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जो पत्रकार वेज बोर्ड की सिफारिशें नहीं ले पाते वे किसी साथी को मरने पर मुआवजा क्या दिलवाएंगे

Sanjaya Kumar Singh : पत्रकारिता के जंगलराज का क्या होगा… झारखंड में एक पत्रकार की हत्या के बाद सीवान में दैनिक हिन्दुस्तान के संवाददाता की हत्या हुई तो बिहार में जंगलराज का आरोप लग गया और जनता की मांग पर मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने सीबाआई जांच की घोषणा कर दी। निश्चित रूप से सीबीआई से जांच कराने का मतलब यह नहीं है कि मामला सुलझ ही जाएगा और हत्यारों को सजा हो ही जाएगी। फिर भी मान लेता हूं, सीबीआई जांच करेगी और मामला साफ हो जाएगा। अभियुक्तों को सजा हो जाएगी। पर इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि पीड़ित परिवार का उचित मुआवजा मिले। आखिर पत्रकार की हत्या उसके काम के सिलसिले में काम के दौरान हुई है। उसका परिवार भी है।

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Sanjaya Kumar Singh : पत्रकारिता के जंगलराज का क्या होगा… झारखंड में एक पत्रकार की हत्या के बाद सीवान में दैनिक हिन्दुस्तान के संवाददाता की हत्या हुई तो बिहार में जंगलराज का आरोप लग गया और जनता की मांग पर मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने सीबाआई जांच की घोषणा कर दी। निश्चित रूप से सीबीआई से जांच कराने का मतलब यह नहीं है कि मामला सुलझ ही जाएगा और हत्यारों को सजा हो ही जाएगी। फिर भी मान लेता हूं, सीबीआई जांच करेगी और मामला साफ हो जाएगा। अभियुक्तों को सजा हो जाएगी। पर इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि पीड़ित परिवार का उचित मुआवजा मिले। आखिर पत्रकार की हत्या उसके काम के सिलसिले में काम के दौरान हुई है। उसका परिवार भी है।

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जंगलराज की लड़ाई तो राजनीतिक है। राजनीतिक दल लड़ेंगे। पर मृतक पत्रकार को मुआवजा कौन दिलवाएगा? हिन्दुस्तान प्रबंधन ने अभी तक ऐसी कोई घोषणा नहीं की है। यहां महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि मृतक हिन्दुस्तान के संवाददाता थे या स्ट्रिंगर। अगर संवाददाता थे तो कंपनी के नियमों के अनुसार उन्हें मुआवजा, भत्ता मिलना चाहिए। नहीं थे तो कंपनी को मजबूर किया जाना चाहिए कि हत्या कर दिए जाने के बाद कंपनी उन्हें वाजिब मुआवजा दे (जो किसी कर्मचारी को काम पर मारे जाने की दशा में मिलना चाहिए)। और अगर कंपनी नहीं देती है तो और कौन देगा। जाहिर है बिहार सरकार को यह उदारता दिखाना चाहिए क्योंकि हत्या तो कानून व्यवस्था का मामला है ही। पर यह सब ऐसे ही नहीं होगा इसके लिए लड़ाई लड़नी पड़ेगी।

और लड़ाई लड़ी ही जाए तो बिहार में ही क्यों। झारखंड और उत्तर प्रदेश में क्यों नहीं? मुझे नहीं लगता कि पत्रकारों की लड़ाई “स्ट्रिंगर” और “संवादसूत्र” लड़ सकेंगे। इसलिए नहीं कि वे कमजोर होते हैं। इसलिए कि वे लड़ने लायक होते तो स्ट्रिंगर या संवाद सूत्र के रूप में खबर नहीं भेज रहे होते। ऐसे में अगर लड़ाई बिहार सरकार / राज्य सरकारों से लड़नी है तो मीडिया संस्थानों को सामने आना होगा। पर जो संस्थान कर्मचारी को पूरी सुविधाएं नहीं देता वो क्या मुआवजा देगा। फिर भी मैं संस्थान की नीयत पर क्यों शक करूं। बिहार में अगर संस्थान को यह काम करना होता तो हिन्दुस्तान के संपादक और स्थानीय संपादक मुख्य भूमिका में होंते। होना चाहिए। इसमें संपादक और स्थानीय संपादक की हस्ती और व्यक्तित्व की भी भूमिका होगी।

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हिन्दुस्तान के मुख्य संपादक का लिखा पढ़कर तो नहीं लगता कि लड़ाई आगे बढ़ने वाली है। हालांकि हत्या वाले दिन जो अंक निकला, जिस तरह पहले पेज को श्वेत-श्याम रखा गया, पहले पन्ने पर विज्ञापनों का “जैकेट” होने के बाद भी यह सूचना दी गई उससे लगा कि स्थानीय टीम दमदार हैं। कोई अच्छा नेतृत्व होगा। पर वे इस मामले में हिन्दुस्तान टाइम्स प्रबंधन का प्रतिनिधित्व करते नजर नहीं आ रहे हैं। कल एनडीटीवी पर अपने कार्यक्रम में रवीश कुमार ने कहा कि हिन्दुस्तान से कोई नहीं आया।

