आज के दैनिक हिन्दुस्तान में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने एक लेख लिखा है। हिन्दी में उनके नाम के साथ छपा है। इस सूचना के साथ कि ये उनके अपने विचार हैं। एडिट पेज पर प्रकाशित इस लेख के साथ अमित शाह की जो फोटो लगी है वह छोटी है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भी फोटो लगाई गई है जो लेखक की फोटो से बड़ी है। वैसे ही जैसे मैं नैनीताल पर कुछ लिखूं तो मेरी फोटो रहे ना रहे, नैनी झील की फोटो बड़ी सी जरूर लगेगी। अगर मेरी तुलना गलत नहीं है तो फोटो छपना और उसका बड़ा छोटा होना भी गलत नहीं है।
आपको याद होगा, चुनाव में भाजपा की जीत के बाद जब सरकार बन गई और लोग अच्छे दिनों के साथ-साथ काले धन के 15 लाख के हिस्से की बात करते थे तो ऐन मतदान से पहले (शायद दिल्ली के) अमित शाह ने कह दिया था कि ये सब तो चुनावी जुमले थे। कई चुनावों बाद अब अमित शाह लिख रहे हैं, “यही हैं अच्छे दिनों के संकेत”। अब इसमें क्या लिखा है क्या नहीं – मैं उस पर नहीं जाउंगा सिर्फ यह कहूंगा कि अगर अच्छे दिन आ ही जाएं तो बताना पड़ेगा? विज्ञापन निकालकर? आप मानें या ना मानें यह विज्ञापन ही है। यह अलग बात है कि अखबार को इसके पैसे क्या मिले होंगे या मिलेंगे कि नहीं। सीधे तौर पर भले इसे विज्ञापन मानकर इसके पैसे लिए-दिए ना जाएं पर एक बड़ा अखबार सरकार के लिए प्रचारक का ही काम कर रहा है।
अब आप पूछ सकते हैं कि सत्तारूढ़ दल का अध्यक्ष अगर किसी अखबार के लिए लेख लिखे तो उसे कैसे नहीं छापा जाए? सवाल बिल्कुल जायज और मौजूं है। मेरा मानना है कि आप क्या लिख छाप रहे हैं, किसका लिखा छाप रहे हैं, उसी से तय होता है कि क्या छापेंगे। किसका छापेंगे। लिखने वाला इसी हिसाब से लिखता भी है। अगर उसे शक होगा कि आप नहीं छापेंगे तो लिखेगा ही क्यों? इसलिए, सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष ने अपना यह प्रचार सिर्फ आपको भेजा तो इस लायक समझा और सबको भेजा तो आप नहीं छापकर अलग हो सकते थे। लेकिन उस झंझट में भी क्यों पड़ा जाए।
अभी हाल में दैनिक हिन्दुस्तान के प्रधान संपादक शशिशेखर ने सगर्व लिखा था कि एक आयोजन में प्रधानमंत्री ने उन्हें पहचान लिया। उनका नाम जानते थे। आदि। ऐसे में अमितशाह ने यह उम्मीद की हो कि अखबार उनका लिखा छापकर गर्व महसूस करेगा तो कहां गलत है। अमित शाह चाहते तो इसे और भी अखबारों में छपवा सकते थे उनकी मेहरबानी कि और जगह नहीं छपवाया या हिन्दुस्तान ने छापने में बाजी मार ली। राम जाने। अमित शाह चाहते तो यह एलान प्रेस कांफ्रेंस में भी कर सकते थे। तब सभी सेल्फी पत्रकार इसपर लिखते और खुश होते। फोटो भी लगाते। मेरे लिए तो अच्छे दिन बचे हुए हैं। इसलिए कि अमित शाह ने यह सब नहीं किया। पर मुझे सरकार का यह प्रचार नहीं जमा। बाकी भक्ति का जमाना है कुछ भी हो सकता है। मैं तो चुप रहूंगा।
हिंदुस्तान अखबार में छपे पेड एडिटोरियल को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें…
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लेखक संजय कुमार सिंह लंबे समय तक जनसत्ता अखबार में प्रभाष जोशी के संपादकत्व में वरिष्ठ पद पर कार्यरत रहे हैं. वे लंबे वक्त से बतौर उद्यमी अनुवाद का कार्य बड़े पैमाने पर करते कराते हैं. संजय सोशल मीडिया पर समसामयिक मसलों पर बेबाक टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
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