क्रिकेट का ईश्वर तो बस एक ही है!

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सुशोभित-

वर्तमान के क्रिकेटर कितने बलिष्ठ लगते हैं ना! जिम में तराशी हुई काया वाले- भुजबल! टैटूधारी! उन्हें जैसे लम्बे छक्के लगाने के लिए ही सिरजा गया है। पर जो पुराना क्रिकेटप्रेमी किसी कृशकाय के नफ़ीस कवर ड्राइव पर मर मिटा हो, उसका क्या?

मुझे याद है मेरे समय का सबसे ख़तरनाक- गेंदबाज़ों में ख़ौफ़ पैदा कर देने वाला बल्लेबाज़- सचिन तेंडुलकर किसी ख़रगोश सरीखा मासूम था। आवाज़ उसकी लड़कियों जैसी थी। जब वो आया तब बाली उमर का था और सबको लगता था वो और बड़ा होगा तो आवाज़ मर्दानी हो जायेगी। पर वो कभी बड़ा नहीं हुआ। जिस उम्र में वो खेलने आया था, उससे अधिक बरस खेलकर जब वो​ रिटायर हुआ, तब भी नहीं। उसकी क़दकाठी ऐसी गोलमटोल थी कि मानों अभी पूरणपोली खाकर आया हो- कढ़ीचट मराठी! लेकिन तेंदुए-सा चपल! जब वो लपककर चौका लगाता था तो नब्बे के दशक का आत्मविश्वास-विहीन भारत झूम उठता था। सचिन की सफलता को अपनी सफलता समझ लेने वाली एक पीढ़ी अब उम्र के चौथे दशक में चली आई है- दैन्य के उन दिनों को दिल में बसाये।

जवागल श्रीनाथ जब नया-नया आया था, तब उसके कंधे की हड्डियाँ दीखती थीं। चन्द्राकार हँसुली! गेंद फेंकने के बाद वह हाँफने लगता। एक अल्पपोषित भारत का गोलंदाज़, पर स्विंग का सरताज। अनिल कुम्बले एकदम शुरू में चौड़ी फ्रेम का चश्मा पहनता था, बाद में उसने लेंस लगा लिए। वह स्पिनर कम और इंजीनियर ज़्यादा लगता था। सौरव गांगुली भी चश्मीश ही था। देह में उसकी आलस भरा था। ज़्यादा दौड़ना न पड़े इसलिए वह चौके लगाने में विश्वास रखता था। पैर उसके क्रीज़ में धँसे रहते, पर हरी घास वाली पिचों पर लहराती गेंदों को वह ऑफ़साइड में यों खेलता, जैसे कोई नींद में ही उठकर चौके में पानी पीने चला जाता हो। अज़हर छरहरा था, जिसको कि अंग्रेज़ी में कहते हैं- टॉल एंड लैंकी। बहुत ही चुस्त क्षेत्ररक्षक, पर वो क़तई बलिष्ठ न था। राहुल द्रविड़ किसी सॉफ़्टवेयर कम्पनी का व्हाइट-कॉलर एम्प्लायी लगता था। लक्ष्मण अध्यापकों सरीखा। वीरेन्दर सहवाग- जैसे गेहूँ के गोदाम का सेठ!

तब प्रवीण आमरे और सुब्रत बनर्जी की तो बात ही रहने दें। डब्ल्यू.वी. रमन हमेशा उनींदा ही रहा। 1992 में ऑस्ट्रेलिया से पिटकर भारतीय टीम दक्षिण अफ्रीका गई, वहाँ भी पिटी। जिम्बॉब्वे में हारते-हारते बची। तब सब कहते थे- ‘हरारे में भारत हारा रे!’ लेकिन सात एकदिवसीय मैचों की शृंखला में रमन ने शतक लगाकर जब एक मैच जिताया तो हम ख़ुशी से झूम उठे थे। तब जीत का स्वाद दुर्लभ जो था।

रवि शास्त्री ताड़ सरीखा था। झाड़ सरीखा कृष्णम्माचारी श्रीकांत। दिलीप वेंगसरकर मोहल्ले के किसी अंकल सरीखा दीखता। कपिल देव खेतों से निकलकर आया किसान। इनमें से कोई पहलवान नहीं था। कोई मैचो नहीं था। कोई बॉडी-बिल्डर नहीं। क्रिकेट खेलने के लिए शरीर-सौष्ठव तब पहली शर्त नहीं थी, नैसर्गिक प्रतिभा थी। और ये सब निसर्ग के धनी थे। अभ्यास से तपे। लाल गेंद से खेलने वाले। दुनिया के सबसे ख़ूंख़्वार गोलंदाज़ों का चुपचाप सामना करते। आउट होने पर सिर झुका लौट जाने वाले विनयी और भलेमानुष।

जिन्होंने उस दौर को देखा है और हताशा से भरे अपने जीवन को क्रिकेट में यदा-कदा मिलने वाली जीत के उल्लास से भरा है- उनके लिए ये नाम अविस्मरणीय हैं।

ज़माना बदलेगा, नए लोग आएँगे, ताक़त की तूती बोलेगी। गेंद और बल्ले के खेल में गेंद को वनवास दे दिया जायेगा। बल्ले की सिंहासन पर प्रतिष्ठा की जायेगी। शरीर-सौष्ठव प्रतिस्पर्धा से निकलकर आए नव-भुजंग लठैतों की तरह बल्ला भाँजेंगे और अहंकार के साथ गेंद को सीमारेखा के पार जाते हुए देखेंगे। पर जिसके मन में परिश्रम, संकोच, निष्ठा और नैसर्गिकता से भरी वो भारतमूर्तियाँ बस गईं, उनको वो छू भी नहीं सकेंगे।

मैं कहता हूँ- पराजय और दैन्य में कुछ सुन्दर है, शुभ है। विजय और वर्चस्व में कुछ असुन्दर, अशालीन।

और हाँ, ईश्वरों के नाम का उद्घोष बंद करो! क्रिकेट का ईश्वर एक ही है। वह भारत के लिए टेस्ट मैचों में चौथे क्रम पर बल्लेबाज़ी करने आता था। वह समकोण से भी सीधा स्ट्रेट ड्राइव खेलता था। उसके पिता का नाम रमेश था, शिक्षक का नाम रमाकांत। इससे अधिक परिचय देना ठीक नहीं!

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