वह भी क्या समय रहा होगा जब कोर्ट-कचहरियों में हिन्दी में बहस करना गुनाह माना जाता था, उन वकीलों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। बोल-बाला था तो अंग्रेजी का। जज को ‘श्रीमान’ कहने वाले कम और ‘मी लार्ड’ कहने वाले अधिक। धोती-कुरता जैसे भारतीय परिधान धारण कर कोर्ट में उपस्थित होने वालों की संख्या कम और हाय-हल्लो कहने वाले पैंट, शर्ट, टाई और हैटधारियों की संख्या अधिक। ऐसी बात नहीं कि तब हिन्दी के प्रचार की गति मंद थी। दरअसल उस वक्त प्रचारक ही कम थे। नवजागरण और हिन्दी की यत्र-तत्र सर्वत्र मजबूती के साथ स्थापित करने का बीड़ा यदि किसी ने उठाया तो वह था बिहार का प्रथम हिन्दी पत्र ‘बिहार बन्धु’।
प्रखर राष्ट्रीय स्वर वाले बिहार बन्धु का प्रकाशन 1872-73 के बीच कोलकाता से हुआ था। उस वक्त झारखंड सहित बिहार का वर्तमान भाग बंगाल में ही शामिल था। तब कोलकाता न केवल बिहार बल्कि देश की राजधानी थी। जाहिर है सभी प्रकार की गतिविधियों की केन्द्र वह रही होगी। कचहरियों में देवनागरी लिपि में हिन्दी के प्रयोग के लिए ‘बिहार बंधु’ को सदैव याद किया जोयगा। 01 जनवरी 1881 तक उर्दू बिहार की कचहरियों की भाषा थी। जाहिर है कि सरकारी संरक्षण के अभाव में हिन्दी की प्रचार की गति मंद रही। ‘19वीं शताब्दी में पटना’ में इतिहासविद् डा0 सुरेन्द्र गोपाल ने लिखा है- उन्नीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध में हिन्दी के प्रचार की गति तेज हो गयी थी। इस प्रगति में दो घटनाओं ने महत्वपूर्ण योगदान किया। एक था 1874 में ‘बिहार बन्धु’ का पटना से प्रकाशन और दूसरा था सन् 1875 में इन्सपेक्टर्स ऑफ स्कूल के रूप में भूदेव मुखर्जी का शुभागमन।
‘बन्धु’ ने बिहार की कचहरियों में देवनागरी लिपि में हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के लिए जोरदार आन्दोलन किया। ‘बन्धु’ अपने इस प्रयास में सफल हुआ और सन् 1881 में हिन्दी बिहार की कचहरियों की भाषा घोषित कर दी गयी। देश के अन्य किसी प्रांत में हिन्दी को तब तक यह स्थान नहीं मिला था। इसी प्रकार ”हिन्दी साहित्य और बिहार“ के खंड दो की भूमिका में आचार्य शिवपूजन सहाय ने लिखा है- बिहार के पुर्नजागरण में ‘बिहार बन्धु’ तथा भूदेव मुखर्जी के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। श्री मुखर्जी यद्यपि बंगाली थे परन्तु उन्होंने हिन्दी भाषा के महत्व को समझा था। कलकत्ता विश्वविद्यालय से इन्ट्रेंस में अध्ययन के विषयों में हिन्दी को उन्हीं के कठिन परिश्रम से शामिल किया गया। उस समय बिहार की शिक्षण संस्थाओं का नियंत्रण कलकत्ता विश्वविद्यालय ही करता था। साथ ही भूदेव मुखर्जी ने हिन्दी में पाठ्य पुस्तकें तैयार करायीं और उनका प्रकाशन भी कराया। गजेटियर ऑफ बिहार के श्री एन0 कुमार के संपादकत्व में प्रकाषित पुस्तक ”जर्नलिज्म इन बिहार“ में पेज चार पर लिखा है– श्री मदनमोहन भट्ठ ने बिहारवासियों में नागरिक चेतना पैदा करने तथा बिहार की कचहरियों में देवनागरी लिपि में हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से सन् 1872 में बिहारियों के मुख पत्र के रूप में ‘बिहार बन्धु’ का प्रकाशन किया। बिहारवासियों के हितों की रक्षा करने के साथ ही इसका मूल स्तर राष्ट्रीय रहा और देष का शायद ही कोई भाग हो जहां ‘बिहार बन्धु’ नहीं जाता हो। पत्र की निर्भीकता का द्योतक उसके शीर्ष पर छपने वाला संस्कृत का वाक्य था- ‘सत्येव नास्ति भयं क्वाचित’ और अपने इसी सिद्धान्त के मुताबिक ‘बन्धु’ विदेशी शासकों तथा अन्यायियों से बराबर लड़ता रहा, जूझता रहा।
बिहार बन्धु: 27वीं दिसम्बर, 1883, जिल्द 11 नंबर 49
”शुरू-शुरू में बिहार में हिन्दी जारी होने का कारण अगर सच और वाजिब पूछो तो बिहार बन्धु है। जिस वक्त बिहार बन्धु की पैदाइश हुई उस वक्त गोया हिन्दी नेव दी गयी। इस हिन्दी के लिए बड़ी कोशिशें हुई और बहुत कुछ करने के बाद आज दीवानी, पुलिस और कचहरियों में हिन्दी की सूरत देखने को आती है। दस बरस पहले एक सम्मन को पढ़ने के लिए देहात में लोगों को हैरान होना पड़ता था। यह वह हिन्दी है जिसके चाहने वाले और कदरदान विलायत तक हैं। हिन्दी यहां की दीवानी, माल और पुलिस की कचहरियों में पूरी तरह से जारी हो गयी और विलायत के सिविल सर्विस के इम्तिहान में रखी गयी है। तब अगर आप दूसरे ऐसी कोशिश करें कि हिन्दी को उड़ा-पड़ा दें तो किसी के लिए कुछ नहीं होने वाला है।”
लेखक ज्ञानवर्धन मिश्र बिहार के वरिष्ठ पत्रकार और “आज” के प्रभारी संपादक रहे हैं. इसके आलावा श्री मिश्र “पाटलिपुत्र टाइम्स” (पटना), “हिंदुस्तान” (धनबाद) एडिटोरियल हेड और “सन्मार्ग” (रांची) के संपादक रह चुके हैं. Gyanvardhan Mishra से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
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