सुशोभित-
एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय- जो इन दिनों दुनिया को मथ रहा है, लेकिन हिन्दी के गाफ़िल संसार में जिस पर कोई चर्चा नहीं हो रही है- यह है कि आसन्न क्लाइमेट-क्राइसिस को देखते हुए युवा जोड़ों- चाहे वे विवाहित हों या लिव-इन सहभागी- को संतान उत्पन्न करने का निर्णय लेना चाहिए या नहीं? क्योंकि वे अपने बच्चों को इस बात की गारंटी नहीं दे सकेंगे कि आने वाले 50 सालों में उन्हें जीवन-योग्य पर्यावरण मिल पायेगा!
पश्चिम में यह आन्दोलन ज़ोर पकड़ चुका है। ‘टाइम’ पत्रिका ने हाल ही में इसको रिपोर्ट किया कि क्लाइमेट-क्राइसिस से युवाओं में हताशा घर कर गई है और वे अपनी फ़ैमिली को एक्सटेंड नहीं करना चाहते हैं। चीन और जापान के भी युवा संतानोत्पत्ति से कतराने लगे हैं। अगर आप इंगमार बर्गमान या आन्द्रे तारकोव्स्की का सिनेमा देखें तो पाएंगे कि 1960 और 70 के दशक में न्यूक्लियर-वॉर के ख़तरों के कारण भी ऐसी ही मनोदशा यूरोप के लोगों की निर्मित हो गई थी। बर्गमान की एक फिल्म (‘वाइल्ड स्ट्रॉबेरीज़’) की नायिका इसीलिए माँ बनने से इनकार कर देती है। एक अन्य फिल्म (‘विंटर लाइट’) में एक पुरुष आसन्न सर्वनाश से अवसादग्रस्त होकर आत्महत्या कर लेता है। तारकोव्स्की की फिल्म ‘द सैक्रिफ़ाइस’ में नायक एटमी-सर्वनाश से अपने बच्चों को होने वाले कष्टों की कल्पना से पूरे समय सिहरता रहता है।
1990 में शीतयुद्ध के समापन के बाद एटमी युद्ध का ख़तरा ख़त्म हो गया। भूमण्डलीकरण का परचम फहराया। उपभोग अपने चरम स्तर पर पहुँचा। इसने दूसरे ख़तरे को जन्म दिया है और एटमी युद्ध के विपरीत इसमें निर्णय मनुष्य के हाथों में नहीं है। इस युग का सबसे घृणित शब्द ‘कंज़म्पशन’ है और बाज़ार से लेकर सरकारें इसे कम करने को लेकर क़तई चिंतित नहीं हैं, उलटे इसे अधिकतम स्तर तक ले जाने पर वो आमादा हैं। अर्थशास्त्र के विद्वान इसे अधिक से अधिक बढ़ाना चाहते हैं, लेकिन पृथ्वी के संसाधनों पर इसके अतिरेक-दबावों पर उनकी कोई राय नहीं। जबकि कार्बन-फ़ुटप्रिंट मौजूदा दौर का पाप है। और इसका निषेध ही आज के समय का इंद्रिय-निग्रह है। दस साल की डेडलाइन दे दी है। 2030 के दशक के मध्य में पृथ्वी का औसत तापमान पूर्व-औद्योगीकरण युग की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक हो चुका होगा- यह आम सूचना है- और उसके बाद मनुष्यजाति और पृथ्वी का समस्त पारिस्थितिकी-तंत्र ग्रीनहाउस-इफ़ेक्ट की मनमर्ज़ी के हवाले है।
क्लाइमेट-क्राइसिस का सबसे पहला प्रहार आजीविका और खाद्य-सुरक्षा पर होता है। क्रिस्टोफ़र नोलन की फिल्म ‘इंटरस्टेलर’ में 70 साल बाद के ऐसे डिस्टोपियन भविष्य की कल्पना की गई थी, जिसमें गेहूँ की फ़सलें नष्ट हो चुकी हैं, केवल कॉर्न बचा है और वह भी जल्द ही नष्ट होने जा रहा है। ब्रह्माण्ड में एक प्लैनेट पर अन्न का उत्पादन इतनी विरल और दुर्लभ घटना है, जिसका हिसाब नहीं और पारिस्थितिकी में ज़रा भी फेरबदल इसे नष्ट कर सकता है। लेकिन दुनिया के 8.1 अरब मुँह यह मानकर चल रहे हैं कि धरती उनकी उदरपूर्ति के लिए अनन्तकाल तक अन्न उपजाती रहेगी।
