बच्चों के साथ सैर पर निकले हैं वाला प्रसंग): “सामने हिलते चीड़ के नुकीले पेड़ तारों को बुहार रहे हैं जिससे उनकी चमक बढ़ती जा रही है”. लेखक की अपने पात्रों के साथ एमपथी अद्भुत है लेकिन अपनी चूकों (जो कई बार हम सब पाठकों की अपनी लग सकती हैं) को स्वीकार करने का साहस भी उतना ही उज्ज्वल किस्म का है। बाबा रामदेव वाला प्रसंग इस संदर्भ में देखा जा सकता है। उनका वर्णन बहुत सजीव है और संयत इतना कि एक शब्द भी अतिरंजित नहीं हो पाता।
कीड़ाजड़ी एक आधा कीड़ा, आधी वनस्पति वाली शक्तिवर्धक औषधि है जिस पर पुस्तक का शीर्षक चुना गया है। कीड़ाजड़ी के प्रसंग में जो अध्याय हैं उनके वर्णन में वैज्ञानिकता है। उसके व्यापार को लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सन्धियाँ(दुरभि) हैं। शासनिक-प्रशासनिक दाँव पेंच हैं।
पूरी कीड़ाजड़ी पुस्तक दार्शनिक भावबोध से भी भरी हुई है। बहुत सारे पात्र, उनसे लेखक की सच्ची आत्मीयता है लेकिन कहीं भी विह्वलता जगाने का छल नहीं है। ऐसा सन्तुलन विरल है न?
उनका पुस्तक समर्पण भी मुझे बहुत अच्छा लगा:-” जया के लिए जिसका बचपन बन्द घर और स्कूल के बीच बीता और खिलाफ सिंह दानू के लिए जो सुन्दरढूंगा की बर्फ़ में दब गया।”
एक जो बन्द रहा और दूसरा जो पहाड़ियों में बार-बार घूमता रहता है, दोनों को एक यात्रा-वृत्तांत समर्पित करना!
उनसे मेरी पाठकीय शिकायतें भी हैं। पात्रों या स्थितियों के वर्णन में जैसे वे बहुत सारे डिटेल्स छोड़ना चाहते हैं। वे कहीं भी विस्तार में नहीं जाते हैं और वे मानते हैं कि पाठक को सोचने के लिए अवकाश देना चाहिए। उसे समझदार मानना चाहिए। हाँ, इसे हम लेखकीय कौशल मान सकते हैं और सचेत रचनात्मक कॉल भी लेकिन एक पाठक के रूप में हमसे वह रस छिन जाता है जो हमारा अधिकार है। पाठक लेखक से ज़्यादा रस-गृहण कैसे कर सकता है। एक तो (वैसी) दृष्टि का अभाव होता है, दूसरा उन्हीं शब्दों का अभाव होता है जो ऐसी स्थितियों के लिए उपयुक्ततम हों। इस क्षति को पूरा करने की उन्हें कोशिश करनी चाहिए। कई सारे विशेषणों को एक वाक्य में गूँथना कौशल है लेकिन उसके विस्तार से खुलने में पाठक का आमंत्रण है। पाठक के विवेक पर भरोसा करना उदात्त काम है लेकिन अपनी कलम को संकोच से पकड़ना पाठकीय रस में भाँग डालने जैसा है। किसी जीवन का वर्णन बहुत संक्षेप में करना, चाहे जितना precise हो, मेरी समझ में उस पात्र का एक महीन-सा अवमान है।
आप भी पढ़िये, अच्छी लगेगी। आपकी सोच-समझ की तासीर में बदलाव कर सकती है।
Update-
अनिल यादव की ‘कीड़ाजड़ी’ अब एमेजॉन/अन्य ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स और नज़दीकी बुकस्टोर्स पर फिर से उपलब्ध है। दरअसल, इस किताब की हाल में इतनी चर्चा हुई कि यह जल्द ही एमेजॉन पर ऑउट ऑफ स्टॉक हो गई थी। लेकिन इसकी आपूर्ति फिर से सुनिश्चित कर दी गई है। बंपर डिमांड के लिए अनिल जी को बधाई पहुँचे। -सुशांत झा