भारत में क्रांति के लिए माहौल तैयार… वजह गिना रहे हैं जस्टिस काटजू

Share the news

जस्टिस मार्कंडेय काटजू

मैं कह चुका हूं कि भारत एक तरह की फ्रेंच क्रांति की ओर बढ़ रहा है। कई इतिहासकार फ्रेंच नेशनल असेम्बली के टेनिस कोर्ट ओथ को (इस्टेट्स जनरल में तीसरा इस्टेट) जो 20 जून 1789 को लिया गया था, फ्रेंच क्रांति की शुरुआत मानते हैं। मेरा मानना है कि राजेन्द्र कुमार के दफ्तर पर छापा, जिसे दिल्ली के मुख्यमंत्री के दफ्तर पर छापा माना जा रहा है, और इसपर उनकी प्रतिक्रिया (प्रधानमंत्री मोदी को मनोरोगी कहना) भारतीय क्रांति का अग्रदूत है क्योंकि अब सरकारी संस्थाएं (दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार) ने एक-दूसरे से लड़ना शुरू कर दिया है। किसी क्रांति के लिए सिर्फ लोगों का व्यथित होना पर्याप्त नहीं है। यह भी आवश्यक है कि शासक एक दूसरे से लड़ने लगें।

इन तथ्यों पर विचार करें…

भारत में लोग गहरी व्यथा में हैं। भारी गरीबी, बढ़ती बेरोजगारी (हर साल एक करोड़ युवा रोजगार बाजार में कदम रखते हैं पर हमारी अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्र में हर साल रोजगार के सिर्फ पांच लाख मौके तैयार होते हैं), खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमत, कुपोषण (हमारे यहां 50% बच्चे इसके शिकार हैं), आम आदमी के लिए स्वास्थ्य सेवाओं और अच्छी शिक्षा का लगभग ना होना, किसानों का आत्महत्या आदि।

हमारी राजनीतिज्ञों का हित राष्ट्रहित का बिल्कुल उल्टा है। हमारे नेता का हित चुनाव जीतना है और इसके लिए उन्हें जातीय और साम्प्रदायिक वोट बैंक यानी सामंती ताकतों को प्रभावित करना है और इन्हीं पर निर्भर रहना है। हालांकि, राष्ट्रहित में सामंती ताकतों को खत्म किए जाने, आमलोगों के बीच वैज्ञानिक विचारों के प्रचार और द्रुत औद्योगीकरण की आवश्यकता है। इन्हीं उपायों से गरीबी, बेरोजगारी आदि दूर हो सकती है और हमारे यहां आम आदमी का जीवन स्तर बेहतर हो सकता है। 

संसद से उम्मीद थी कि यह एक ऐसी संस्था होगी जहां भिन्न हितों के मतभेद बहस और चर्चा के बाद शांतिपूर्वक सुलझा लिए जाएंगे। पर इसकी स्थिति क्या हो गई है? मछली बाजार बन गया है।

हमारी सभी सरकारी संस्थाएं खोखली हो गई हैं। लगता है संविधान चुक गया है। बोलने और अभिव्यक्ति की औपचारिक आजादी, बराबरी आदि का एक गरीब, भूखे या बेरोजगार आदमी के लिए क्या मतलब है?

गुजरे कुछ दिनों में हमने देखा है कि संसद बमुश्किल चलती है। सदस्य चीखते-चिल्लाते हैं। अक्सर एक ही साथ और कभी भी सदन के बीच में पहुंच जाते हैं और बमुश्किल कोई अर्थपूर्ण बहस होती है या कोई काम हो पाता है। जब यूपीए सत्ता में थी तो भाजपा सदस्य सदन नहीं चलने देते थे (उस समय की विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने खुलेआम कहा था कि संसद को बाधित करना लोकतांत्रिक विरोध का जायज तरीका है)। अब जब एनडीए सत्ता में है, कांग्रेस और अन्य वही कर रहे हैं। मानसून सत्र यूं ही खत्म हो गया था और मौजूदा शीतकालीन सत्र का हश्र भी वही लगता है। लग रहा है कि बजट सत्र में भी यही सब दोहराया जाएगा। और यही चलता रहेगा। ऐसा लग रहा है कि चर्चा और कानून बनाने की  एक संस्था के रूप में संसद हमेशा के लिए खत्म हो गई है।

यही नहीं, बड़ी संख्या में हमारे सांसदों और विधायकों की आपराधिक पृष्ठभूमि है। हमारे राजनीतिज्ञ ज्यादातर कभी न सुधरने वाले दुष्ट दुर्जन हैं जिन्हें भारत से कोई वाजिब प्यार नहीं है बल्कि ऐसे लोग हैं जिन्होंने देश को लूटा है और देश की ज्यादातर संपदा को गुप्त विदेशी बैंकों और सुरक्षित जगहों पर पहुंचा दिया है। ये वो लोग हैं जो जानते हैं कि कैसे जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंक का लाभ उठाते हैं। अक्सर इसके लिए जातीय और धार्मिक घृणा को बढ़ावा देते हैं। हमारी नौकरशाही मोटे तौर पर भ्रष्ट हो चुकी है और यही हाल न्यायपालिका के बड़े हिस्से का है जो एक मजाक बनकर रह गई है क्योंकि मुकदमों पर फैसला आने में बहुत समय लगता है।

