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सुख-दुख

रंडियों के गांव वाली चित्रलेखा

कुमार सौवीर

नटपुरवा, हरदोई : गर्म-गोश्‍त की दूकानों वाले गांव से पहले करीब डेढ़ दर्जन अधेड़ और युवक मेरी कार को घेर लेते हैं और फिर शुरू हो जाती है इन दुकानदारों के बीच ग्राहकों को अपनी तरफ खींचने की आपाधापी। कोई गेट खोलने में जुटा है तो कोई रास्‍ता रोक रहा है। ग्राहक को लुभाने और खींचने के लिए मानो गदर-सी मच गयी है।

कुमार सौवीर

नटपुरवा, हरदोई : गर्म-गोश्‍त की दूकानों वाले गांव से पहले करीब डेढ़ दर्जन अधेड़ और युवक मेरी कार को घेर लेते हैं और फिर शुरू हो जाती है इन दुकानदारों के बीच ग्राहकों को अपनी तरफ खींचने की आपाधापी। कोई गेट खोलने में जुटा है तो कोई रास्‍ता रोक रहा है। ग्राहक को लुभाने और खींचने के लिए मानो गदर-सी मच गयी है।

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एक बोला: एक से बढिया बिटियन हौ हमरे लगे। पहिले दीखि ल्‍यौ। बिटियन के दिखावै के कउनौ पइसा नाय हौ। परसंद लगै तब पइसा दीह्यौ। कउनौ जबरजस्‍ती तौ ह्यौ ना।

दूसरा: ( एक-दूसरे को मोटी गाली देते हुए ) हटौ ना। हमका बात करै द्यौ। साहब, पहिले देख्‍य ल्‍यौ। माल त अइसन ह्यौ—

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फिर शुरू हो जाता है दुकानदारों के बीच झगड़ा और आपसी नंगी गालियों का तूफान। कान की लवें गरम हो गयीं। लकीर की तरह गहरे गड्ढों के बीच पसरी सड़क पर अपनी कार आगे बढ़ा लेता हूं। कुछ दूर एक दूकान के सामने रूक कर जैसे ही चंद्रलेखा का पता पूछने की कोशिश करता हूं तो दुकानदार हम लोगों के हाथ पकड़ कर भीतर खींचना चाहता है: एइसन ब्‍यवस्‍था पूरी ह्यौ इहां। आवौ ना साहब। इहां सबै बिटियन तइयार हैं।

एक किशोर तो पूरी दीनता के साथ बोल पड़ा : हमार बहिन के द्यौ खिल्‍यौ ना साहब।

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ऐसे ही अनुनय-विनय और अपने पीछे छोड़ी गयीं अरदासों के छींटों से बचने के लिए हम फिर आगे बढ़े। साथ में दो तेज-तर्रार पत्रकार। चंदौली वाले अनिल सिंह और हरदोई के आदर्श त्रिपाठी। संडीला में मिल गये थे आदर्श। अगला करीब 20 मील का रास्‍ता और वापसी उनके साथ रही। दलालों की बातचीत वाले माहौल की ही तरह सड़क के नाम पर शर्मनाक रास्‍ता, धंसी पुलिया, खतरनाक गड्ढे और धूल के बगूले। संडीला के बाद से ही बिजली तो दूर, खंभे तक का नाम-निशान नहीं। हम आये हैं यहां चंद्रलेखा से मिलने। 55 बरस वाली चंद्रलेखा यहां गोदौरा के पास नटपुरवा में रहती है। एक बेटी और 3 बेटे। बेटी की शादी कर दी है, जबकि बेटे मजदूरी करते हैं। चंद्रलेखा ने दूसरों के कुछ खेत बटाई पर हासिल कर लिए हैं।दरअसल, नटपुरवा और सिकरोरी गांव बिलकुल सटे हुए हैं। बीच में एक नहर है, लेकिन इन दोनों की संस्‍कृति बिलकुल अलग। व्‍यवसाय तो दूर, इन दोनों के बीच बात-बोली तक कत्‍तई नहीं। पूछने पर सिकरोरी वाले अपना नाक-भौं सिकोड़ते हुए सपाट जवाब देते हैं : अरे साहब, यह रंडियों का गांव है। चाहे वो मौलवी साहब रहे हों या पंडित जी, संडीला से आगे बढ़ने पर जितने भी लोगों से नटपुरवा का पता पूछा, जवाब शरारती मुस्‍कान के साथ ही मिला।

