संजय कुमार सिंह
आज के अखबारों की खास बात यह है कि टाइम्स ऑफ इंडिया में (आश्चर्यजनक रूप से) राज्यसभा चुनाव की इतनी बड़ी खबर पहले पन्ने पर खबर नहीं है। जो हुआ और अगर वह सही है तो वाकई यह खबर नहीं है। मामला, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का हो चला है इसलिए चुनाव से यह सब तय करना बेमतलब लग रहा है और होता वही है जो भाजपा चाहती है। अगर कुछेक अपवाद हो और यह दलील दी जाये कि दूसरे ने भी किया इसलिए अकेले भाजपा नहीं, सब दोषी है तो भी मुझे लगता है कि भाजपा के सत्ता में होने का यह नुकसान नहीं हो तो भाजपा के सत्ता में रहने का लाभ तो नहीं ही है। चूंकि भाजपा साम दाम दंड भेद से चुनाव जीत जा रही है इसलिए मुझे लगता है कि एक बार फिर भाजपा ने यह साबित किया है कि उसपर प्रतिबंध नहीं लगा तो वही जीतेगी। चंडीगढ़ चुनाव के बाद सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई के बाद यह साफ है कि सुप्रीम कोर्ट ही सरकार की नेकल कस सकती है बाकी सब (ज्यादातर) डर या लालच में सरकार के समर्थन में हैं।
आज के अखबारों की कुछ सुर्खियां
आज के अखबारों में राज्यसभा चुनाव की खबर प्रमुखता से छपी है। मुख्यरूप से भाजपा के फायदे के लिए हुए मतदान में पार्टी लाइन से अलग वोटिंग, अनुपस्थिति और मांग – विवाद आदि का कारण मुख्यरूप से भाजपा की मनमानी और राजनीति ही है पर खबरों या अखबारों में उसकी चिन्ता, आलोचना या चर्चा नहीं है। कह सकते हैं कि वह मुद्दा ही नहीं है। इसकी जगह ज्यादातर शीर्षक भाजपा के समर्थन में हैं। मेरे सात अखबारों के शीर्षक इस तरह हैं।
1. कांग्रेस ने आरएसएस का थ्रिलर हारा हिमाचल सरकार खतरे में
2. हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के लिए ऑपरेशन कमल का डर
3. राज्यसभा चुनावों में छितरा इंडिया
4. बिखर गया विपक्ष … तीन राज्यों में 10 सीटें भाजपा
5. क्रॉस वोटिंग से भाजपा ने छीन लीं दो सीटें
6. भाजपा ने हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस को छोटा किया
7. भाजपा ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को हराया
सुप्रीम कोर्ट में जो हुआ
जहां तक सुप्रीम कोर्ट की बात है, इलेक्टोरल बांड पर फैसले के बाद हाल के उसके फैसलों से सरकारी मनमानी के कई मामले साफ हुए है और इसमें असंवैधानिक तरीके से चंदा वसूलना या पैसा बटोरना भ्रष्टाचार की परिभाषा में चाहे न आये मामला बिल्कुल वैसा ही है और विडंबना यह है कि सरकार अपनी एजेंसी के जरिये ऐसे ही काम के लिए विपक्षी दलों के नेताओं के खिलाफ कार्रवाई कर रही है और उन्हें सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिली है। मैं मामले का तकनीकी पक्ष नहीं जानता पर जो दिखाई दे रहा है वह यही है कि भाजपा मनमानी कर रही है और उसके शासन में दूसरे दल स्वतंत्रता पूर्वक काम नहीं कर पा रहे हैं। उन्हें सरकारी एजेंसियों के जरिये परेशान और बदनाम किया जा रहा है, देश का लोकतंत्र ही नहीं, संघीय ढांचा भी खतरे में है। ऐसे में किसी और के चुनाव जीतने की संभावना नहीं है। पिछले चुनाव की गड़बड़ियों पर कोई कर्रवाई और चेतावनी तो छोड़ दीजिये। और ऐसा इसलिए नहीं है कि भाजपा से चुनाव हारने वाले कमजोर हैं या उनका समर्थन नहीं है बल्कि चुनाव की निष्पक्षता और सत्तारूढ़ दल की नैतिकता भी संदेह के घेरे में है।
हेडलाइन मैनेजमेंट भी है
जैसा मैंने पहले लिखा है, आज टाइम्स ऑफ इंडिया में राज्य सभा चुनाव की खबर पहले पन्ने पर नहीं है और सुप्रीम कोर्ट की दो ऐसी बड़ी खबरें पहले पन्ने पर हैं जो दूसरे अखबारों में नहीं हैं, इस प्रमुखता से नहीं हैं और राज्य सभा चुनाव नतीजे को भी हेडलाइन मैनेजमेंट माना जाये तो सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी आज के अखबारों में दब गया है। खबर है, बाबा रामदेव की कंपनी के ब्रांड पतंजलि के भ्रामक विज्ञापनों का प्रचार और उसपर सुप्रीम कोर्ट का प्रतिबंध। यह मामला इसलिए भी महत्वपूर्ण है ये प्रचार सरकार समर्थक मीडिया संस्थानों को भी दिये जाते हैं और संभवतः इन्हीं पैसों के लिए मीडिया न सिर्फ पतंजलि बल्कि सरकार के खिलाफ भी खबर नहीं देता है। पुराने समय में विज्ञापन के साथ ही विज्ञापन के खिलाफ खबरें भी हो सकती थीं। अब यह इतने बड़े पैमाने पर हो रहा है लेकिन खबर लगभग नहीं है। यह साधारण नहीं है और संभव है भ्रामक विज्ञापनों के लिए पैसा रिश्वत हो, जो विज्ञापन के रूप में दिया जा रहा हो।
