विज्ञान जनता की अच्छी-बुरी, दोनों प्रकार की धारणाएँ गढ़ता है। यदि धारणा बुरी हुई तो वह लोगों के अवचेतन में शब्दों की विभीषक छवि उकेर देती है। ऐसी ही एक बुरी वैज्ञानिक धारणा से बुराई झेलता शब्द है कोलेस्टेरॉल। अधिसंख्य जनता अभी भी यह मानकर चलती है कि कोलेस्टेरॉल अर्थात् स्वास्थ्यनाशक ‘कोई’ रसायन या पदार्थ। विज्ञान का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व आपको गुड-बैड की बायनरी से बचाना है। जीवन में कुछ भी श्याम-श्वेत नहीं होता , धूसर के शेड लिये रहता है। परिस्थितियाँ तय करती हैं कि अमुक रसायन शरीर के लिए सदुपयोगी है अथवा दुरुपयोगी। यदि उपयोग ‘सत्’ हुआ, तो वह देह के लिए लाभकारी कहलाएगा और अगर ‘दुः’ हुआ तो हानिकारी। परिस्थियों के अनुसार ही कोलेस्टेरॉल-प्रोटीन-सोडियम-पोटैशियम-कैल्शियम-तमाम हॉर्मोन इत्यादि को अच्छा-बुरा हमें समझना चाहिए।
कोलेस्टेरॉल के विषय में बुरी धारणाओं का वैज्ञानिक निर्माण सन् 1960 के आसपास हुआ। जब वैज्ञानिकों-डॉक्टरों ने लोगों से कोलेस्टेरॉल-युक्त भोजन बहुत कम करने को कहा। तीन-सौ मिलीग्राम के आसपास। लगभग दो अण्डे सप्ताह-भर में। सोच यह थी कि जितना अधिक कोलेस्टेरॉल-युक्त भोजन करोगे, उतना शरीर में व ख़ून में कोलेस्टेरॉल की मात्रा बढ़ेगी। जितना अधिक कोलेस्टेरॉल, उतना अधिक हृदय-रोग। सिम्पल!
विज्ञान का काम अपने ही शोधित निष्कर्षों का सतत निर्मम विश्लेषण है। यही चलता रहा। तब आहार-वैज्ञानिकों ने जाना कि ख़ून में पायी जाने वाली कोलेस्टेरॉल की मात्रा केवल कोलेस्टेरॉल-युक्त आहार के सेवन पर निर्भर नहीं। यानी केवल इतना सरल सच मानने से काम नहीं चलने वाला कि ख़ून में ऊँची पायी गयी कोलेस्टेरॉल की मात्रा केवल ‘ग़लत’ भोजन के कारण बढ़ी आयी है। नतीजन यह सोचना कि अधिक अण्डे या इसी तरह का कोलेस्टेरॉल-प्रचुर भोजन खाने की वजह से ख़ून में कोलेस्टेरॉल बढ़ जाता है, सही नहीं है। शोधों के नतीजे भिन्न हैं। अनेक बार (आम तौर पर) अगर हम कोलेस्टेरॉल का सेवन दुगुना करते हैं, तो ख़ून में कोलेस्टेरॉल दुगुना नहीं होता। बल्कि उसमें केवल पाँच प्रतिशत वृद्धि होती है। ज़ाहिर है, जिनका कोलेस्टेरॉल-स्तर बढ़ा हुआ है, उनमें दोष केवल ग़लत खानपान पर नहीं। पर ऐसे में सवाल उठता है कि कौन से वे कारक हैं, जिनके कारण बिना अधिक कोलेस्टेरॉल-युक्त भोजन किये भी कोलेस्टेरॉल की मात्रा ख़ून में बढ़ जाए? उत्तर है व्यक्ति के जीन।
वे जीन जो कोलेस्टेरॉल-मेटाबॉलिज़्म के लिए आवश्यक रसायनों का निर्माण करते हैं। ऐसे रसायन जो तय करते हैं कि कोलेस्टेरॉल की मात्रा ख़ून में कितनी रहेगी। शरीर में मौजूद कोलेस्टेरॉल की बड़ी मात्रा हम भोजन से नहीं पाते, स्वयं शरीर के जीनों-रसायनों की सहायता से भीतर बनाते हैं। यह कोलेस्टेरॉल तमाम कामों में इस्तेमाल होता है। अनेक हॉर्मोन इससे निर्मित होते हैं, अनेक मेटाबॉलिक क्रियाएँ इससे संचालित होती हैं। पुरुष के पुरुष होने में उसके पुरुष-हॉर्मोन टेस्टोस्टेरॉन का बड़ा योगदान है। कैसे बनेगा यह हॉर्मोन बिना कोलेस्टेरॉल के? स्त्री स्त्री की तरह है, क्योंकि उसके पास ईस्ट्रोजेन और प्रोजेस्टेरॉन स्त्री-हॉर्मोन हैं। कैसे रहेगी वह स्त्री बिना कोलेस्टेरॉल से बने इन हॉर्मोनों से? विटामिन डी का निर्माण त्वचा-यकृत-वृक्क मिलकर कटे हैं। कैसे बनेगा शरीर में विटामिन डी बिना कोलेस्टेरॉल के?
