Manika Mohini : बहुत बार लिखने को सोचा अमृता प्रीतम और इमरोज़ की प्रेम-कथा के बारे में। उस समय के कुछ वरिष्ठ पंजाबी लेखकों के मुँह से भी जो सुना था, वह कहीं दिमाग में फँसा रह गया था। इमरोज़ एक बेरोजगार चित्रकार थे, उम्र में अमृता से बहुत छोटे। उनके पास तब न नाम था, न कोई कैरियर। कहाँ अमृता प्रीतम का कद, कहाँ इमरोज़ का कद? उनका उम्र में छोटा होना भी उनका कोई प्लस पॉइंट नहीं था।
इमरोज़ को अपने घर में रख लेने के पीछे अमृता का प्यार तो कतई नहीं था क्योंकि वह साहिर को भुला नहीं पाई थीं। तो क्या साहिर को चिढ़ाने के लिए अमृता ने इमरोज़ को अपनाया था? वे ऐसा कर सकती थीं क्योंकि उनकी प्रतिबद्धता किसी अन्य पुरुष से नहीं थी। वे समाज के प्रति भी जवाबदेह नहीं थीं। इस मामले में वे कतई-कतई परंपरावादी नहीं थीं, घोर विद्रोही थीं।
उस समय अमृता का रुख इमरोज़ के प्रति यह रहा कि चलो, इसे भी रख लो एक किनारे, काम आएगा। और वह उनके काम आए भी। उनके घरेलू काम करने से लेकर एक बड़ा सहारा यह कि लो जी, अब अमृता एंगेज हो गईं। वैसे भी जिस उम्र में अमृता को इमरोज़ मिले, उस उम्र में उनका एंगेज होना या अवेलेबल होना इतना मायने नहीं रखता था।
साहिर लुधियानवी के फ़िल्मी गीतों की पुस्तक, ‘आओ कोई ख्वाब बुनें’ पर अमृता प्रीतम की यह टिप्पणी कि ‘जुलाहा सारी उम्र ख्वाब ही बुनता रहा’, इस आशय की ओर संकेत करती है कि इमरोज़ के मिल जाने के बाद भी अमृता को साहिर के न मिलने का अफ़सोस रहा।
यानी अमृता का इमरोज़ के प्रति प्यार मिलावट भरा था, एक तरह से खानापूरी थी। इमरोज़ भी साहिर के प्रति उनके लगाव से अवगत थे लेकिन इमरोज़ का व्यक्तित्व परजीवी किस्म का था। इमरोज़ के पास अन्य कोई विकल्प नहीं था। वह किसी अन्य विकल्प को चुनने में असमर्थ थे। यह प्यार नहीं, मजबूरी थी, उनके व्यक्तित्व की कमज़ोरी थी। अमृता के सिवा उनका कहीं कोई रिश्ता या रिश्तेदारी नहीं थी। मुझे पता है, मेरे इस लेख से अमृता और इमरोज़ के दीवाने मुझ पर क्रुद्ध हो सकते हैं पर नज़र अपनी-अपनी, नज़रिया अपना-अपना।
लेखिका मणिका मोहिनी की एफबी वॉल से.
Dayanand Pandey : फिर आप प्रेम नहीं जानतीं Manika Mohini जी। यह आप का दुर्भाग्य है। दुर्भाग्य है आपका जो प्रेम को तराजू पर तौलती हैं। लेकिन दिक्कत यह कि आप अमृता प्रीतम और इमरोज का प्यार भी नहीं जानतीं। जो जग जाहिर है। अगर जानती होतीं तो ऐसी अभद्र और सतही टिप्पणी नहीं लिखतीं। अमृता प्रीतम इस डाल से उस डाल कूदने वाली स्त्री नहीं थीं। बाल विवाह था। छ बरस की उम्र में सगाई हो गई थी। विवाह भले टूट गया पर उन्हों ने अपने पति प्रीतम सिंह का नाम अपने नाम से ताजिंदगी जोड़े रखा। अमृता प्रीतम नाम लिखती रहीं। दूसरा विवाह भी नहीं किया। साहिर से प्रेम किया तो छुपाया नहीं। इमरोज के साथ लिव इन में रहीं तो भी नहीं छुपाया। इमरोज बड़े चित्रकार ही नहीं, पंजाब के बड़े जमीदार परिवार से भी थे, मूल नाम इंद्रजीत था।
अमृता के प्यार में वह इमरोज हो गए। छ साल छोटे जरुर थे इमरोज पर आर्थिक रुप से अमृता पर आश्रित नहीं थे। वह जमीदार परिवार से थे ही, चित्रकार भी बड़े थे। इस से भी बढ़ कर बड़े आदमी थे, बड़प्पन बहुत था उनमें और सब से बड़ी बात यह कि वह प्रेमी बहुत बड़े थे। अमृता जब अंतिम समय बहुत बीमार थीं तब सालों उन्हों ने अमृता की अनथक सेवा की। उन को रोज कई-कई इंजेक्शन लगते थे। तकलीफ़ से भर कर इमरोज ने एक दिन डाक्टर से कहा कि इस के सारे इंजेक्शन मुझे लगा दीजिए , इसे काम कर जाएगा। आप कह सकती हैं किसी के लिए, इसी विश्वास के साथ?