करीब साढ़े 3 सौ साल पहले शुरू हुई थी नटपुरवा की मौजूदा हालत। 7 बेटियों के बाप जब्‍बर बाबा जब घर चलाने में असमर्थ हो गये तो पास के मंडोली गांव के जमीनदार के खेतों में बेटियों ने मजदूरी शुरू कर दी। जमींदार की नीयत बदली और बच्चियों को मजूरी में अनाज ज्‍यादा मिलने लगा। नीयत और लालच की डगर में जब्‍बर की गृहस्‍थी के चूल्‍हे भड़कने लगे और उसी रफ्तार से सातों लड़कियों का यौवन भी जमींदार की हवास में स्‍वाहा हो गया। और नट, बंजारा जैसी कुशल जातियों की युवतियों की ऐसी कमाई पर नटपुरवा में फलता-फूलना शुरू हो गया। आज करीब 5 हजार आबादी वाली में यहां की करीब एक दर्जन युवतियां मुम्‍बई में हैं। 7 तो दुबई में कमा रही हैं। लेकिन कई लड़कियां ऐसी तो रहीं जो गांव की दहलीज से निकल कर कमाई के लिए बाहर गयीं, लेकिन कभी लौटी ही नहीं।लेकिन चंद्रलेखा ऐसी नहीं थीं। एक वेश्‍या श्‍याहन के पुत्र थे महादेव। पास वाले सिकंदरपुर वाली पार्वती से शादी हो गयी महादेव की। चंद्रलेखा उन्‍हीं की बेटी है। तीन और भाई हैं। लेकिन महादेव और पार्वती ने बेटी चंद्रलेखा को गांव की तर्ज पर जिन्‍दगी के बजाय उसे पढ़ाने-लिखाने का रास्‍ता दिखाया। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया।

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गांव की दस्‍तूर के मुताबिक गांव की बहुओं को तो पूरा सम्‍मान मिलता है, लेकिन बेटियों का बिकना अनिवार्य। उनके दुकानदार होते हैं पिता और भाई। रास्‍ता बताती हैं वे महिलाएं जो उम्र चुक जाती हैं और इस तरह वे भूख और अपनी बाकी उम्र काटने की जुगत लगाती हैं। चंद्रलेखा  के साथ भी यही हुआ। श्‍याहन ने अपनी पोती को उस धंधे में लगा ही दिया। दादी की साजिश के चलते बुआ राजेश्‍वरी ने एक ग्राहक खोजा था। तब चंद्रलेखा की उम्र थी महज 15 साल। अचानक एक शाम उसके घर एक आदमी आया तो घरवाले घर के बाहर चले गये। वह कयामत की रात थी चंद्रलेखा के लिए जब उसे किसी शेर ने बकरी की तरह बेतरह नोचा-खसोटा। बाद में पता चला कि उसकी अस्‍मत 200 रूपये की कीमत पर अदा की गयी है। घर में शराब और गोश्‍त का जश्‍न मनाया गया कि लड़की अब कमाने लगी है। और उसके बाद तो यह नीयत ही बन गयी। रोज ब रोज, यही सब। हर रात मौत, जीवन नर्क। बेटियों और बहनों की देह से बरसते नोटों पर जी रहे लोगों कोई दिक्‍कत नहीं। कौन बोले। विरोध की तो कोई गुंजाइश ही नहीं थी। हम लोगों को खुद को भड़वा और दलाल कहलाने में कोई गुरेज नहीं होता। खैर, चंद्रलेखा सुंदरता की कसौटी पर नहीं थी, सो, उसे नाचना पड़ा। शादी-मुंडन में। नाचना क्‍या, बस कुछ भोंडा सा कमरमटक्‍का और बेहूदा और अश्‍लील फिकरे। हर नोट दिखाने वालों का भद्दा अंदाज। भड़वे और दलाल बढ़ते रहे और देह-व्‍यापार भी। 30 साल की उम्र तक यही तक तो चलता ही रहा।

