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“दैनिक गणेश” में मेरी 1988 में 450 रुपये पगार थी!

शैलेश अवस्थी-

पत्रकारिता का पहला पड़ाव…. यूं तो मैंने 12 वीं पास करने के बाद ही कानपुर से प्रकाशित “दैनिक गणेश” में लिखना और आना-जाना शुरू कर दिया था, लेकिन एमए करने के बाद बाकायदा “विशेष संवाददाता” जॉइन किया। हर क्षेत्र की खबरें लिखता। ज़ुनून ऐसा की सुबह 10 बजे पहुंच जाता और देर रात तक डटा रहता। 1988 में पगार थी 450 रुपये। विज्ञापन के लिए भी काम करता और इससे कुछ अतिरिक्त आमदनी हो जाती।

दैनिक गणेश के न्यूज़ रूम में टेलीफोन पर खबर के लिए बात करता मैं….
तब की मंत्री डॉ. राजेन्द्र कुमारी वाजपेयी, साथ में प्रबंध संपादक राधाकृष्ण अवस्थी, प्रधान संपादक कैलाश नाथ त्रिपाठी और मैं.. फ़ोटो मशीनरूम का है, राजेन्द्र कुमारी निरीक्षण कर रही हैं…

प्रवीण दीक्षित जैसे विद्वान पत्रकार से सीखता था। विमल त्रिवेदी, रमेश वर्मा, राजेश तिवारी, प्रशांत, शिव दुबे लोकल रिपोर्टिंग की टीम में थे। वर्मा जी कड़क मैनेजर और नरेंद्र दीक्षित विज्ञापन प्रबंधक। फूलसिंह और अम्बरीश तिवारी विज्ञापन जुगाड़ करने में माहिर। वैसे ज्यादातर विज्ञापन दिल्ली और लखनऊ से आते। तब लैटर टाइपिंग होती थी। फोरमैन तिवारीजी प्रोडक्शन इंचार्ज थे। शिवदत्त शुक्ल प्रसार का काम देखते थे।

निदेशक शरद अवस्थी नियमित हर विभाग की मीटिंग लेते। वह टाइम्स ऑफ इंडिया से कोर्स करके लौटे और अखबार की ज़िम्मेदारी संभाली थी। कैलाश नाथ त्रिपाठी प्रधान संपादक, प्रेम नारायण मिश्र प्रबंध निदेशक और राधाकृष्ण अवस्थी प्रबंध संपादक थे।

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उस दौरान “दैनिक गणेश” में 50 पेज तक के विशेषांक निकलते और उसमें 28 पेज तक विज्ञापन होते। यह देख बड़े अखबार भी हतप्रभ रह जाते। यह राधाकृष्ण अवस्थी का हुनर था कि वह जहां जाते, विज्ञापन लेकर ही लौटते। वह सरकारी डिसप्ले विज्ञापन लाने में माहिर थे। आकर्षक व्यक्तित्व और विद्वता के कारण इंदिरा गांधी सहित देश के बड़े राजनेता, उद्योगपति और कारोबारियों से उनके निकट संपर्क थे। इसका दैनिक गणेश और संस्था को बहुत लाभ हुआ। वैसे यह नियमित तो 4 से 8 पेज का ही अखबार होता था। 60-70 लोगों की टीम काम करती थी। प्रसार आसपास के जिलों और लखनऊ तक था।

1991 में आर्थिक कारणों से अखबार बंद हो गया। कर्मचारी वेतन बढ़ोतरी पर अड़ गए थे। तब प्रिंट मीडिया का ज़माना था। विश्वमित्र, लोकभारती, कानपुर उजाला और सत्यसंवाद जैसे अखबार भी खूब चलते और इनका भी रसूख था। देवदत्त मिश्र, विनोद शुक्ल, हरि नारायण निगम, मिंटो बाबू, रविन्द्र दादा, मेहता साहब, प्रताप बाबू, दिलीप शुक्ल, शैलेन्द्र दीक्षित, नरेंद्र भदौरिया, अरुण अग्रवाल, तनवीर हैदर, विष्णु त्रिपाठी, नकवी साहब, वाईडी लोशाली, मज़हर अब्बास नकवी,उमा नारायण त्रिवेदी जैसे पत्रकारों की तूती बोलती थी, शम्भूनाथ शुक्ला और राजीव शुक्ला दिल्ली चले गए और वहां पत्रकारिता में बड़ी पहचान बना चुके थे।

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तब बड़े-बड़े अफसर खड़े होकर पत्रकारों को प्रणाम करते थे। नेता अपना नाम छपवाने के लिए चिरौरी करते थे। क्या मज़ाल जो कोई पत्रकारों को घूर ले। जमकर खबर ली जाती और पाठकों को उनकी ज़रूरत की खबर दी जाती। इस सबके बीच पत्रकार भी मर्यादा में रहते, वरिष्ठों का बहुत सम्मान करते।

उस दौर में बहुत सिखाया जाता। सिखाने वाले दिल से सिखाते और सीखने वालों में शिष्य भाव होता। “दैनिक गणेश” में जो सीखा, वह “अमर उजाला” में काम आया और वरिष्ठों से हमेशा प्रशंसा पाता रहा।

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