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दिल्ली

अगर आप दिल्ली के वोटर हैं तो आप पर बड़ी जिम्मेदारी है

Sanjaya Kumar Singh : शाहीनबाग अगर प्रयोग है तो दिल्ली की जनता के पास मौका है… शाहीनबाग का आंदोलन चलने देना अगर प्रयोग न हो तो मेहरबानी है ही। कट्टा चलाने वाले को तमाशबीनों की तरह देखने वाली दिल्ली पुलिस निहत्थी औरतों को खदेड़ने में कितना टाइम लगाती? महिलाओं को न पीटने या उन्हें राहत देने का उसका कोई पिछला रिकार्ड तो है नहीं इसलिए शाहीनबाग चल रहा है तो सिर्फ इसलिए कि उसे चलने दिया जा रहा है। आरोप लगाया जाता रहा है कि यह विपक्ष का आंदोलन है। लेकिन विरोधियों के खिलाफ सीबीआई, ईडी जैसी सरकारी एजेंसियों को पालतू कुत्ते की तरह छू करने और दीवार फंदवाने वाली सरकार शाहीनबाग के प्रायोजकों को तभी छोड़ेगी जब उसे छोड़ना होगा। आज कंफर्म हो गया कि यह प्रयोग है।

भाजपा के या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रयोग 2016 से चल रहे हैं। नोटबंदी से लेकर चौराहे पर आने तक। नेताजी की फाइलें खोलने से लेकर भगवा आतंकवाद के खिलाफ सत्याग्रह तक। नीरव मोदी के भागने से लेकर मेहुल चोकसी को नागरिकता मिलने तक। बलाकोट से लेकर पुलवामा तक शिवसेना से संबंध टूटने और रघुवर दास को हारते हुए देखने तक। सब प्रयोग ही प्रयोग हैं। कुछ सफल रहे, कुछ पिट गए। और कुछ चल रहे हैं 2024 के लिए। ऐसे में प्रधानमंत्री ने कहा है कि शाहीनबाग प्रयोग है तो समझना आपको है कि यह प्रयोग उनका ही है। इसलिए भी कि वे प्रयोग करते रहे हैं और दिल्ली सरकार के काम के आगे चुनाव जीतने का कोई फॉर्मूला हो नहीं सकता। 15 लाख से लेकर वाड्रा का भ्रष्टाचार तक पुराना हो गया। नया प्रयोग ही किया जा सकता है। सफल रहा तो बल्ले-बल्ले हार गए तो मनोज तिवारी की भी बलि नहीं चढ़नी।

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इसमें कोई दो राय नहीं है कि दिल्ली चुनाव अगर प्रयोग है तो दिल्ली की जनता के पास इसे नाकाम करने का मौका है। वैसे तो इस प्रयोग के नाकाम होने का मतलब यह नहीं है कि केंद्र सरकार या भाजपा आगे प्रयोग नहीं करेगी। इस मामले में भाजपा का कोई मुकाबला नहीं है। पर सिर्फ चुनाव जीतने के लिए देश भर को सीएए की आग में झोंकने का लाभ नहीं मिलेगा तो हो सकता है, पार्टी को और उसके आला हकीमों को यह समझ में आए कि इस देश में चुनाव हिन्दू-मुसलिम के बीच खाई चौड़ीकर नहीं जीते जा सकते हैं। मुसलमानों के हक में काम को तुष्टिकरण कहना और हिन्दुओं के पक्ष में काम को हिन्दुत्व कहकर हिन्दू वोट की उम्मीद करना घटिया राजनीति के अलावा कुछ नहीं है। आप कांग्रेस से उम्मीद करें कि वह भाजपा की राजनीति का जवाब इस स्तर पर उतर कर करेगी तो वह बहुत कमजोर है। यह हम देख-समझ चुके हैं।

गालीबाजों का गिरोह होना और चुनाव जीतकर भी सेवा भाव से काम करना अलग चीजें हैं। राजनीति जब कुर्सी के लिए हो तो घटिया हो या अच्छी – की ही जाएगी। जो जैसा कर सके। पर इस बहाने अगर गंदे लोग, गंदी पार्टी को पहचाना जा सके तो उससे पीछा छुड़ाना जरूरी है। आम आदमी पार्टी और उसके नेता अरविन्द केजरीवाल और उनकी राजनीति से आपकी असहमति हो सकती है। हिन्दुत्व का ख्याल रखना भी जरूरी हो सकता है। पर यह तो मानना होगा कि अरविन्द केजरीवाल के कारण ही भाजपा को खुलकर हिन्दू-मुसलमान करना पड़ रहा है। मेरा मानना था कि सीएए लागू हो या नहीं, इसे बंगाल चुनाव के लिए लाया गया है और बंगाल चुनाव तक इसे जिन्दा रखा जाएगा। पर दिल्ली में अगर भाजपा की बात नहीं बनी तो मुमकिन है उसे इसे तब तक खींचने का नुकसान भी समझ में आए और हो सकता है बातचीत का कोई रास्ता निकले या इसे वापस ले लिया जाए।