समय है कि हम कोलेस्टेरॉल को कुटिल-क्रूर-कुत्सित मानना बन्द करके उसकी अच्छाई-बुराई को सविस्तार समझें। शरीर की एक कोशिका ऐसी नहीं (जी हाँ, एक भी। जो बिना कोलेस्टेरॉल के बन सके)। लेकिन फिर यह भी सच है कि ख़ून में मौजूद कोलेस्टेरॉल की अत्यधिक मात्रा अनेक रोगों की पृष्ठभूमि भी तैयार करती है।
अनेक लोग मानव-समाज में ऐसे हैं जिनके ख़ून में कोलेस्टेरॉल की मात्रा कोलेस्टेरॉल-प्रचुर-भोजन करने से बढ़ जाती है। पर सभी ऐसे नहीं हैं। सारे लोगों की कोलेस्टेरॉल-संवेदनशीलता अलग-अलग है। विज्ञान की ऑब्जेक्टिविटी ही जीव-विज्ञान-रिसर्च के दौरान सबसे बड़ी समस्या बनकर सामने आती है। सभी इंसान एक मेल के नहीं हैं। लेकिन डॉक्टर स्वास्थ्य-सम्बन्धी गाइडलाइन समूचे देश, बल्कि सारे संसार के लिए जारी कर देते हैं। एक हूक उठती है अमेरिका में — कोलेस्टेरॉल कुत्सित है! क्रूर है! कुटिल है! पूरी दुनिया के सभी डॉक्टर अनुसरण करते हुए कहते हैं- जी, बिलकुल कुत्सित है! क्रूर है! कुटिल है! अमेरिका से फिर स्वर गूँजता है- कोलेस्टेरॉल खाने में कोलेस्टेरॉल-युक्त-भोजन से सेवन से बढ़ता है। दुनिया फिर हामी भरती जाती है, जी, बिलकुल इसी से बढ़ता है।
एक आहार-वैज्ञानिक डेविड क्लरफेल्ड इस बाबत दिलचस्प जानकारियाँ सामने रखते हैं। वे कहते हैं कि जितना हम वैज्ञानिक लैब में जानवरों को समझते हैं, उतनी देर तक हम मनुष्यों को नहीं समझते। इसी कारण अनेक बार ग़लत निष्कर्ष निकलते हैं, जिनसे समाज में ग़लत धारणाओं का प्रचार-प्रसार होता है। कोलेस्टेरॉल-सम्बन्धी ढेरों शोध हुए खरगोश पर, जो कि एक शाकाहारी जीव है। जबकि कोलेस्टेरॉल पाया जाता है पशु-उत्पादों में। अब जब शाकाहारी खरगोश पर किये शोधों के नतीजे विज्ञान सर्वाहारी मनुष्यों पर लगाएगा, तो गलतियाँ तो होंगी ही।
यह लेख कोलेस्टेरॉल-मेटाबॉल्ज़िम को विस्तार से नहीं समझाता। इसका उद्देश्य लोगों को कोलेस्टेरॉल का जैवरसायन समझाना है भी नहीं। इसे कोलेस्टेरॉल-सम्बन्धित रोगों की समझ विकसित करने के लिए भी नहीं लिखा गया। इन विषयों पर तो आगे बातचीत होगी ही। इस लेख का उद्देश्य तो रसायनों के प्रति दशकों से निर्मित बुरे पूर्वाग्रहों को तोड़ कर कबीर को याद करना है:
अति का भला न बोलना , अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना , अति की भली न धूप।
कोलेस्टेरॉल हो , चाहे शरीर का अन्य कोई रसायन, उसकी अति और न्यूनता दोनों बुरी हैं। एक काल्पनिक फ़िल्म का मनगढ़न्त क़िस्सा आपको सुनाता हूँ। फ़िल्म में एक खलनायक है। हत्यारा। उसे हत्याएँ करते दिखाया जाता है। इससे दर्शकों में उसके लिए धारणा बनती है। हत्या बुरी बात है, इसलिए हत्यारा भी बुरा व्यक्ति हुआ। अब इसी मनोदशा के साथ क़िस्सा आगे बढ़ता है। आगे की कहानी में हत्यारा एक परिवार का सदस्य है। उस परिवार में अनेक लोग हैं: कुछ अन्य बुरे भी हैं, पर अनेक अच्छे भी। अब इस हत्यारे के प्रति जो धारणा हमने बनायी थी, उसमें तनिक झकझोर उठती है। इतने अच्छे घर से हो, तो बुरे काम क्यों करते हो भाई? अपने-आप को बदलो न! अपने बुरे भाइयों को भी! अच्छे सदस्यों से सीख लो!
