Ashwini Sharma : मुंबई में जैसे चाय की दुकानों की तरह फिल्म निर्माण कंपनियां खुलती हैं ठीक वैसे ही दिल्ली में भी न्यूज चैनल और अखबार के दफ्तर खुलते हैं… सबका मकसद देश में नंबर वन से भी आगे निकलना होता है लेकिन जल्द ही टाय टाय फिस्स हो जाती हैं… दुख होता है जब कोई पत्रकार ठगा जाता है… उन्हें मेहनत का पैसा तक नहीं मिलता… नोएडा में भास्कर न्यूज के नाम से खुले चैनल ने तो हद ही कर दी… कुछ बड़े चेहरों को आगे कर पत्रकारों से इस्तीफा ले लिया गया… पत्रकारों के करियर से खिलवाड़ तो किया ही कई महीनों की सेलरी तक नहीं दी… अब भास्कर न्यूज के उन बड़बोले पत्रकारों की भी खटिया खड़ी है… उन्हें भी अब हाय लग रही है… काश सब साथ होते तो पत्रकार ठगे ना जाते.
Mukesh Kumar : कल मीडिया. टीआरपी और लोकतंत्र पर दो सत्रों में अच्छी चर्चा हुई। टीआरपी द्वारा गढ़े गए मीडिया के चरित्र और उसके एजेंडे को सभी ने समझा और उसमें छिपे ख़तरों को भी रेखांकित किया। बाज़ार के मंत्रजाप के बीच ऑनरशिप (स्वामित्व) और कंट्रोल (नियंत्रण) के सवाल को अनदेखा कर दिया जाता है या फिर उसे उतना महत्व नहीं दिया जाता। लेकिन बहस में ये सभी मुद्दे आए। अलबत्ता एक असहायताबोध पसरा हुआ था। किसी को कोई राह सूझ नहीं रही। कोई विकल्प समझ में नहीं आ रहा। जो विकल्प रखे जा रहे हैं वे भी कारगर नहीं लगते। लगता है ब़ड़ी पूँजी के खेल ने हमें खेल के मैदान से लगभग बाहर कर दिया हैऔर हम अब नया मैदान तलाशने में जुटे हुए हैं।
Amitaabh Srivastava : लगातार मेरी ये भावना मजबूत होती जा रही है कि हम अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद या उसके साथ एक भयंकर हिंसक, उन्मादी, उतावले, हड़बड़िये और कुंठित समाज की संरचना, संवर्धन और संरक्षण कर रहे हैं। हमारी सारी संस्थाएं इस काम में एक दूसरे से गलाकाट मुकाबला कर रही हैं। राजनीति और मीडिया इसमें सबसे आगे है। शांत, संयत, स्थिर, संतुलित होकर रहने वाले, सोचने वाले और सोच कर बोलने वाले लगातार कम हो रहे हैं, हाशिये पर धकेले जा रहे हैं चाहे वे किसी भी वर्ग, वर्ण, जाति, धर्म, विचार से जुड़े हों। रहन सहन की शैली से लेकर बातचीत के तौरतरीकों तक में सिर्फ सामने वाले पर हावी रहने और उसे पटकनी देने का ही भाव हावी रहता है। हम हंसी के सारे दिखावे के बावजूद मूल रूप में बेहद क्रूर हो चुके हैं।
पत्रकार अश्विनी शर्मा, मुकेश कुमार और अमिताभ श्रीवास्तव के फेसुबक वॉल से.