लड़ाई को संस्थान के संपादक और स्थानीय संपादक से शक्ति मिल सकती है। स्ट्रिंगर की हत्या होने उसकी मौत होने पर मुआवजे का एक नियम बनवाया जा सकता है। पर यह लड़ाई खुलकर लड़नी होगी। पर हिन्दुस्तान के स्थानीय संपादक पर्दे के पीछे हैं, रखे गए हैं या मजबूर हैं। (मैं नहीं जानता कारण क्या है।) पर अभी तक ऐसा नहीं लग रहा है कि हिन्दुस्तान के सभी बड़े पत्रकार मिलकर यह लड़ाई लड़ेंगे। जब हिन्दुस्तान के बड़े पत्रकार ही एकजुट नहीं होंगे। तो स्ट्रिंगर से क्या उम्मीद की जाए। और दूसरे राज्यों का मामला तो पुराना हो चुका है। जो पत्रकार वेजबोर्ड की सिफारिशें नहीं ले पाते वे किसी साथी को मरने पर मुआवजा क्या दिलवाएंगे?

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वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह के इस एफबी पोस्ट पर आए कुछ प्रमुख कमेंट्स इस प्रकार हैं….

Rakesh Pandey पत्रकारों में एकता नहीं है। संगठन का अभाव है।लड़ने का माद्दा नहीं है। बैंक कर्मियों से अपने हकों की लड़ाई करना सीखें। जब कुर्बानी देनी ही है तो अपने वेतन भत्तों और सेवा शर्तों के लिए भी लडे।

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Sanjaya Kumar Singh असल में पत्रकारों के कई वर्ग हैं, वेतन वाले, बिना वेतन वाले, काम करने वाले, बिना काम करने वाले, अफसर के चम्मच, संपादक के चम्मच, मोटी तनख्वाह वाले, औपचारिक तनख्वाह वाले, खबर लिखने वाले, वसूली करने वाले, संपादक / मालिक के लिए वसूली करने वाले, सिर्फ पैसे वाली खबरें करने वाले, कई पत्रकारों मालिकों को ठेका दिलाने से लेकर पुरस्कार दिलाने का ठेका लेते हैं आदि आदि। चूंकि यह बैंक कर्मचारियों की तरह अलग-अलग ग्रेड का मामला नहीं है इसलिए उससे तुलना नहीं की जा सकती है।

Rakesh Pandey मुझे याद पड़ता है दिल्ली में साठ सत्तर के दशक में हमारे बैंक के लीडर कामरेड एच एल परवाना हुआ करते थे। वे दिल्ली में वर्किंग जर्नलिस्ट/ श्रमजीवी पत्रकार के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर लड़े थे।

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Pradeep Upadhyay कुछ घटनाए घट जाती हैं तभी यह विचार आता है। बहुत सारे स्ट्रीगर आर्थिक असुरक्षा के कारण जान जोखिम में नहीं डालते,होना भी यही चाहिए। क्योंकि प्रबन्ध तंत्र का रुख एकदम उल्टा होता है। पत्रकारो को सहयोग क्या देगें उल्टा उनको ही प्रताडित करेगें ।

Sanjaya Kumar Singh बिल्कुल। मेरा मानना है कि पत्रकारों का रुतबा ऐसा होना चाहिए कि हत्या तो दूर, कोई आंख उठाकर देखने की हिम्मत ना करे। पर इसके लिए सिर्फ पत्रकारिता करनी होगी। लाला की दुकान की नौकरी में पत्रकारिता का मजा तो नहीं मिलेगा। लेकिन समस्या यह है कि स्ट्रिंगर ना लाला का नौकर है ना पत्रकार का मजा पाता है। पत्रकार भी बंटे हुए है राजनितिक गुटबाजी में … जब पत्रकारो की पिटाई होती है तो कई पत्रकार खुश होते है और उसे जायज बताते है … ज्यादातर मीडिया संसथान राजनितिक या औद्योगिक घराने में तब्दील हो चुके है। ऊपर मैंने लिखा है कि कई तरह के पत्रकार होते हैं। उनमें अंग्रेजी हिन्दी के साथ आईएनएस (दिल्ली से बाहर के अखबारों के लिए काम करने वाले) वाले पत्रकार , बाहर के शहरों से निकलने वाले हिन्दी अंग्रेजी पत्रकारों के अलावा दूसरी भाषाओं के, फिर टेलीविजन, रेडियो, उसमें भी सरकारी प्राइवेट। बहुत हैं। उसमे एक अलग कटैगरी भी है छि न्यूज़ वाला पत्रकार .. जो बाकि के पत्रकारो को हमेशा गलत साबित करने में लगा रहता है 🙂

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Anurag Srivastava स्थानीय नेतृत्व वाकई दमदार है। डॉक्टर तीर विजय हैं सम्पादक लेकिन बात घूम फिर कर फिर वही कि दिल्ली तो बस दिल्ली है और फिर करोड़ों के विज्ञापनों का क्या होगा?


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