फिर कहानी और आगे चलती है। हत्यारा हमें रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में तमाम काम करते दिखता है। तरह-तरह के उत्तरदायित्व। क़िस्म-क़िस्म की भागदौड़। ढेरों जिम्मेदारियाँ। इन्हें देखकर हमारी मनोदशा फिर हमें हिलाती है। हत्यारा इतना भी बुरा इंसान नहीं है। कम-से-कम उसे पास से देखने पर तो वह बुरा नहीं जान पड़ता। फिर वह जो दुष्कर्म जब-तब कर जाता है, उनका क्या? उन हत्याओं को इस व्यक्ति के जीवन के सापेक्ष कैसे समझा जाए? दो बातें मन में उठती हैं। कदाचित् यह व्यक्ति हत्याएँ परिस्थितिवश करता है। बाह्य परिस्थिवश , आन्तरिक परिस्थितिवश। परिस्थितियाँ इससे वे दुष्कर्म करा ले जाती हैं। समूचे जीवन में सदैव वह दुष्कर्मी नहीं रहता। ढेरों सुकर्म करता है , सम्यक् उत्तदायित्व निबाहता है। लेकिन जब-तब पथभ्रष्ट भी होता है , कई बार दूसरों की जान तक भी ले लेता है।
मैं इस कहानी को सुनाते समय हत्यारे का बचाव नहीं करता। पर कहानी सुनने वालों से उसके जीवन के प्रति समझ विकसित करने को कहता हूँ। उसके प्रति जो भी धारणा-अवधारणा बनाइए, सविस्तार उसे समझकर बनाइए। जल्दबाज़ी में केवल एक घटना से उसे मत आँकिए। समूचा समझिए उसे। क़ानून तो उसे सज़ा देगा ही। पर क़ानून भी निष्कर्ष निकालने से पहले उसे यथासम्भव समझेगा। यही विधि-सम्मत न्याय का परिचय है।
यह हत्यारा कोलेस्टेरॉल-वाहक-प्रोटीन का एक प्रकार है। इसे एलडीएल या लो-डेंसिटी-लायपोप्रोटीन कहते हैं। इसके अनेक भाई-बहन हैं। एक एचडीएल यानी हाई-डेंसिटी-लायपोप्रोटीन है। फिर एक वीएलडीएल यानी वेरी-लो-डेंसिटी-लायपोप्रोटीन है। फिर एक कायलोमाइक्रॉन है। इन सभी लायपोप्रोटीन-परिवार-सदस्यों के शरीर में अलग-अलग काम हैं। कुछ अच्छे , कुछ बुरे। ये सेहत के लिए आवश्यक भी हैं , इनसे रोगों का भी जन्म होता है।
यहाँ एक महीन बात बतानी ज़रूरी है , जिसमें लोग अक्सर चूकते हैं। कई बार लोग जो कोलेस्टेरॉल के बारे में थोड़ा जानते हैं , सोचते हैं कि कोलेस्टेरॉल कई मेल के होते हैं। यह सच नहीं है। कोलेस्टेरॉल एक ही होता है। किन्तु शरीर में उसके ढोने वाले रसायन कई हैं, जिन्हें लायपोप्रोटीन कहा जाता है। इनमें से अनेक लायपोप्रोटीनों के नाम हमें ऊपर पढ़े हैं। तो जब कोई व्यक्ति कहता है कि एलडीएल कोलेस्टेरॉल बुरा है, तो उसका अर्थ यह होता है कि एलडीएल नामक लायपोप्रोटीन बुरा अर्थात् रोगकारक है। जब कहा जाता है कि एचडीएल कोलेस्टेरॉल अच्छा है , तो इसका अर्थ यह है कि एचडीएल नामक लायपोप्रोटीन अच्छा यानी रोगनाशक है।
कोलेस्टेरॉल अपने-आप में केवल कोलेस्टेरॉल है। एक रसायन, जो अच्छा-बुरा दोनों है। जब-जहाँ-जैसा काम कर जाए। अब चूँकि लोग लायपोप्रोटीन शब्द को जीभ पर सरलता से धारण नहीं कर पाते , इसलिए वे कोलेस्टेरॉल शब्द को ही खलनायक के तौर पर उचारते हैं। कोलेस्टेरॉल यानी बहुत बुरा रसायन- ऐसा उनका मानना दृढ़ होता जाता है। जानना चाहते हैं कि अगर कोलेस्टेरॉल न होता, तो क्या होता? न हम होते न ही जानवर। जन्तु-कोशिका ही न बनती , तो मैं-आप क्या ख़ाक बनते! कोलेस्टेरॉल है, तो कोशिकाएँ हैं। कोशिकाएँ हैं, तो जानवर हैं और मनुष्य भी।
जीवन की फ़िल्म का यह खलनायक इतना बुरा नहीं कि उसे केवल कोसा जाए। डॉक्टर जो सेहत-सम्बन्धित न्याय करते हैं। वे भी इसे सम्पूर्णता के साथ समझ कर निर्णय लेते हैं। कोलेस्टेरॉल हममें हर जगह है, हम-जैसा है। काफ़ी अच्छा। पर थोड़ा-सा बुरा भी। कुदरत से उसे हम-सा ही बनाया है।
लेखक डॉ. स्कंद शुक्ल जाने-माने चिकित्साविज्ञानी हैं.