Mahendra Mishra : जिस बात की आशंका थी आखिरकार वही हुआ। रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर अपना अभिनंदन कराने आगरा और लखनऊ पहुंच गए। उन्होंने न दिल्ली को चुना। न जयपुर। न हैदराबाद। और न ही देश का कोई दूसरा इलाका। चुनाव वाला उत्तर प्रदेश ही इसके लिए उन्हें सबसे ज्यादा मुफीद दिखा। सर्जिकल स्ट्राइक को अब कैश कराने का वक्त आ गया है। क्योंकि सरहदी एटीएम में वोट भरे पड़े हैं। लिहाजा बीजेपी अब उसे भुनाने निकल पड़ी है।
वैसे पीएम ने सहयोगियों को छाती न पीटने की सलाह दी थी। फिर क्या पर्रिकर के इस कार्यक्रम को उससे जोड़कर न देखा जाए? या फिर कोई यह भी कह सकता है कि वो छाती नहीं अपनी पीठ थपथपवाने गए थे। या पीएम साहब का यह बयान दिखावे के लिए था। और अंदर से काम जारी रखने की हरी झंडी थी। शायह यह इतिहास में पहला मौका होगा जब सेना की कार्रवाई का राजनीतिकरण हो रहा है। कोई राजनीतिक पार्टी अब तक शायद ही सेना के नाम पर वोट मांगी होगी। कल्पना कीजिए अगर बीजेपी के दौर में 1971 हुआ होता? और पाकिस्तान से कटकर बांग्लादेश बना होता? फिर इनके कार्यकर्ता क्या करते। आज तो आलोचकों को देशद्रोही ही कह रहे हैं। उस समय तो ये देश निकाला का फरमान जारी कर देते।
पूरे यूपी में जगह-जगह सर्जिकल स्ट्राइक से जुड़े पोस्टर लगे हैं। एक तरफ बीजेपी कह रही है कि यह राष्ट्रीय मुद्दा है। सभी राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर सबको सरकार का साथ देना चाहिए। दूसरी तरफ खुद उसी मुद्दे पर वोट मांगने निकल पड़ी है । कोई इनसे पूछ सकता है कि फिर सरहद पर सरकार का साथ देने वाली विपक्षी पार्टियां क्या करेंगी। बीजेपी के हिसाब से तो उन्हें चुनाव ही नहीं लड़ना चाहिए। और बीजेपी प्रत्याशियों को वाकओवर देकर उन्हें घर बैठ जाना चाहिए। दरअसल ये सार्वजनिक राजनीति की न्यूनतम मर्यादा भी निभाने के लिए तैयार नहीं हैं। लाशों पर वोट हासिल करने का इनका इतिहास पुराना है। बाबरी से लेकर गुजरात के बाद अब सरहद की बारी है। राष्ट्रवाद इनके वोट की नई मशीन है। और अब ये सैनिकों की लाशों का सौदा करने पर उतारू हैं। उरी में सैनिकों पर हमला इनके लिए मिनी गोधरा है। और बीजेपी इस मौके को अब कतई हाथ से जाने नहीं देना चाहती है।
यूपी में बारात तो सज गई है। और मुद्दा भी मिल गया है। लेकिन उसकी अगुवाई करने वाला दूल्हा नहीं था। हालांकि उसकी तलाश पूरी हो गई है। लेकिन वह चुनावी घोड़ी पर चढ़ने के लिए तैयार नहीं है। कश्मीर से लेकर उरी और पूरे सरहदी संघर्ष के मामले में आप एक चीज नई देख रहे होंगे। न यहां मोदी का चेहरा सामने है। न सुषमा स्वराज का। न अजीत डोवाल का। बार-बार केवल अकेला चेहरा गृहमंत्री राजनाथ सिंह का दिखता है। कश्मीर से जुड़े किसी मामले की बैठक हो या कि घाटी का दौरा। हर जगह राजनाथ होते हैं। आम तौर पर मोदी जी किसी को श्रेय नहीं लेने देते। सुषमा स्वराज का मामला किसी से छुपा नहीं है। लेकिन इस समय उल्टी गंगा बह रही है।
दरअसल मोदीजी और अमित शाह यूपी में राजनाथ को पार्टी का चेहरा बनाना चाहते हैं। लेकिन राजनाथ ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। इसमें उन्हें अपने लिए कोई फायदा नहीं दिख रहा है। गृहमंत्रालय तो जाएगा ही। सरकार न बनने पर सब कुछ के खत्म होने की आशंका है। लेकिन मोदी के इस तीर के दो निशाने हैं। या फिर कहें उनके दोनों हाथ में लड्डू हैं। अवलन उन्हें केंद्र में अपने सबसे मजबूत प्रतिद्वंदी से निजात मिल जाएगी। और अगर पार्टी जीत गई फिर तो बल्ले-बल्ले है। और हारने पर राजनाथ नाम की यह बला हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। इसीलिए कश्मीर की पूरी कवायद में राजनाथ के चेहरे को आगे रखा गया है। और उन्हें एक विजेता सेनापति के तौर पर पेश करने की कोशिश की जा रही है। अगर फिर भी राजनाथ नहीं माने। तो सूबे में नीचे के कार्यकर्ताओं से उनकी मांग शुरू करवा दी जाएगी। जिसकी कि छिटपुट खबरें आनी भी शुरू हो गई हैं। और उसके बाद भी पार्टी की जरूरत को ठुकराने पर उन्हें खलनायक के तौर पर पेश करना आसान हो जाएगा।
सरहद के गर्म तवे पर पीएम ने भी वोट की रोटी सेंकने का ऐलान कर दिया है। दूसरों को छाती न पीटने की सलाह देने वाले मोदी जी ‘रावण नवाज’ को मारने लखनऊ जाएंगे। पहली बार कोई पीएम दशहरा दिल्ली से दूर मनाएगा। लखनऊ जाने के पीछे वोट के अलावा दूसरा और क्या कारण हो सकता है? सरकार और पार्टी ने मिलकर पाकिस्तान विरोधी भावनाओं को वोट में बदलने का फैसला कर लिया है। और इसके लिए वो कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहती हैं। लेकिन भारतीय राजनीति का यह चेहरा बेहद विकृत है। यह घृणास्पद होने के साथ निंदनीय भी है।
खून से सनी वर्दियों का इससे बढ़कर कोई दूसरा अपमान नहीं हो सकता है। सूबे में सांप्रदायिक गोलबंदी हो इसका हर तरीके से इंतजाम किया जा रहा है। अखलाक की हत्या के आरोपी का शव तिरंगे में लिपटाया गया। चर्चित अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी को अपने गांव की रामलीला में अभिनय करने से मना कर दिया गया। अगर पहले ने गंगा-जमुनी तहजीब को कलंकित करने का काम किया है। तो दूसरे ने तिरंगे को अपमानित करने का।
वरिष्ठ पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट महेंद्र मिश्र की एफबी वॉल से.