यह मनीलांड्रिंग का वैसा ही मामला हो सकता है जैसा सरकार विरोधियों के खिलाफ चल रहा है और जांचा जा रहा है। यहां यह भी दिलचस्प है विपक्षी नेताओं के खिलाफ मनी लांड्रिंग का मामला बनाया जाता है, उन्हें जमानत नहीं मिलती और सत्तारूढ़ दल के नेताओं के खिलाफ कार्रवाई होती ही नहीं है। कायदे से इनकी भी जांच होनी चाहिये थी पर नहीं हुई – यही बहुत कुछ कहता है। आपको बता दूं कि मोटा-मोटी यह मामला पतंजलि आयुर्वेद की दवाइयों के भ्रामक विज्ञापन का है और यह अदालत के आदेश के बावजूद चल रहा था है। सुप्रीम कोर्ट ने पतंजलि को अपनी दवाइयों का विज्ञापन करने से रोक दिया है। वैसे तो यह कार्रवाई भ्रामक विज्ञापनों को ही रोकेगी पर इससे इन विज्ञापनों से होने वाली कमाई भी रुकेगी। दूसरा मामला अस्पतालों के शुल्क है। आप जानते हैं कि हमारे देश में आम आदमी का इलाज कितनी बड़ी समस्या है और सरकारी सुविधाओं का क्या हाल है। इस कारण देश भर में निजी अस्पतालों की भरमार है जहां चिकित्सा के साथ-साथ उसके शुल्क पर भी सवाल उठते रहे हैं।
सीजीएचएस की दर सबके लिये?
दूसरी ओर, सरकार ने अपने कर्मचारियों, अधिकारियों मंत्रियों के इलाज की भी उपयुक्त और पर्याप्त व्यवस्था नहीं की है। नौकरी करने वालों के लिए ईएसआई के सरकारी अस्पताल हैं और सबके बावजूद इनका इलाज निजी अस्पतालों में भी होता है। इसलिए शुल्क दर अलग-अलग हैं। सरकारी कर्मचारियों के मामले में जो भुगतान केंद्र सरकार करती है उसके लिए दर अलग हैं और आम आदमी के लिए दर अलग। दोनों में अंतर मामूली नहीं है। आज की खबर के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि सरकार अस्पतालों के शुल्क को मानक बनाये वरना वही सीजीएचएस रेट को ही लागू कर सकती है। आप जानते हैं कि कोविड के टीके की दर भी अस्पतालों के लिए अलग-अलग थी और दलील यह दी गई थी कि अस्पताल कई तरह (या स्तर के हैं) वहां उपलब्ध सुविधाएं अलग हैं इसलिए सबकी दर समान नहीं हो सकती है। यह उत्पाद पर एमआरपी (अधिकतम खुदरा मूल्य) लिखने के नियम के खिलाफ है। वह भी तब जब किसानों के लिए एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) तय करने की मांग नहीं मानी जा रही है। कोविड के समय टीके की कीमत एक रखकर भिन्न अस्पतालों के लिए लगाने का खर्च अलग तय किया जा सकता था जो नियमानुसार काम करना होता। पर ऐसा नहीं करके सरकार ने नए अस्पतालों को मनमानी करने की छूट दी थी।
ऐसे में अस्पतालों के शुल्क या भिन्न प्रक्रिया की दर तय होनी चाहिये पर ऐसा नहीं है। मांग के बावजूद नहीं है। खबर के अनुसार इसी का नतीजा है कि मोतियाबिन्द के ऑपरेशन का शुल्क सरकारी अस्पताल में 10,000 रुपये प्रति आंख है तो निजी अस्पताल में 30,000 रुपये से लेकर एक लाख 40,000 रुपये तक है। सुप्रीम कोर्ट ने इसपर नाराजगी जताई है और मामला यह है कि इसपर 14 साल पुराने कानून को लागू नहीं किया जा सका है। जाहिर है, जनहित में इसे प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिये था और इसका फायदा सबको मिलता। लेकिन सरकार अस्पताल बनवाने, नियम बनवाने, सबकी निशुल्क चिकित्सा सुनिश्चित करने जैसे काम छोड़कर आयुष्मान जैसी बीमा योजना चला रही है। उसका प्रचार कर रही है और भ्रष्टाचार की शिकायत तो इसमें भी है लेकिन कार्रवाई दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार के खिलाफ मोहल्ला क्लिनिक से लेक दवाइयां खरीदने तक पर हो सकती है। बात इतनी ही नहीं है, जनहित की इस खबर को अखबार महत्व नहीं देते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार अपने जरूरी काम तो नहीं ही कर रही है जो कर रही है वह किसी भी तरह चुनाव जीतने का काम करती है। प्रधानमंत्री वेतन तो जनता सेवा रने का काम करने के लिए पद पर हैं औऱ वेतन पाते हैं लेकिन असल में वे राज करने के पैसे पा रहे हैं और उसी मे लगे हुए हैं।