ढलती उम्र पर उसने अपनी देह बेचने का धंधा खत्‍म करना पड़ा। मजबूर भी थी मैं। एक सवाल पर चंद्रलेखा बताती है कि बदन बेचने की उम्र होती ही कितनी है। सिर्फ तब तक, जब तक उसे बच्‍चे न पैदा हो जाएं। उसके बाद उसकी तरफ कोई झांकता भी नहीं। हां-हां, पति तो खूब होते हैं हम लोगों के। हर रोज एक नया मर्द, हर रात सुहागरात और हर रात एक नया पति। सवालों के जवाब पर चंद्रलेखा साफ अल्‍फाजों में बोलती हैं कि किसी रंडी के बच्‍चों के बाप का नाम कौन जानता है। चंद्रलेखा के सबसे बेटे नीरज उर्फ टीटू ने अपने पिता का नाम पूछने पर बताया कि इस गांव में ज्‍यादातर लोगों को अपने पिता का पता ही नहीं। ऐसी कोई परम्‍परा यहां ही नहीं। शादी का मतलब यह नहीं होता है कि उसके पैदा होने वाले बच्‍चे के बाप का नाम पहचाना जाए।

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चंद्रलेखा को खूब याद है वह दिन, जब लखनऊ के बख्‍शी तालाब इलाके के कठवारी गांव में राम औतार सिंह मास्‍टर के बेटे की शादी पर उसे नाच के लिए बुलाया गया था। जून की गर्मी सिर नचा रही थी। चंद्रलेखा की टीम थोड़ी देर से पहुंची तो अपने मेहमानों के सामने शेखी बखारने के लिए रामऔतार ने गुस्‍से में उसे रंडी की औलाद कहते हुए बंदूक दिखा कर डराया। रूंआसी चंद्रलेखा ने गुस्‍से में बोल दिया कि मैं रंडी जरूर में मेरी मां रंडी नहीं थी। चंद्रलेखा भी भिड़ गयी और साफ कह दिया कि अब वे नाच नहीं करेगी। चंद्रलेखा बताती है कि उसने नाच-गाना उसी समय बंद कर दिया और चंद्रिका माई मंदिर की सीढि़यों पर अपने घुंघरू को माथे लगाते हुए कसम खा ली कि चाहे कुछ भी हो जाए, मगर अब यह धंधा हमेशा के लिए बंद।

मगर कुछ ही दिनों में आटा-दाल का दाम दिखने लगा, मगर वह संकल्‍प से हटी नहीं। कलपते बच्‍चों के लिए उसने गुड़ की कच्‍ची शराब बनाने की कोशिश की। महुआ वहां होता ही नहीं है। तैयारी के लिए अपनी चांदी के गहने बेचे। बच्‍चों की मदद से शराब बनायी और उसी दिन शाम को उसे बोतल भरने चली। उत्‍साह में छोटे बेटे मोनू ने मां की मदद के लिए माचिस जलाकर रोशनी करने की कोशिश की, लेकिन अचानक शराब भक्‍क्‍क्‍क्‍स से जल गयी। उसी समय से यह काम भी खत्‍म। अगले दिन से दूर के गांव में मजदूरी करने लगी। बड़ा बेटा नीरज उर्फ टीटू लखनऊ के नक्‍खास में एक ढाबे पर बर्तन धोने में लग गया।

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कुछ दिनों तक यही चला कि इसी बीच एक सामाजिक कार्यकर्ता संदीप ने उसकी मदद की। शुरूआत हुई नटपुरवा की गंदगी दूर करने से। जबर्दस्‍त मेहनत हुई और जल्‍दी ही बदहाली के खिलाफ उसकी पहचान केवल हरदोई में ही नहीं, बल्कि देश भर में हो गयी। देह-व्‍यापार के खिलाफ उसका आंदोलन इतना मजबूत हुआ कि नटपुरवा में यह धंधा एक चौथाई ही सिमट गया। गांव के बच्‍चों के लिए उसने स्‍कूल खुलवाया। जनसमस्‍याओं के खिलाफ आंदोलन में चंद्रलेखा अब जनजागरण की प्रतीक हो गयी। मेधा पाटकर के साथ दिल्‍ली का प्रदर्शन हो या पेप्‍सी के खिलाफ बनारस में पुलिस की लाठियां, चंद्रलेखा का नाम हो गया। मुम्‍बई में नीता अम्‍बानी ने अपनी हीरोज अवार्ड के लिए उसे पांच लाख का पुरस्‍कार दिया। उसी रकम से उन्‍होंने अपना मकान बनवाया और कुछ सामान खरीदा। जमीन खरीदने की हैसियत ही नहीं।

