संजय सिन्हा-
डोलो डोलो, तुम भी डोलो… बचपन से हमार लिए बुखार की दवा का नाम क्रोसिन था। पहली बार कोविड काल में हमने जब कोविड से बचने वाला इंजेक्शन लिया था तब डॉक्टर ने कहा था कि आपको बुखार हो सकता है। लेकिन परेशान मत होइएगा। एहतियातन ‘डोलो’ खा लीजिएगा। मैंने डॉक्टर से पूछा भी था कि डोलो? ये कौन-सी दवा है? और क्रोसिन क्यों नहीं?
डॉक्टर ने कहा था कि वैसे दो दोनों सेम दवाएं ही हैं, लेकिन डोलो बेहतर है। डॉक्टर ने ये भी कहा था कि मैं लिख कर दे रहा हूं, आप यहीं बगल वाली दुकान से ले लीजिएगा। एक पत्ता रख लीजिएगा, काम आएगा।
उसके बाद तो मैंने बुखार के लिए जब भी दवा का नाम पूछा, सबने कहा डोलो।
ये अलग बात है कि मैं दवा खाने में बहुत कंजूस हूं। मन में तय कर लिया था कि बुखार होगा, फिर दवा खाऊंगा।
खैर मुझे बुखार हुआ ही नहीं तो दवा का पत्ता जस का तस रखा रह गया। पर मन में ये बात बैठ गई थी कि डोलो ही बुखार की दवा है। क्रोसिन-फ्रोसिन पुरानी दवाएं हैं।
पिछले दिनों गुड़गांव में रह रही मेरी साली को थोड़ा बुखार हुआ तो मेरी पत्नी ने उसे सलाह दी कि डोलो खा लेना। साली ने कहा कि नहीं, डोलो नहीं खाऊंगी। मुझे लगता है कि इसे खाने से बुखार और बढ़ता है और फिर और डोज लेने की ज़रूरत पड़ती है। जाहिर है उसने इसका इस्तेमाल किया था।
खैर, मुझे आज डोलो कथा नहीं सुनानी है। लेकिन एक बात तय है कि हम सब आपस में खूब चर्चा करने लगे थे कि अचानक ऐसा क्या हुआ कि दिल्ली से लेकर जबलपुर तक सभी को बुखार में डॉक्टर डोलो खाने को कहने लगे हैं। कौन-सी कंपनी है ये? कब आई? कहां से आई? इतनी जल्दी ये कैसे छा गई। और नाम भी डिस्को टाइप है- डोलो।
पिछले दिनों जब मैं दिल्ली से जबलपुर आ रहा था तो मैंनो डोलो का पत्ता साथ रख लिया था। क्यों नहीं रखता? आखिर मेरे पास बुखार का रामबाण जो था। मन में बैठ गया था कि डोलो तो बुखार भूलो।
खैर मुझे बुखार हुआ ही नहीं, तो डोलो का पत्ता रखा रह गया। पिछले दिनों पत्नी दिल्ली से जबलपुर आई तो उसे थोड़ा बुखार-सा हुआ। मैंने कहा अपने पास रामबाण है। बोलो तो दे तूं। ये बात तब की है जब सुप्रीम कोर्ट ने डोलो को अदालत में नहीं घसीटा था। पत्नी ने कहा कि संजय अगर डिस्प्रिन हो तो दे दो, नहीं तो क्रोसिन या कालपोल ले आओ। ये डोलो नहीं खाऊंगी।
“क्यों भला?”
