हिन्दी कविता का यह इतिहास रहा है कि वह समय—समय पर अपनी परिधियों को तोड़ती रही है। अपने शिल्प के साथ कथ्य का भी समय—समय पर इसने परित्याग किया है। इसके पुराने इतिहास को देखने पर यह सहज ही सोचा और अनुमान लगाया जा सकता है। इसी परिवर्तन के क्रम में इसकी यात्रा गीत, नवगीत तथा मुक्तछंद कविता से होते हुए ग़ज़ल पर आकर ठहरती है। वैसे तो ग़ज़ल के बारे में यह घोषणा की जाती है कि हिन्दी में इसका प्रवेश उर्दू के रास्ते से हुआ है।
खैर यह अलग विषय है। आज जो हिन्दी में गजलें लिखीं जा रहीं हैं, वह कहीं से आरोपित नहीं है कि वह अन्य भाषा की उपज है। यह हिन्दी साहित्य में पूरी तरह से रच—बस चुकी है। हाल ही में अशोक आलोक का ग़ज़ल संग्रह ‘ज़मीं से आसमां तक’ की ग़ज़लों की पाठ से पता चलता है। संग्रह में नब्बे ग़ज़लें हैं जो सीधे—सीधे यथार्थ और समकालीन पृष्ठभूमि पर जाकर खड़ी होती हैं। अशोक आलोक एक सधे हुए ग़ज़लकार हैं। इसलिए उनकी गजलों में कथ्य और सौंदर्य का मिला—जुला भाव मिलता है।उनकी ग़ज़लें समकालीनता की शर्तें पूरी करती हैं और उन्हें हम मुक्त कंठ से समकालीन ग़ज़लें कह सकते हैं| अच्छी ग़ज़ल कहने के लिए ‘अरूज’ के स्तर पर जिस तरह की तैयारी होनी चाहिए वह अशोक आलोक के पास है|
सचमुच में आज हम जिस परिवेश और यथार्थ में सांसें ले रहे हैं,वह पूरी तरह से कष्टदायी है। एक प्रवुद्ध ग़ज़लकार के नाते अशोक आलोक इस पीड़ा को अच्छी तरह समझते हैं और अपनी ग़ज़लों में व्यक्त करते हैं अगर उनके शेर वर्तमान राजनीति के गिरते स्तर पर कटाक्ष करते हैं , तो हमारे घर आ घुसे बाज़ार पर भी उनकी नज़र है । मिशाल के तौर पर—
मुस्कुराता है अॅंधेरा जिन्दगी में इस तरह
कातिलों का बसेरा रोशनी में इस तरह
इसी सत्य को संग्रह की भूमिका में अनिरूद्ध सिन्हा भी उद्घाटित करते हैं। उनका कहना है कि—” यथार्थ और कल्पना के स्तर पर दोनों तरह के विकास स्वपनों का बीज अशोक आलोक की ग़ज़लों में मौजूद है। अशोक आलोक जिस प्रकार अपने भविष्य कल्प्ना के प्रति प्रतिवद्ध हैं, उससे तो साफ जाहिर होता है कि इन्होंने कटु यथार्थ की यात्रा पूरी सिद्दत के साथ की है। यह उनके लेखन की विशेषता है कि आवेग और आवेश को औजार नहीं बनाया। ऐसा भी नहीं है कि समकालीन यर्थाथ के प्रति इनके भीतर गुस्सा है,काफी गुस्सा है लेकिन वह गुस्सा विघ्वंस की ओर नहीं जाता है, बल्कि कल्पना और बेहतर भविष्य की ओर जाता है। उन्होंने अपनी ग़ज़लों को नारा नहीं बनाया है। ग़ज़लों में प्यार का मद्धिम—मद्धिम स्वर पिरोया है।”
समकालीन कटु यथार्थ को संबोधित करते हुए संग्रह के कुछ और शेर—
जिस्म जाता है सुलग देख के मंज़र अब भी
कैसे कोई शख्स खुद ओठ को सिलता होगा
xxx
है हवा के होंठ पर चिनगारियों का सिलसिला
कुछ भी नहीं बाकी बचा आंसू बहाने को सिवा
xxx
बेवफ़ा परछाइयां हैं जिन्दगी में इस तरह
चीखती तन्हाइयां हैं जिन्दगी में इस तरह
xxx
लेकिन यह भी सच है कि संग्रह की ग़ज़लें सिर्फ यथार्थ की विसंगतियों की उबड़—खाबड़ जमीन ही तैयार नहीं करती, बल्कि कल्पना और सौन्दर्य का एक बड़ा आसमान भी तैयार करती है। उस आसमान में हम खुशियों को तलाश कर सकते हैं। मिशाल के तौर पर—
फूल खुशबू तितलियां थीं और हम
याद की कुछ बदलियॉं थीं और हम
xxx
किसी सवाल का उत्तर करीब तो आए
कहीं सुकून का मंजर करीब तो आए
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अशोक आलोक ने अपनी ग़ज़लों में यथार्थ संम्प्रेषण के साथ— साथ कल्पना और सौन्दर्य को प्रमुखता से विवेचन किया है।
पुस्तक: ज़मीं से आसमां तक (ग़ज़ल संग्रह)
ग़ज़लकार: अशोक आलोक
मूल्य: 150रुपये
प्रकाशन: मीनाक्षी प्रकाशन,दिल्ली—110092
कुमार कृष्णन
स्वतंत्र पत्रकार
दशभूजी स्थान रोड
मोगलबाजार
मुंगेर
बिहार— 811201