Deepali Das : 26 जनवरी पर परेड करती औरतें रियल फेमिनिज्म का चेहरा बन गयी हैं और सड़कों पर चिल्लाती, मंच से बोलती, कॉमेडी के जरिए अपनी बात कहती या ब्लॉग लिखती औरतें फेक फेमिनिस्ट हो गयी हैं। यह कोई पहली बार नहीं है जब दुनिया ने औरतों को चीजों की ‘असल’ परिभाषा समझाने की कोशिश की है और अंततः उन्हें आपस में बांटने की कोशिश की है।
मैं देख रही हूँ कि कैसे घर में अपनी बहन की पढ़ाई और नौकरी के लिए आवाज़ न उठा पाने वाले भाई, पति से लेकर देवर तक का कच्छा धो रही पत्नियों के पति भी वर्दी में खड़ी चार औरतों की तस्वीर पर लोट पोट होकर चीखती,बोलती दूसरी लड़कियों को नकली साबित करने में लगे पड़े हैं। शायद वर्दी वालियों की आवाज उन तक नहीं पहुँचती है वरना जिस दिन उनकी आवाज इन पुरूषों की मर्दानगी को चोट करने लगेगी ये उन्हें भी कोठे पर बिठाने लगेंगे।
समय समय पर फेक फेमिनिज्म के कई उदाहरण दिए गए हैं जैसे कि ‘स्कॉच पीती सो कॉल्ड नारीवादी महिला कभी भी गांव की औरतों की असली स्ट्रगल नहीं समझ सकती’
सही बात है, बिल्कुल नहीं समझेगी। और क्यों जरूरी है उस स्कॉच पीती महिला को गांव का स्ट्रगल समझना? स्कॉच पीकर रात को वो बिना किसी पुरुष दोस्त की मदद लिए, पब में अपने लिए बिना भद्दे कमेंट सुने हुए, रास्ते में बिना सेक्सुअली मोलेस्ट हुए सही सलामत अपने घर पहुँच सके..उसका इन मुद्दों पर बात करना..इन्हें सुनिश्चित करवाने के लिए लड़ना क्या काफी लड़ाई नहीं है? जब कोई शहरी लड़का नौकरी के लिए धरना देता है तो क्या उससे गांव के बाहर किसी टेंट में रह रहे मुसहर के बेटे की बुरी हालत के बारे में पूछा जाता है? आय वृद्धि के लिए बात कर रहे पुरुषों को क्या गरीबी रेखा के नीचे रह रहे लोगों की हालत का याद दिलाया जाता है? नहीं।
लेकिन अपनी परिस्थितियों के अनुरूप सवाल करती औरतों से पूरे जगत के उत्थान की अपेक्षा की जाती है।
इसी तरह फेक फेमिनज्म का दूसरा एक बहुत आम उदाहरण जो दिया जाता है वह है “ब्रा और ब्रेस्ट के बिना इनका सो कॉल्ड फेमिनिज्म हो ही नहीं सकता”..बिल्कुल हो सकता है महोदय। पर कोई इनके साथ कर रहा है तो आपके सीने में जलन क्यों हो रही है? क्या आपको पता है की बचपन से अपने स्तनों के साइज के कारण अपराधबोध में जी रही लड़की, सड़क चलते हुए अपने स्तनों पर पुरुषों के हाथ से मार खा कर चल रही लड़की, स्तनों के उभार को छुपाने के लिए बचपन से कंधा झुका के चल रही लड़की, डेस्क पर झुक कर क्लास नोट्स लिखना हो या घर का झाड़ू पोछा करना हो अपने क्लीवेज को हर हाल में छिपा के रखने का भार किसी नाईटमेयर की तरह लेकर चल रही लड़की, जब तब यौन उत्पीड़न के चपेट में आ जाने से शर्म और घृणा इतनी की अपने ही स्तनों को काट देने का सोचने वाली लड़की के लिए ‘स्तन’ बोल पाना, उस पर बात कर पाना, स्तन होना कोई अभिशाप नहीं है इस बात को आत्मसात कर पाना किसी के लिए कितना जरूरी मुद्दा है? यह नकली नारीवाद कैसे है? क्या आपको पता है 12-13 साल की उम्र से पीरियड का दर्द और डर किसी स्टिग्मा की तरह झेल रही कोई लड़की, बचपन को छोड़कर एकदम से बड़े हो जाने पर मजबूर हो जाने वाली, बिस्तर पर दाग के डर से सारी रात सो न सकने वाली लड़की के लिए पीरियड जैसे चीजों से सहज हो पाना, इसको घरवालों से और नहीं छुपाना किसी के लिए कितना जरूरी मुद्दा हो सकता है?