सामंतों ने हमारे लोकतंत्र का अपहरण कर लिया है और अब ज्यादातर जगहों पर चुनाव जाति और धार्मिक वोट बैंक के आधार पर होते हैं और उम्मीदवार की प्रतिभा या योग्यता बेमतलब है।

“है मौजाजान एक कुलजुम–ए-खून काश यहीं हो आता है अभी देखिए क्या है मेरे आगे” – मिर्जा गालिब (खून का एक उग्र तूफान मेरे सामने है, काश यह इतना भर ही होता …. पर देखिए आने वाले समय में क्या कुछ आता है।” मिर्जा गालिब का यह शेर भारत में आने वाले समय के लिहाज से अशुभ और अनिष्ट सूचक है।

केंद्र की मौजूदा सरकार ‘विकास’ के जिस नारे पर सत्ता में आई थी वह फर्जी, धोखा और जुमला साबित हुआ है इसलिए, अपनी लोकप्रियता बनाए रखने के लिए कुछ लोगों के पास अब एकमात्र तरीका यह बचेगा कि वे बड़े पैमाने पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमले और नरसंहार कराएं तथा इसके लिए उकसाएं। वैसे ही जैसे हिटलर ने यहूदियों के खिलाफ किया था।

केंद्र की मौजूदा सरकार ‘विकास’ के नारे और भारी अपेक्षाओं के साथ सत्ता में आई थी। इसका मतलब या कम से कम यह समझा गया था कि युवाओं के लिए रोजगार के लाखों मौके बनेंगे, औद्योगिक विकास होगा जिससे कारोबारियों और दूसरों को लाभ होगा तथा जनता को आम संपन्नता का लाभ मिलेगा।

ख) नई सरकार के सत्ता में आए डेढ़ साल से ऊपर हो चुके हैं पर विकास का नामों निशान नहीं है (अंग्रेजी में मेरे आलेख जिनके शीर्षक इस प्रकार हैं, देखें ‘दि शेप ऑफ थिंग्स टू कम’, ‘विकास’, ‘हेल्थकेयर इन इंडिया’, ‘भारत में कुपोषण’, ‘भारत में बेरोजगारी’, ‘दि ट्रिकल डाउन थ्योरी’, ‘दि ड्रीम हैज इवैपोरेटेड’ आदि।) इन्हें आप मेरे फेसबुक पेज और मेरे ब्लॉग justicekatju.blogspot.in पर देख सकते हैं। हमलोगों ने जो कुछ देखा है वह  स्वच्छता अभियान, घर वापसी सुशासन दिवस, योग दिवस आदि जैसे स्टंट हैं। अपने आलेखों में मैंने दिखाया है कि यह सरकार जिन आर्थिक नीतियों का पालन कर रही है उससे आर्थिक मंदी आना पक्का है। सच तो यह है कि हाल के आंकड़े से पता चलता है कि निर्माण और निर्यात घट रहा है (भारतीय रिजर्व बैंक के गवरनर रघुराम राजन ने कहा है कि ज्यादातर कारखाने 70% क्षमता पर काम कर रहे हैं)। इससे बेरोजगारी और बढ़ रही है। व्यापार की दुनिया में आमतौर पर मंदी है हालांकि मुट्ठीभर बड़े व्यापारियों को भले ही लाभ हुआ हो। आवश्यक खाद्य पदार्थों जैसे दाल और प्याज की कीमतें पहले ही आसमान छू चुकी हैं।

ग) नतीजनत यह सरकार दिन प्रतिदिन अलोकप्रिय होती जाएगी। लोगों खासकर युवाओं का भ्रम धीरे-धीरे टूटेगा और वे महसूस करेंगे कि उन्हें बेवकूफ बनाया गया और हमारे सुपरमैन ने सत्ता में आने पर भारत को स्वर्ग बनाने तथा शांग्री-ला लाने का झूठा वादा किया था और अब लोगों को अधर में छोड़ दिया है।

घ) भ्रम दूर होने और निराशा हाथ लगने के साथ भारत में लोग जिन आर्थिक मुश्किलों का सामना कर रहे हैं और बढ़ती कीमतों, बेरोजगारी, बड़े पैमाने पर कुपोषण, किसानों की आत्महत्या आदि के साथ जिन परेशानियों से जूझ रहे हैं उसका असर यही होगा कि बड़े पैमाने पर लोकप्रिय आंदोलन चलेंगे, गड़बड़ियां होंगी देश भर में उथल-पुथल होगा।

इन सब चीजों का निष्कर्ष यह है कि भारत में एक तरह कि फ्रेंच क्रांति अवश्यंभावी लगती है। हालांकि, इससे पहले लंबी अवधि तक अराजकता रहेगी।

उपरोक्त लेख जस्टिस मार्कंडेय काटजू के अंग्रेजी में लिखे आर्टकिल का हिंदी अनुवाद है. वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक संजय कुमार सिंह ने ट्रांसलेशन का काम बिना शुल्क लिए भड़ास की खातिर किया है. संजय जी से संपर्क anuvaad@hotmail.com के जरिए किया जा सकता है. जस्टिस काटजू का अंग्रेजी में लिखा मूल आर्टकिल पढ़ने के लिए नीचे के शीर्षक पर क्लिक करें>

The Tennis Court Oath has occurred in India



भड़ास का ऐसे करें भला- Donate

भड़ास वाट्सएप नंबर- 7678515849



Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *