हेमंत शर्मा-
महाभारत को पांचवा वेद कहा जाता है। पर इस पांचवे वेद का नायक कौन है यह सवाल बड़ा है। इसलिए कहा गया है यन्न भारतस्य तन्न भारतस्य.. जो महाभारत में नहीं वह कहीं नहीं है. इस अद्भुत और विश्व के अनोखे ग्रंथ का नायक हम किसे मानें भीष्म को, अर्जुन को, युधिष्ठिर को, कृष्ण को या स्वयं महाभारतकार द्वैपायन व्यास को जो महाभारत के प्रत्येक महत्वपूर्ण प्रसंग में स्वयं एक पात्र रहे हैं।
असंख्य आख्यानों उपाख्यानों से सजी इस महान ग्रन्थ के पूर्वार्ध में हमें भीष्म के नायक होने का बोध होता है फिर अचानक व्यास का नायकत्व उभरता है. मध्य में युधिष्ठिर नायक बनते दिखते हैं फिर अर्जुन का नायकत्व प्रकट होता है फिर अचानक वासुदेव कृष्ण पूरी युद्ध लीला के केंद्र में आ जाते हैं। कथा बढती है तो नायक बदलते जाते हैं पर खलनायक एक ही है। महाभारत के खलनायक दुर्धर्ष दुर्योधन पर कोई विवाद नहीं।
जिस दुर्योधन के कारण इतना बड़ा विनाश हुआ उसे और शकुनि छोड़कर पूरे महाभारत को कोई यह नहीं चाहता था कि यह महायुद्ध रचा जाए। महाभारत काल से जिस खलनायक की ऐसी प्रतिष्ठा हो उसमें नायकत्व ढूँढना प्रो डॉ संदीपा भट्टाचार्य का भगीरथ प्रयास है। महाभारत की कथा को आधुनिक सन्दर्भों में देखने और इतिहास के एक क्रूर खलनायक में ‘नायकत्व’ के गुण ढूंढना निश्चित रूप से डॉ संदीपा बधाई की पात्र हैं। डॉ संदीपा दास अंग्रेज़ी साहित्य की प्रोफ़ेसर हैं। उनकी भाषा, सहज सरल और प्रवाहमयी है। उनकी नई किताब Duryodhana : Revising the legacy महाभारत की कथा को नए सिरे से देखती है।
दुर्योधन भारतीय इतिहास का एक ऐसा चरित्र है, जिसने केवल दो गलती की.. एक द्रौपदी का चीरहरण और दूसरे लाक्षागृह में पांडवों को छल से मारने का षड्यंत्र करना। इन दो गलतियों के कारण वह हमेशा कलंकित रहा। उसकी वीरता, उसका रणकौशल, दोस्ती के लिए किसी भी हद तक जाने का उसका गुण और उसका गदा कौशल इन सबकी कोई ख़ास चर्चा नहीं हुई। जीवन की सिर्फ दो गलतियाँ उसके सारे गुण पर भारी पड़ी।
महाभारत के युद्ध में सत्य और नैतिकता की मर्यादा सिर्फ कौरवों ने ही नहीं, पांडवों ने भी तोड़ी। किसी ने ज्यादा किसी ने कम। दुर्योधन का अंत जिस तरह कृष्ण की देखरेख में छल के साथ किया जाता है। कृष्ण के इशारे पर भीम उसकी जांघ पर प्रहार करते हैं। जबकि युद्ध के नियमों के तहत कमर के नीचे वार प्रतिबंधित था। अठारहवें दिन युद्ध के अंतिम दृश्य में वह कुरुक्षेत्र में कराह रहा होता है। यहीं से सही और गलत के बीच एक बहस छिड़ जाती है। दुर्योधन के प्रति सहानुभूति पनपती है। उसके ‘नायकत्व’ की शुरुआत होती है। अधर्म के जरिए मारे जाने के बावजूद दुर्योधन ऐसा खलनायक बनता है। जिसमें जनता नायकत्व ढूंढती है।
महाभारत काल से पहले हमारे यहां आदर्श राज्य व्यवस्था और उसे हासिल करने की एक एक आदर्श और नैतिक नीति थी। लेकिन महाभारत काल में राज्य व्यवस्था में ‘साम’, ‘दाम’,‘दंड’, ‘भेद’ राजनीति के मूल्य बन गए। इसमें छल कपट भी जुड़ गया। कृष्ण और शकुनी दो चरित्र ऐसे आमने-सामने खड़े हो गए जिनकी धर्म की अपनी व्याख्या है। इसी प्रतिशोध, बदले और महत्वाकांक्षा की आग में दुर्योधन राजनीति के अपने औजार गढ़ता है।
दुर्योधन की मौत से पहले ‘शल्यपर्व’ में कृष्ण और दुर्योधन के बीच संवाद है। उसमें दुर्योधन की मनोव्यथा है। जिसमें उसके व्यक्तित्व को पढ़ा जा सकता है। दुर्योधन ने मरते समय कहा, “कृष्ण ने कुरुकुल का अधर्म से नाश किया। जबकि उनका दावा था कि यह धर्मयुद्ध है।”
दुर्योधन अगर ये दो गलतियाँ न करता तो इतिहास उसे ‘सुयोधन’ कहता. संदीपा जी की किताब महाभारत कथा की नई जमीन जोड़ती है। अनछुए पक्ष को उजागर करने के लिए फिर उन्हें बधाई।दुर्योधन के साथ जो अन्याय हुआ उसे डॉ दास ने न्याय दिलाने की चेष्टा की है।