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वैसे भी, सीएए कानून में आपत्ति सिर्फ मुसलमानों को शामिल नहीं किए जाने से है और सरकार तथा भाजपा का कहना है कि पाकिस्तान में कोई मुसलमान धार्मिक आधार पर सताया नहीं जाता है। ऐसे में कानून में अगर मुसलमानों को भी शामिल कर लिया जाए या किसी भी धर्म का उल्लेख नहीं हो तो विरोध के लिए कुछ खास बचता नहीं है। आपत्ति का मुद्दा ही खत्म हो जाता है। तब हम इसे संविधान विरोधी भी नहीं कह सकेंगे क्योंकि धार्मिक आधार खत्म हो जाएगा। दूसरी ओर, दिल्ली में हारने का मतलब होगा मुसलमानों को मुद्दा बनाकर चुनाव नहीं जीता जा सकता है। तब इसे मुद्दा बनाए रखने का कोई मतलब नहीं रहेगा। ऐसे में आप दिल्ली में भाजपा को हराकर यह उम्मीद कर सकते हैं कि भाजपा के तेवर ढीले पड़ेंगे और तब सरकार के लिए इसे ठीक करना ही नहीं, दूसरे वोट जुगाड़ू काम भी करने होंगे। वरना अभी तो पार्टी के नेता ऐसे हैं कि बजट भाषण न पढ़ पाएं पर गोली चलवा दें। अगर आप दिल्ली के वोटर हैं तो आप पर बड़ी जिम्मेदारी है। सोच समझ कर वोट दें।

Pankaj K. Choudhary : केजरीवाल को शाहीन बाग जाना चाहिए था. केजरीवाल को शाहीन बाग में जुटी भीड़ को हटाने की अमित शाह से अपील करने के बजाय भीड़ के साथ खड़ा रहना चाहिए था. मगर, केजरीवाल करे भी तो क्या करे? केजरीवाल एक बहुत बड़ी मशीनरी की साम्प्रदायिक, हिंसक और राष्ट्रवादी सोच से लड़ रहा है. और अपने तरीके से लड़ने की कोशिश कर रहा है. इस तरह से लड़ने के अपने खतरे हैं. भारत की राजनीति का इजराइल बनने का खतरा. जहां सभी राजनीतिक पार्टियां साम्प्रदायिक मुद्दों पर मोटामोटी सहमत हैं. लेकिन केजरीवाल करे भी तो क्या करे? एक बार केजरीवाल हार गया तो हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा.

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न तो केजरीवाल की दादी इस देश की मशहूर शख्शियत थी और न ही केजरीवाल की शक्ल अपनी दादी से मिलती है कि बिना चुनाव लड़े या जीते वो एक बड़ा नेता बना रहेगा. (भारत दुनिया का एकमात्र लोकतंत्र है जहां की एक नेता प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब सिर्फ इसलिए देख पा रही है क्योंकि उसकी शक्ल अपनी दादी से मिलती है). केजरीवाल के लिए दिल्ली अमेठी नहीं है. दिल्ली उसके लिए मरने जीने का सवाल है. दिल्ली की लड़ाई छोड़ कर केजरीवाल के पास केरल की सुरक्षित सीट ढूंढ लेने का भी विकल्प नहीं है. केजरीवाल कन्हैया कुमार भी नहीं है कि उसके पक्ष में खलिहार बुद्धिजीवी शोर मचाते रहें.

केजरीवाल हिंदी पट्टी का ओबीसी, दलित, ठाकुर या ब्राह्मण नेता नहीं है कि बिना कुछ किये, सिर्फ ट्वीट करके अपना महत्व बनाए रखे वो भी अपनी बिरादरी के लोगों के समर्थन की बदौलत. मगर, जब भी केजरीवाल दिल्ली में चुनाव जीतता है तो वो इतिहास बनाता है. भारत में ऐसा बिरले ही होता है कि किसी चुनाव में भाजपा, कांग्रेस और वंशवाद तीनों हारे. यदि कहीं, किसी राज्य में भाजपा, कांग्रेस चुनाव हार भी जाती है तो वंशवाद जीत जाता है. इसलिए, केजरीवाल का दिल्ली का चुनाव जीतना बहुत जरूरी है. थैंक्स. जय हिंद.

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वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह और पंकज के चौधरी की एफबी वॉल से.

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