चंद्रलेखा साफ कहती हैं कि इस गांव में अवैध शराब तो अभी तो बनायी-बेची जाती है। पुलिसवालों के तर्क अलग हैं। वे कहते हैं कि उन्‍हें रोक दिया तो ये डकैती शुरू करेंगे। तो इससे बेहतर है शराब का धंधा ही करते रहें। वेश्‍यावृत्ति की दिक्‍कत पर उन्‍होंने एक बार यहां के एक एसपी ओपी सागर से शिकायत की। जानते हैं कि क्‍या जवाब मिला। बोले कि अगर वहां धंधा होता है तुमको क्‍या ऐतराज। पैसा तो यहां आता ही है। बेशुमार। लेकिन पूरा गांव मौज करता है। रोज पार्टियां। बाहर से आने वाले लोगों की तादात बहुत है। लखनऊ से आईएएस, आईपीएस, इंजीनियर, ठेकेदार। धुंधलाते ही यहां उन लोगों की बाढ़ आ जाती है जो यहां अपना चेहरा काला करते हैं। कई लोग तो ऐसे हैं जो यहां की लड़कियों को बाहर बुलाने के लिए बड़ी रकम अदा करते हैं। लेकिन इसमें खतरे खूब हैं। 

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इसी बीच अपनी बेटी पूनम की शादी की। शाहजहांपुर के एक यादव परिवार में। लेकिन चंद्रलेखा ने कभी कुछ छुपाया नहीं। अब वह गांव की दूसरी लड़कियों की शादी में जुटी है और इसके लिए वह रकम जुटा रही है ताकि गांव की दूसरी लड़कियों को उन माहौल न मिले जिसे उसने कभी भोगा है या दूसरी लड़कियां कर रही हैं। अब भी चंद्रलेखा रामचरित मानस, भागवत, पूजा, व्रत करती है ताकि आत्‍मबल बढ़ता रहे। गरीबों के लिए सरकारी मकान के बारे में कोई खबर ही नहीं। गिने-चुने इंडियामार्क-2 ही लगे हैं। शहर इतनी दूर है कि बीमारी पर ईलाज पहुंचने से मौत आ जाती है। च्ंद्रलेखा को एक जुझारू नेता महावीर सिंह दिखा जो हर आवाज पर मदद करने पहुंचा। आज वे विधायक हैं। वरना पुराने विधायक मन्‍नान तो मंत्री होने के बावजूद हमें नटपुरवा में कभी झांकने तक नहीं आये। यहां झांकने तो नरेश अग्रवाल भी कभी नहीं आये। नरेश अग्रवाल  को इस इलाके से कभी कोई मतलब ही नहीं। उनका यह इलाका हरदोई शहर तक ही सिमटा है ना, और वोट के अलावा वे कुछ सोचते तक नहीं। इसीलिए।

सामाजिक कार्यकर्ता सुश्री ऊषा ने इस गांव को करीब से महसूस किया है। वे बताती हैं कि तब यहां आने वाला ग्राहक यहां लुट-पिट कर ही लौटता था। गनीमत कि अब तो हालात फिर बहुत ठीक हैं। चंद्रलेखा ने वाकई बेमिसाल काम किया है यहां। ऊषा बताती हैं कि अभी यहां बहुत कुछ किया जा सकता है, बशर्ते सरकारी अमला सक्रिय हो। मुख्‍य विकास अधिकारी आनन्‍द द्विवेदी इस इलाके को लेकर चिंतित हैं। वे कहते हैं कि अब इस क्षेत्र पर ध्‍यान दिया ही जाएगा। एडीएम राकेश मिश्र का मानना है कि ऐसे

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विकास कार्यों के बल पर हालातों को काबू किया जा सकता है और महिला सशक्तिकरण की योजनाएं इसमें प्रभावी कारगर होंगी। मगर जिलाधिकारी अनिल कुमार को पता ही नहीं है कि हरदोई में क्‍या हो रहा है। वे नहीं जानते हैं कि इस जिले में कुछ ऐसा भी होता है। बहरहाल, वे पता करेंगे कि ऐसे गांव हमारे जिले में हैं भी या नहीं। लेकिन पुलिस अधीक्षक आरके श्रीवास्‍तव मानते हैं कि कानून को सख्‍ती से लागू करके अपराध को खत्‍म किया जाएगा। वे मानते हैं कि इस बारे में जल्‍दी ही काम किया जाएगा।

लेखक कुमार सौवीर यूपी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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