वीनस को एक उदाहरण की तरह लिया जाता है। वहाँ पर एक रन-अवे ग्रीनहाउस इफ़ेक्ट दिखलाई देता है। क्लाइमेट-क्राइसिस की वहाँ अति हो गई, इसी कारण ठीक पृथ्वी जैसा ही एक ग्रह आज नर्क का पर्याय बन गया है। वहाँ पर सतह का तापमान 460 डिग्री सेल्सियस है, ज़हरीली गैसों के बादल छाए हुए हैं और तेज़ाब की बारिश होती है। साइसंदाँ कहते हैं, वह हमारी पृथ्वी का फ़्यूचर है! वर्तमान में पृथ्वी का औसत तापमान 15 डिग्री है लेकिन अगर ग्रीनहाउस इफ़ेक्ट न हो तो यह -15 डिग्री होता। कारण, पृथ्वी सूर्य की एनर्जी को ग्रहण भी करती है और स्पेस में रैडिएट भी करती है, लेकिन वायुमण्डल की गैसें एनर्जी के एक हिस्से को बाँधकर अपने यहाँ ही रोक लेती हैं। इनमें ग्रीनहाउस गैसों (CO2-मीथेन) में जितना इज़ाफ़ा होगा, पृथ्वी का एटमोस्फ़ीयर उतनी ही एनर्जी को अपने में ट्रैप करता रहेगा। अलाव तपता रहेगा। वीनस जैसी स्थिति तक पहुँचने में भले लाखों साल लगें, लेकिन जीवन के ख़ात्मे के लिए पचास-सौ साल बहुत हैं।
क्या आज जन्म लेने वाले बच्चे 70 वर्षों का अपना जीवनकाल उस तरह से पूरा करेंगे, जैसे हमारे पूर्वजों ने किया था और जैसे शायद हम- यानी उम्र की तीसरी या चौथी दहाई वाले लोग- करने जा रहे हैं- यह इस समय का सबसे बड़ा प्रश्न है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे बच्चे आज से 50 साल बाद हमें कोसें कि हम पृथ्वी की क्लाइमेट-सम्बंधी समस्याओं के बारे में जानते थे, अख़बारों में उस पर लेख आदि छपते थे, लेकिन इसके बावजूद हम उन्हें इस धरती पर लेकर आए और एक यंत्रणापूर्ण जीवन की विरासत सौंप गए? क्या वे अपने माता-पिता को जिम्मेदार अभिभावक समझेंगे?
मौजूदा दौर के चुनावों का सबसे बड़ा एजेंडा भी क्लाइमेट-क्राइसिस ही होना चाहिए और इस बारे में पुख़्ता वादे करने वाली पार्टी को ही वोटरों के वोट मिलने चाहिए। उपभोग पर स्टेट का कठोर नियंत्रण, प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा वैसी तत्परता से करना जैसे ईश्वरों की फ़र्ज़ी मूर्तियों की की जाती है, न्यूनतावादी जीवनशैली का प्रचार जिसमें इच्छाओं के शमन पर ज़ोर, सम्पत्ति-संग्रह पर सीमाओं का निर्धारण और पर्यावरण-संरक्षण को ही सम्पूर्ण मनुष्यजाति का इकलौता धर्म घोषित कर देना, जिसका पालन पाँच बार की नमाज़ की तरह करना ही करना है- यह सुनिश्चित करवाना ही सरकारों का आज की तारीख़ में सबसे प्रमुख काम होना चाहिए।
उपभोग पर स्टेट का कठोर नियंत्रण, प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा वैसी तत्परता से करना जैसे ईश्वरों की फ़र्ज़ी मूर्तियों की की जाती है, न्यूनतावादी जीवनशैली का प्रचार जिसमें इच्छाओं के शमन पर ज़ोर, सम्पत्ति-संग्रह पर सीमाओं का निर्धारण और पर्यावरण-संरक्षण को ही सम्पूर्ण मनुष्यजाति का इकलौता धर्म घोषित कर देना, जिसका पालन पाँच बार की नमाज़ की तरह करना ही करना है- यह सुनिश्चित करवाना ही सरकारों का आज की तारीख़ में सबसे प्रमुख काम होना चाहिए।
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा था कि क्रूरता और कुरूपता से भरी इस दुनिया में अमीर से अमीर आदमी भी क्रूरता और कुरूपता के सिवा कुछ ख़रीद नहीं सकता।
और आने वाले दौर के सत्ताधीश, धनकुबेर, सर्वशक्तिमान जन भी अपनी समूची सम्पत्ति का मोल देकर गेहूँ की एक बाली नहीं ख़रीद पाएँगे।
जीवन के इस वरदान को निरंतर समझाना और उसकी रक्षा की सौगंध दिलवाना, यही शिक्षा व्यवस्था का प्राथमिक प्रयोजन हो।
और हाँ- सबसे ज़रूरी बात- ग्रीनहाउस प्रभाव के सबसे प्रमुख कारणों में से एक है- एनिमल फ़ार्मिंग और मीट इंडस्ट्री। यानी मनुष्यजाति अरबों जानवरों पर अवर्णनीय क्रूरता करके अपने ग्रह को नष्ट कर रही है।
आज नहीं तो कल, झख मारकर सबको वीगन बनना ही होगा, कोई चारा है ही नहीं। वीगनिज़्म यानी एनिमल प्रोडक्ट्स का न्यूनतम उपभोग, जहाँ तक सम्भव हो तब तक नहीं।
जैसे कोविड में सरकारों ने लॉकडाउन लगाया था, ऐसे ही बीस-पच्चीस साल बाद प्लांट-प्रोटीन्स का ही सेवन मैंडेटरी किया जायेगा, आप देखते रहें।