एक मां की कहानी, उन्हीं की जुबानी… मैं माया देवी. मेरी उम्र 92 साल है. मैं काशी बनारस की रहने वाली हूं. कहते हैं, काशी में मरने से मोक्ष की प्राप्ति होती है. भगवान से पूछती हूं, राधा-माधव, कितने बार मुझे मरना होगा कि मोक्ष मिल जाए! जानते हैं, क्यों? क्यों कि मैं रोज हर-पल मर रही हूं। खुद का घर रहते हुए इन दिनों मेरा ठिकाना किराये का एक कमरा है। मैं चल नहीं सकती क्योंकि मेरा पैर मेरा साथ नहीं दे रहे। जानना चाहेंगे क्यों? क्योंकि तीन महीने पहले मेरी बहू कंचन ने मुझे जानवरों की तरहत पीटा, सीढ़ियों से ढकेल दिया। मर जाती तो अच्छा था। पर मौत ने दगा दिया। शायद जिदंगी मुझे और दुःख देना चाहती है।
माया देवी 92 साल की उम्र में अपनी बहू से पीड़ित है। बार-बार कानून और न्याय की चौखट पर पहुंची उनकी गुहार अनसुनी कर दी जाती रही। शायद इसलिए कि सत्ता बदली है, व्यवस्था नहीं।
दो महीने तक अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी रही। वो दिन 26 फरवरी का था। मैं कबीरचौरा के शिव प्रसाद गुप्त अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में पड़ी चार घंटे तक दर्द से कराहती रही। उधर सिगरा थाने में माता कुण्ड चौकी इंर्चाज लक्ष्मण यादव ने शिकायत करने गये मेरे बेटे घनश्याम को ही थाने पर बिठा लिया। बाद में अस्पताल में आपरेशन के बाद जब डाक्टर ने घर जाने को कहा तो मेरे सामने सवाल था कि मैं किस घर जाऊं। मेरे घर के कमरों में तो मेरी बहू कंचन ने ताला बंद कर रखा है।
बाद में एम्बुलेंस से ही खुद के लिए न्याय की गुहार लगाने शहर के एस.एस.पी नितिन तिवारी के पास गई। इस उम्मीद से कि सूबे में बनी नई सरकार हम बुर्जुगों के साथ अन्याय नहीं होने देगी। लेकिन यहां भी उम्मीद की दीवार ढह गई। निराशा ही हाथ लगी। मेरी बहू के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज है। पर कार्रवाई के नाम पर कुछ नहीं हुआ। वो खुलेआम घूम रही है।
आज से नहीं पिछले दो साल से मेरी कई दर्जन अर्जिया पुलिस-प्रशासन के आला अधिकारियों के पास दौड़ कर दम तोड़ बैठी। मैं कहती रही कि मेरी जान को मेरी बहू से खतरा है। पर कोई सुनवाई कभी नहीं हुई। उल्टे पुलिस वाले मुझे समझाते रहे, अपनी संपत्ति का बटवारा क्यों नहीं कर देती? मैं खुद के सम्मान की बात करती रही, वो संपत्ति की।
आज मांओ का दिन है यानि मदर्स डे, अखबार में मांओ के बारे में खूब छपा है। पर मेरी कहानी…. मेरे दर्द और अपमान की कहानी शायद मेरे साथ ही कुछ दिनों बाद खतम हो जायेगी। मुझे शायद इंसाफ नहीं मिलेगा और अपने घर की वो छत भी जहां मेरी जिदंगी गुजर रही थी। हर पल मरने की दुआ मांगती हूं, और सोचती हूं…
जिदंगी से बड़ी सजा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं।
लेखक भाष्कर गुहा नियोगी वाराणसी के जनसरोकारी पत्रकार हैं. उनसे संपर्क 09415354828 के जरिए किया जा सकता है.