“बचपन से नहीं खाए, भरोसा नहीं होता।”
बात खत्म हो गई। दवा सूट करने का संबंध मन से बहुत होता है। मन में जिस दवा के लिए आस्था हो, वही दवा लगती है। मेरे मन में बचपन में ये बात बैठ गई थी कि पेट दर्द की दवा पुदीन हरा है तो मैं एक पत्ता पुदीन हरा का सदैव साथ रखता हूं। ये मेरा अज्ञान था कि पत्नी को जब लेबर पेन हो रहा था तब भी मैं उसे सामान्य पेट दर्द समझ कर हर घंटे पूरी रात पुदीन हरा पिलाता रहा।
पुदीन हरा के अलावा मेरी पसंदीदा दवा है डिस्प्रिन। कभी हरारत हो, थकावट हो, सिर दर्द हो डिस्प्रिन लेना मुझे ठीक लगता रहा। एक कप पानी में गोली डालो, गोली खुद ही घुल जाती है और फिर उसे पी लो। कुछ देर में सिर दर्द दूर। बदन दर्द काफूर। मेरे लिए तो छोटे-मोटे बुखार में भी डिस्प्रिन रामबाण की तरह साबित होने वाली गोली रही है। ये भरोसे का मामला है।
अब बात डोलो की। पत्नी, पत्नी की बहन ने डोलो को रिजेक्ट कर दिया। ऐसा कौन-सा कमाल हो गया है कि जिसे जरा-सी सर्दी, खांसी, बुखार हो वो डोलो-डोलो करने लगता है। पिछले कुछ दिनों में जिस तेजी से डोलो ने घर-घर में जगह बनाई है उतनी तेजी से मैंने किसी दवा को बढ़ते नहीं देखा है।
आप संजय सिन्हा पर हंस भी सकते हैं कि कहने को पत्रकार हैं पर कितने अज्ञानी हैं। मैंने आजतक दो ही दवाओं के बारे में इतना सुना है, जितना डोलो के बारे में सुना। जब वाएग्रा आई थी तब उसके बारे में खूब हल्ला हुआ था। उसके बाद कोरोना में रेमडिसिविर का खूब नाम हुआ। जिसे एक इंजेक्शन मिल गया, वो लकी राम। कोविड काल में न जाने कितने लोगों ने मुझसे सिफारिश की थी कि फलां को डॉक्टर ने रेमडिसिवर देने को कहा है, प्लीज़ कहीं से जुगाड़ करा दीजिए। सिर्फ इतना बता देने भर से कि फलां जगह ब्लैक में मिल जाएगी, लोग भर-भर पेट दुआएं देते थे कि धन्य हो प्रभु जो आपने जीवन का पता बता दिया।
इन दो के अलावा तीसरी दवा है डोलो। पता नहीं किस कंपनी की दवा है, पता नहीं नाम डोलो क्यों रखा गया, पर दवा आई और छा गई। कोरोना काल में कई लोगों ने इसे स्नैक्स की तरह खाया है। फायदा, नुकसान मुझे नहीं पता लेकिन दवा जिस तरह बुखार में बिकी, उससे मन में संदेह होता था या ये भी लगता था कि ऐसा कैसे हुआ कि ये दवा गांव-गांव में बुखार के नाम पर बिकने लगी। क्या बनाया कंपनी ने?
अब हमारे मन में कोई दुविधा नहीं है। राज खुल गया है। छपी के मुताबिक डोलो दवा बनाने वाली कंपनी ने बाजार में आने से पहले ही मेडिकल रिप्रजेंटेटिव के जरिए देश भर के डॉक्टरों के बीच एक हज़ार करोड़ रुपए बंटवा दिए। ले लो माल, लिखो डोलो।
दवा की कंपनियों के लिए ये कोई नई बात नहीं। इसकी शुरुआत बहुत साल पहले डायरी, पेन, टॉर्च, बैग जैसी चीजें बांटने से हुई थी। फिर वो कैश पर भी गया। बाद में डॉक्टरों की विदेश यात्रा और विदेश में भरपूर सेवा की बातें भी सामने आईं। सबसे बुरा तो तब लगा था जब मेडिकल कंपनियां…
छोड़िए, ऐसी बातें संजय सिन्हा लिखना भी नहीं चाहते। आप सब जानते हैं। पर एक दवा को बाज़ार में ठूंसने के लिए एक हज़ार करोड़ रुपए? कमाल है। सचमुच ये दुनिया पैसे वालों की है। हम सब उसके गिनी पिग। डॉक्टरों ने जिस बेशर्मी से डोलो लिखा, वो अपने आप में हैरान करने वाला था। पहले डॉक्टर कहते थे कि थोड़ा बुखार हो तो चिंता मत करना। पर बढ़ जाए तो एक क्रोसिन ले लेना। पर इस बात तो कहा गया कि बुखार हो सकता है, एहतियातन एक गोली ले लेना।