अमृता ने इमरोज के लिए सालों साल न सिर्फ़ रोटियां बनाई बल्कि सिर्फ़ इमरोज के लिए अपनी मशहूर नज्म लिखी, मैं तैनू फ़िर मिलांगी (मैं तुझे फ़िर मिलूंगी)। आप क्या जानें अमृता और इमरोज के प्रेम की तासीर भला । जानतीं तो इमरोज को परजीवी नहीं लिखतीं। असल परजीवी तो आप हैं जो सुनी-सुनाई बातों के आधार पर ऐसी सतही टिप्पणी लिख कर अमृता-इमरोज के प्यार को तराजू पर तौल बैठी हैं। यह गुड बात नहीं है। थोड़ा पढ़ भी लिया किया कीजिए। तो शायद ऐसी सतही, छिछली और प्रेम विरोधी टिप्पणी लिखने से इस उम्र में बच लेंगी। Rajeshwar Vashistha जी, आप भी ध्यान दीजिए। ऐसी छिछली टिप्पणी पढ़ कर कोई राय मत बनाया कीजिए। जान लीजिए कि इमरोज परजीवी नहीं थे । खुद्दार प्रेमी थे। हां, अमृता के लिए जांनिसार प्रेमी थे। अमृता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था इमरोज ने। मुझे कहने दीजिए ईश्वर इमरोज जैसा प्रेमी हर पुरुष को बनाए। कम से कम मैं तो बनना ही चाहूंगा।
लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार दयानंद पांडेय की एफबी वॉल से.
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Prabhat Ranjan : साहिर लुधियानवी के फ़िल्मी गीतों के संकलन का नाम था- ‘आओ कोई ख्वाब बुनें!’ जब अमृता प्रीतम के पास यह किताब इमरोज़ ने देखी तो हँसते हुए कहा- साहिर सिर्फ ख्वाब बुनता ही रह गया…
Shashi Sharma यह बात अमृता ने कही थी– जुलाहा सारी उम्र ख़ाब ही बुनता रहा।
Manika Mohini इसका अर्थ यह निकला कि इमरोज़ के मिल जाने के बाद भी अमृता को साहिर के न मिलने का अफ़सोस रहा। यानी अमृता का इमरोज़ के प्रति प्यार मिलावट भरा था।
Shashi Sharma हाँ। अफ़सोस तो रहा ही होगा।
Rajya Bardhan अमृता भी जिंदगी भर साहिर का ही ख़्वाब बुनती रही और देखती रही। वह तो इमरोज था जो अमृता का ख़्वाब बुनता रहा और हकीकत का अमली जामा भी पहनाया। अमृता तो ताउम्र साहिर को भूल नहीं पाई। इमरोज सबकुछ जानकर भी अमृता को ही आराध्य की तरह भक्ति वाला प्रेम करता रहा।
Manika Mohini क्या इसलिए कि इमरोज़ के पास अन्य कोई विकल्प नहीं था? वह किसी अन्य विकल्प को चुनने में असमर्थ था?
Rajya Bardhan हो सकता है। मैं अमृता और इमरोज, दोनों से उसके हौजखास वाले घर पर मिला हूँ। इमरोज कहीं से भी आकर्षक नहीं नज़र आया। हो सकता है, रूहानी सौंदर्य हो जबकि साहिर आकर्षक व intelectual था। इमरोज का भारतीय चित्रकला में कोई स्थान नही है। इमरोज को लोग अमृता के कारण जानते हैं।
Prabhat Ranjan इमरोज़ जोकर लगते हैं Rajya Bardhan. उनकी एक ही पहचान है कि वे अमृता के प्रेमी थे
Rajya Bardhan सच में। भक्त प्रेमी।
Archana Verma क्या इमरोज़ होना आसान है?
Manika Mohini जी हाँ, बहुत आसान है। अगर आप गरीब हैं, ज़रूरतमंद हैं तो।
Archana Verma गरीब, जरूरतमंद है तो तात्कालिक इमरोज़ हो सकते है लेकिन ताउम्र…?
Manika Mohini ताउम्र होना भी व्यक्ति की कोई अपनी मजबूरी हो सकती है।
Manoj Kushwaha प्रेम में मर के देखो….जीवित होकर।।
ऋषि कुमार इमरोज का मूल्य सिर्फ खुदा जानता है और अमृता
Rajya Bardhan अमृता का साहिर और इमरोज की अमृता…
Manjari Srivastava मणिका फिर हर गरीब और ज़रूरतमंद इमरोज़ क्यों नहीं बन पाता?
Manika Mohini उसके लिए अमृता चाहिए ना, मंजरी।
Shashi Sharma अमृता इमरोज़ की नहीं थी। वह दोनों एक दूसरे की कंपनी थे। न तोको और न मोको ठौर।
Manika Mohini सही मुहावरा, शशि जी।
Shashi Sharma कलाकार होने की यह मजबूरी होती है। रहने सहने का ठौर ठिकाना मिल जाए तो पुरुष अहं को रूहानी इश्क कहने में क्या परेशानी है। बुरा भी नहीं है। मणिका जी, हिन्दुस्तान में 90% संबंध ऐसे ही होते हैं। ख़ास तौर पर पत्नी की ओर से।
Archana Verma अमृता इमरोज़ की नहीं थी,ये सच है लेकिन इमरोज़ तो थे ,फिर उनके इश्क़ पर शक़ कैसा
Shashi Sharma हाँ अर्चना। इकतरफ़ा प्रेम में अक्सर प्रेम का प्रतिदान अनुग्रह के रूप में होता है।
Archana Verma शशि जी मेरे हिसाब से अनुग्रह शब्द ठीक नहीं..इमरोज़ ने तो इश्क़ में खुद को साधा है, खुद का पिंड दान किया है..ऐसा मेरा मानना है
Seemaant Sohal इस घटना का जिक्र अमृता ने किस किताब में किया है ?
Shashi Sharma ज़ाहिर है रसीदी टिकट में।