कुछ वैसे ही कुतर्कों के अनुसार पूरे ढके हुए कपड़ों में या घूँघट आदि में घर-बाहर का काम करने वाली औरत ‘रियल इंडियन वीमेन’ और सर उघार कर काम करने वाली, साड़ी की जगह जींस और घर में सूट की जगह नाइटी पहन पाने की लड़ाई करने वाली औरत वैश्या या अटेंशन सीकर कह दी जाती है। मतलब इक्कीसवीं सदी में भी तमाम बहस और मान-सम्मान का तमगा अपने शरीर से उतार कर फेंकने की लड़ाई कम जरूरी कैसे है?
बच्चे और घर संसार चलाने वाली किसी औरत के बनिस्बत बच्चा पैदा नहीं करने की इच्छा रखने वाली या गृहस्थ कार्यों में रूचि नहीं रखने वाली औरतों की लड़ाई फेक फेमिनिज्म की श्रेणी में कैसे आ जाता है? ये औरतें कम रेस्पेक्टबल कैसे जाती हैं? क्या आप पुरुषों की महानता उसके बच्चों की संख्या या घर के रख रखाव को ध्यान में रख कर करते हैं?
क्या लड़ाईयां सिर्फ फाइटर जेट पर या वर्दी में ही लड़ी जाती हैं? क्या रोटी सेंकते हुए घूँघट न लेने की लड़ाई, अपना दुपट्टा नहीं बल्कि सामने वाले कि नजरों को सही करने की लड़ाई, रात को बाहर निकलने पर कर्फ्यू नहीं बल्कि पुरुष की हैवानियत पर कर्फ्यू लगवाने की लड़ाई, तुम्हारे लुंगी-बनियान पहने शरीर की तरह मेरी चमड़ी को भी घर में साँस लेने देने की लड़ाई, अपने शरीर से शर्मिंदा न होने की लड़ाई, पुरुषों की तरह ही औरतों का भी अपनी सेक्सुअल इच्छा को बेझिझक व्यक्त कर पाने की लड़ाई, सेफ सड़कों के लिए लड़ाई, वर्कप्लेस पर स्त्रीविरोधी माहौल के विरुद्ध लड़ाई, घर में बेटों को डॉक्टर और बेटी को बीवी बनाने वाली सोच से लड़ाई, रसोई बांटने की लड़ाई, करियर को गृहस्थी से नीचे न रखने की लड़ाई, विवाह उपरांत मायके से अपनी जड़े न काटने की लड़ाई, शिक्षा नौकरी के बाद भी पति-बच्चों की सेविका न बने रहने की लड़ाई, ससुराल की दहलीज पर अपने वजूद की हत्या न करने की लड़ाई, ‘देवी’ की उपाधि को ठुकरा पाने की लड़ाई…ये सभी लड़ाईयां क्या ‘असल’ लड़ाई नहीं है? क्या इनसे पनपता सशक्तिकरण असल बदलाव नहीं लाएगा?
ये लड़ाईयां छोटी या बड़ी हो सकती है। उनकाअसर गहरा या हल्का हो सकता है पर नकली कभी नहीं हो सकती क्योंकि यह स्त्री से इंसान बनने का संघर्ष है और इसके तहत लड़ी गयी हर एक लड़ाई, उठायी गयी हर एक आवाज़ वजनी मानी जाएगी..यहाँ खोखली अगर कुछ होगी तो वह सिर्फ आपकी कुंठित सोच होगी।
दीपाली दास की एफबी वॉल से.