मुझे नहीं पता कि डोलो कब से बाज़ार में है। मैंने इसका नाम ही कोरोना काल में पहली बार सुना था। मुझे ये भी नहीं पता कि इसे बनाने वाली कंपनी और कौन-सी दवाएं बनाती है। पर जिस तरह अब ये दवा भ्रष्टाचार के दलदल में उलझती नज़र आ रही है, मुझे लगने लगा है कि मेरी पत्नी और साली दोनों मुझसे अधिक समझदार हैं। दोनों ने बिना किसी अदालती शिकायत के ये कहा था कि मामला कुछ संदिग्ध है। साली ने तो ये तक कहा था कि डोलो खाने के बाद बुखार ठीक होता है, फिर और भड़कता है ताकि और खाओ।
अगर खबर सही है कि इस दवा को बाजार में स्थापित करने के लिए कंपनी ने सचमुच एक हज़ार करोड़ रुपए डॉक्टरों को खिलाने में खर्च किया है तो ये शर्म और चिंता की बात है। दोषी सिर्फ कंपनी नहीं, वो खाऊ डॉक्टर भी हैं जिन्होंने खुद तो माल खाया, हमारे पेट में पता नहीं कौन-सा रसायन ढूंस दिया।
हमारे पेट से मतलब संजय सिन्हा का पेट नहीं। संजय सिन्हा तो बच गए उसे पेट में गटकने से। पर जिन्होंने गटक लिया है उनका क्या होगा? उनके साथ हुए धोखे का हिसाब कौन करेगा? कब करेगा? कैसे करेगा?
एक पक्ष ये भी पढ़िए-
प्रदीप पटेल- डोलो डोलो का इतना हल्ला मच रहा है।मुझे अभी भी समझ नही आया कि ये १००० करोड़ रुपए इतनी सस्ती दवा के लिए जो लुटाए गए वो गए कहां। मेरे पास तो कोई एमआर डोलो के प्रिस्क्रिप्शन के लिए नही आया। जबकि sun फार्मा ग्लैक्सो माइक्रो से लेकर सारी बड़ी कंपनीज के एमआर आते रहते हैं।
रही बात डोलो के ओवर प्रिस्क्रिप्शन की तो डोलो 650 का नाम पहले से ही आम जनता तक की जुबान पर था।लोग मेडिकल स्टोर से स्वयं खरीद खरीद कर खा लेते हैं। Covid के समय में सारे ब्रांड्स की paracetamol खत्म हो चुकी थी मार्केट से।
इतनी सस्ती दवा और पॉपुलर ब्रांड के लिए कंपनी ज्यादा मेहनत नही करती ना ही उसके लिए फ्रीबीज बांटती है। दूसरी जरूरी बात और भी है। अभी कल ही बात हो रही थी माइक्रो के एमआर से तो बोला सर अब तो कुछ कर भी नही सकते आपके लिए। अब सरकार ने रोक लगा दी है। मैं ने कहा तुम लोग तो 75% से 80% खुद ही डकार जाते हो तो वो बोला कि सर इतना कम सैलरी मिलती है कैसे काम चलेगा इसके बिना। डॉक्टर्स तो बेमतलब बदनाम हैं। असली मलाई कंपनी के एमडी जीएम से लगायत एमआर तक चाभ रहे हैं और जो 20% मिल रहा है डॉक्टर्स को वो भी गिफ्ट के तौर पर ही है उसमें से भी 10% तो फालतू सामान देकर ओबलाइज करते हैं। सरकार कुछ करती नही क्या या फिर करना नही चाहती इन पर नकेल कसने के लिए। फार्मा इंडस्ट्री पर कड़ी नजर के साथ साथ प्राइस डिटरमिनेशन सरकार को अपने हाथ में ले लेना चाहिए।
समजदार नागरीक
August 22, 2022 at 9:36 am
बिना ज्ञानके ऐसे लेख लीखकर लोगोके मनमे गलत फेमीया ठुस कर ,ब्लोग के जरीए विज्ञापन द्वारा पैसा कमानेका अच्छा तरीका हे। क्या इसके खिलाफ सरकारको कोई ठोस कदम उठाना चाहीए ?
समजदार नागरीक
August 22, 2022 at 9:36 am
बिना ज्ञानके ऐसे लेख लीखकर लोगोके मनमे गलत फेमीया ठुस कर ,ब्लोग के जरीए विज्ञापन द्वारा पैसा कमानेका अच्छा तरीका हे। क्या इसके खिलाफ सरकारको कोई ठोस कदम उठाना चाहीए ?